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                     मौके पर पहले से मौजूद कई 
                    वर्करों ने देखा कि महज एक क्षण के लिए लैडेल में जरा-सी 
                    तड़फड़ाहट हुई और सब कुछ शांत हो गया। जीवन और मृत्यु के बीच 
                    सचमुच कितना कम फासला है और जीवन को बचाने में इस शरीर का कवच 
                    कितना क्षणभंगुर है! 
                     
                    मातम, मायूसी और असमंजस में डूबे लोग कॉन्फ्रेंस रूम पहुँचे। 
                    अब तक शॉप के कोने-कोने से 'ए` शिफ्ट के पूरे लोग आ चुके थे। 
                    तरुण की निगाहें लगातार संदीप को ढूँढ रही थीं, लेकिन वह कहीं 
                    दिख नहीं रहा था। वहाँ अटेन्डेन्स की कम्प्यूटर शीट मँगाई गई 
                    और उसके अनुसार एक-एक आदमी की मौजूदगी पर टिक-मार्क लगाया गया। 
                     
                    डी एम को यह शक था कि अवकाश-ग्रहण उम्र के करीब पहुँचे किसी 
                    बूढ़े कर्मचारी ने जान-बूझकर अपनी मौत मोल ली होगी। चूँकि 
                    कारखाने के भीतर सांघातिक (फेटल)  दुर्घटना की अवस्था में मरे 
                    कर्मचारी के किसी वारिस को सहानुभूति आधार पर तत्काल नौकरी 
                    देने का प्रावधान अब भी समाप्त करना संभव नहीं हो पाया था। 
                    पहले आम कर्मचारियों को पच्चीस साल सेवा देने के बाद अपने एक 
                    बेटे या दामाद के लिए नौकरी पाने की सुविधा बहाल थी, जिसे अब 
                    कंपनियों में वैश्विक प्रतिस्पर्धा शुरू होने के बाद खत्म कर 
                    दिया गया था। चूँकि अब पुरानी तकनीक पर आधारित ज्यादा लागत पर कम 
                    गुणवत्ता के माल उत्पादित करनेवाले शॉप बंद कर दिए गए थे और 
                    उनमें काम करनेवाले कर्मचारी वालिंटियरली रिटायर्ड करा दिए 
                    गए थे। 
                     
                    डी एम की आशंका से अवगत होकर तरुण में एक बेचैनी समा गई। 
                    ज़माने का यह कितना निर्लज्ज, विद्रूप और भयावह दौर था कि अपनी 
                    संतान के अनिश्चित भविष्य को एक अदद नौकरी से नवाज़े जाने के 
                    लिए अपनी जान तक देनी पड़ जाए। 
                     
                    तरुण का अंत:करण ढेर सारी आकुलताओं से भर उठा। हाजिरी के बाद 
                    जो परिणाम सामने आया, उससे डी एम का संशय तो गलत साबित हुआ, 
                    लेकिन तरुण का संशय एक हृदयद्रावक सच में बदल गया। लैडेल में 
                    गिरनेवाला वर्कर संदीप ही था जिसे उसकी आँखें शुरू से ही नदारद 
                    पा रही थीं। संदीप बूढ़ा नहीं बल्कि छब्बीस-अट्ठाईस वर्ष का 
                    हृष्ट-पुष्ट नौजवान था। उसने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि 
                    ओवरहेड क्रेन की कोई इलेक्ट्रिकल गड़बड़ी ठीक करने के लिए 
                    फोरमैन ने उसे ऊपर भेजा था और वहाँ से वह काम करते हुए गिर 
                    पड़ा। फर्श पर गिरा होता, फिर भी वह मर तो जाता ही, लेकिन तब 
                    उसका क्षत-विक्षत पार्थिव शरीर रह जाता संस्कार के लिए....मौत 
                    की पुष्टि के लिए। 
                     
                    तरुण की आत्मा एकदम बिलख उठी। आज ही शाम को उसे बहन का तिलक 
                    चढ़ाने जाना था। तरुण से भी उसने साथ चलने के लिए कह रखा था। 
                    सुबह दोनों ने साथ ही कम्प्यूटर में हाजिरी के लिए अपने-अपने 
                    कार्ड पंच किए थे। 
                     
                    देह जलने की एक तीब्र गंध पूरे शॉप में फैल गई। कॉन्फ्रेंस 
                    हॉल में सबने यह गंध महसूस की और भीतर ही भीतर सभी घुटकर रह 
                    गए। लग रहा था जैसे वे किसी श्मशान में चिता के पास बैठे हों। 
                    तरुण के भीतर इस गंध ने एक हाहाकार जैसा मचा दिया। लगा वह फफक 
                    कर रो पड़ेगा। उसकी आँखें पसीज गईं। 
                     
                    डी एम ने सबको संबोधित किया, ''दोस्तो, संदीप एक मेहनती और 
                    काफी अनुभवी इलेक्ट्रिशियन था। इस सदमे से मुझे गहरा धक्का 
                    पहुँचा है। मैंने तो सोचा था कि कोई रिटायरिंग एज वर्कर 
                    जान-बूझकर मरा है। संदीप जैसा डायनेमिक और स्मार्ट लड़के के 
                    बारे में तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था। लेकिन होनी पर 
                    अख्तियार ही किसका है! हमें अब एक बड़ी चुनौती का सामना करना 
                    है।`` 
                     
                    डी एम ने कुछ देर के लिए एक विराम ले लिया। सबके चेहरे पर अगले 
                    वाक्य की उत्सुकता टंक गई। उसने आगे कहा, ''आप सबको मालूम है 
                    कि आई एस ओ ९००२ प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए पिछले एक साल से 
                    हमारी तैयारी चल रही है। आप इससे भी अवगत हैं कि अंकेक्षण 
                    करनेवाली टीम यहाँ आई हुई है और हमारे डॉक्यूमेंटेशन सिस्टम 
                    की ऑडिट कर रही है। कभी भी वह टीम शॉप फ्लोर में आकर आपलोगों 
                    से भी कोई सवाल कर सकती है। आज इस दुख की घड़ी में मेरा यह सब 
                    कहना अटपटा लग रहा होगा।`` 
                     
                    डी एम ने रुककर सबके उदास चेहरे की प्रतिक्रिया देखी और आगे 
                    कहने लगा, ''लेकिन इस हादसे के कारण जो परिस्थितियाँ बन गई 
                    हैं, उसी के मद्देनजर यह सब कहना ज्यादा जरूरी हो गया है। आपको 
                    बताया जा चुका है, फिर भी मैं खास तौर पर आज एक बार और दोहराना 
                    चाहता हूँ कि आई एस ओ ९००२ का विश्वस्तरीय गुणवत्ता प्रमाणपत्र 
                    हमें नहीं मिला तो हमारा बनाया हुआ माल कोई नहीं खरीदेगा और 
                    दुनिया के सामने मुकाबले में हमें कोई तवज्जो नहीं देगा। 
                    परिणाम यह होगा कि हमारा यह विभाग बंद हो जाएगा और सबका 
                    भविष्य मुश्किलों में फँस जाएगा।``  
                     
                    डी एम ने तनिक रुककर कर्मचारियों के चेहरे पर उभर आई चिंता को 
                    एक बार फिर लक्ष्य किया और अपना वक्तव्य जारी रख रखा, ''उस 
                    ऑडिट टीम को अगर मालूम हो गया कि इतनी बड़ी दुर्घटना यहाँ हो 
                    गई है तो हमारे प्रति उनका इम्प्रेशन डगमगा सकता है और वे 
                    निगेटिव रिमार्क कर सकते हैं। इस शोकाकुल अवस्था में मुझे यह 
                    सब कहते हुए बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा, लेकिन क्या करूँ, आखिर 
                    जो छोड़कर चले जाते हैं, उसके परिजन भी उसके गम में अपनी 
                    जिंदगी रोक नहीं देते। फ्रेंड्स, आपको जरूर बुरा और नागवार 
                    लगेगा सुनकर, लेकिन हमें यह करना होगा। संदीप की मौत की खबर 
                    हमें अपने सीने में ही दफ्न कर देनी होगी। हमें छाती पर पत्थर 
                    रखकर यह कहना होगा कि यहाँ कोई ऐसी अप्रिय घटना नहीं हुई। 
                    संदीप को आज हम अनुपस्थित दिखा देंगे। आपको अपने और अपने 
                    परिवार की परवरिश के लिए भूल जाना होगा कि आपने यहाँ कोई हादसा 
                    होते देखा है।`` 
                     
                    कुछ देर गहरी खामोशी छा गई जैसे काली अँधेरी रात की भयानक 
                    नीरवता उतर आई हो। 
                     
                    तरुण रोक नहीं पाया स्वयं को और कह उठा, ''ऐसा कैसे हो सकता है 
                    सर?`` वह अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया, उसकी आँखें आँसुओं से 
                    डबडबा गईं, ''सुबह संदीप मेरे साथ ही आया था ड्यूटी। आज शाम 
                    उसे वर्षों से विवाह की प्रतीक्षा कर रही बहन के लिए तिलक 
                    चढ़ाने जाना था। उसके माँ-बाप को यह तो पता होना चाहिए कि उसके 
                    लाड़ले बेटे की ड्यूटी इतनी लंबी हो गई कि वह अब कभी घर वापस 
                    नहीं आएगा। मुझसे ही वे पूछने आएँगे.....मैं कैसे उनसे झूठ 
                    बोल सकूँगा सर?`` बोलते-बोलते तरुण का बिलखना जोर पकड़ गया। 
                     
                    डिविजनल मैनेजर ने हमदर्दी जताकर सांत्वना देने का ढोंग करते 
                    हुए तरुण को एक ऑफिसर के साथ अपने चैम्बर में भिजवा दिया। 
                    अफ़सोस की मुद्रा में देखते हुए उसने फिर कहा, ''मैं तरुण की 
                    भावना समझ सकता हूँ, लेकिन हमें इस मौके पर प्रैक्टिकल होना ही 
                    पड़ेगा। मैं नहीं समझता कि उसके परिवार के चार-पाँच जनों को 
                    संतुष्ट करने के लिए यहाँ काम करनेवाले चार सौ आदमी को जोखिम 
                    उठाना चाहिए। इसलिए यह मेरा अंतिम फैसला है कि आप में से किसी 
                    के मुँह से किसी के भी सामने यह नहीं निकलना चाहिए कि आपने 
                    यहाँ कोई दुर्घटना देखी है। इसी में सबकी खैर है.....ठीक है, 
                    अब आपलोग जा सकते हैं।`` 
                     
                    जब सभी वहाँ से चलने लगे तो ऐसा लगा कि हरेक के माथे पर 
                    धर्मसंकट का एक पहाड़ लद गया है, जिसे बहुत दूर और देर तक ढोना 
                    आसान नहीं है। उन्हें यह भी लगा कि डी एम के कहने के लहजे में 
                    सिर्फ परामर्श नहीं आदेश भी है जिसकी अवहेलना करने पर वे 
                    अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत सख्ती भी बरत सकते हैं। 
					
                    
                    डी एम ने तरुण को अपने ठंढे कमरे में बैठाकर ठंडा पानी पिलवाया 
                    और उसके जज्बात को कद्र करने की भंगिमा दिखाकर समझाने की कसरत 
                    शुरू कर दी, ``तरुण, मैं जानता हूँ कि संदीप तुम्हारा बहुत 
                    घनिष्ट दोस्त था, तुम्हारे लिए मुश्किल है उसकी मौत को पचा 
                    लेना। लेकिन तुम पढ़े-लिखे एक होशियार आदमी हो, कंपनी और सभी 
                    कर्मचारियों के हितों को देखते हुए तुम्हें अपने-आप पर काबू 
                    रखना होगा।``  |