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गाँव मेरे लिए एक स्वप्नलोक बनता जा रहा था। मेरे और गाँव के रिश्तेदारों के सरोकार बदलते जा रहे थे। हर बार मैं समझता था कि गाँव का मेरा यह अंतिम फेरा ही होगा। अम्मा के मरने की खबर कभी भी आ सकती थी। शहरी जीवन का आदी हो गया था मैं। वहाँ एक आसानी यह थी कि रिश्तों का कोई दबाव नहीं था। सब मस्त थे। एक-दूसरे के व्यक्तिगत जीवन में दखल नहीं देते थे। उन्हें इन बातों के लिए फ़ुर्सत ही कहाँ मिलती थी!

गाँव में पाँच-सात दिन रहने पर मेरे दिमाग में खुजली होने लगती थी। जिससे भी बात करो, वह कटाक्ष में बात करता। कभी मज़ाक में तो कभी गुस्से और कभी उलाहने में। कमला ताई कहती, ''वे निर्मोही, कभी अपनी बहनों के घर भी जाया कर। अपने भाई को देखने का चाव उन्हें भी होता होगा।'' चंपा बुआ कहती,  ''वे धर्मदेव, मेरा भाई पूरा हुआ था उधर मुंबई में, तू जाकर एक बार अफ़सोस ही कर आता उन्हें!'' हर तरफ़ से मुझ पर वैचारिक हमले होते रहते। ये दिन उफ-उफ करते बीतते।''

और अम्मा! वह भी वैसी ही बातें करती। कहती, ''बहू को देखे पंद्रह बरस हो गए। उसका कोई फर्ज़ नहीं कि आकर सास की ख़ैर-ख़बर ले, मेरा सुख-दुख करे! मेरा भाई मरा, भाभी चली गई, गाँव में ताया नानकू पूरा हो गया, उसे आना नहीं चाहिए था! तेरे बच्चों की तो शक्लें ही भूल गई। तेरी बहनों पर मनोहर इतना खर्च करता है, उनके बच्चों को शगुन आदि पर, क्या तुम्हारा कोई फ़र्ज़ नहीं बनता कि रिश्तेदारियाँ निबाहो। कल तूने उस घर में से हिस्सा भी लेना है। मनोहर की बहू यही ताने मारती है मुझे कि छोटी बहू ने तो कभी तेरी सुध नहीं ली, फिर भी तू दिन-रात देव का गुणगान करती रहती है।''

अब अम्मा नहीं रही तो ये बातें करने वाला भी कोई नहीं रहा। अब हर तरफ़ ज़िद और रीस ही चल रही है कि तू जैसा करेगा वैसा ही तेरे साथ करेंगे। अम्मा थी तो सारा कुनबा अच्छी तरह आपस में जुड़ा हुआ था। कहीं कुछ कमी-पेशी या ऊँच-नीच हो जाती तो अम्मा सब कुछ अपने ऊपर ले लेती बेचैन हो उठती, इधर-उधर सलाह करता। चर्चा करता। और जब तक सब कुछ सामान्य नहीं हो जाता, तब तक चैन से कहाँ बैठती थी अम्मा!

हर बार मेरे गाँव आगमन पर खिल उठती थी अम्मा। कहती, ''कुनबे की इस माला में बस हर जगह तेरी ही कमी खलती है। जो पास होता है, उसका इतना चाव नहीं होता। तू छोटा है न, बहुत याद आता है। कई बार तेरी शक्ल भूल जाती है। एक साल का वक्फा कम नहीं होता रुलाने के लिए। मनोहर तो वट-वृक्ष सरीखा अपनी गृहस्थी में खप गया है। वह कुनबे में सबसे बड़ा है- मुझे हमेशा से ही पक्का-प्रौढ़ दिखता रहा है और तेरे पिता के मरने के बाद तो उसकी कद-काठी, नयन-नक्श, चेहरा-मोहरा सब उन जैसा ही लगता है। बेटा तो बस तू ही है जिससे मिलकर तेरा बचपन मेरी आँखों के सामने तैरने लगता है। मेरी माँ कहा करती थी कि जो जितना दूर हो, वह उतना ही दिल के करीब लगता है। उसकी ये पहेलियाँ तब मेरी समझ में नहीं आ पाती थीं। अस्सी साल की होकर अब मुझे पता चला है कि बच्चों का मोह क्या होता है। माँ का मन बच्चों से कभी नहीं भरता, वे चाहे कितनी आसानी से उसे भूल जाएँ। मेरे कान तेरी आहट सुनने को तरसते रहते हैं। वे बड़भागिया! छोड़कर आ जा वह नकली जीवन! यहाँ की आबोहवा देख। स्वर्ग समान है यह धरती!  हर तरफ़ अपने लोग, एक दूसरे की मदद करने के लिए हमेशा तैयार!  वहाँ पराए और पत्थर दिल लोगों के बीच सारी उम्र काटकर तू भी निर्मोही और छोटे दिल का बन गया है!  सारा खून पानी हो गया है तेरा! अपने संबंधियों को देखकर एक बार भी तेरा खून ठाठें नहीं मारता। यही बस जा, हम भी देखें तेरी टौर, तेरा बाग-परिवार!

अम्मा बहुत दूर चली जाती। कलप्ना के बड़े-बड़े सब्ज़बाग देखने लगती। उसे क्या पता कि अब मेरी वापसी संभव नहीं रही। अब तो मैं बरगद सरीखा वहीं शहर में ही फैल गया हूँ जिसे किसी भी तरीके से यहाँ रोप पाना मुमकिन नहीं। फिर मेरा परिवार किसी और ढंग से बड़ा हुआ है। गाँव के तो नाम से ही बिदकते हैं वे।

अम्मा नहीं जानती कि गाँव में एक भी बेल ऐसी नहीं जो मुझ जैसे शहरी परिंदे के पाँव बाँध सके। शहर की बेरहम हवा आदमी की ग्रामीण रिश्तों के प्रति बेगाना बना देती है। शहर में भावनाओं से गुज़र-बसर नहीं होती। हर चीज़ मोल के भाव बिकती है वहाँ। लोग तो बात करने तक की फीस ले लेते हैं वहाँ।

इधर अम्मा जब से आँखों से बिलकुल अंधी हो गई तब से बहुत ही भावुक हो उठी थी वह। बात-बात पर आँखें छलछला आती उसकी। मनोहर की चिंता करती। कहती, ''तेरी अच्छी पक्की नौकरी है। बच्चे भी ऊँचे ओहदे पर हैं। मनोहर के बच्चों के पास ढंग की रोज़ी-रोटी का जुगाड़ नहीं। मिट्टी के साथ मिट्टी होकर घर की ज़रूरत के लिए अन्न उगाते हैं। बारिश अच्छी हो जाए तो बल्ले-बल्ले, नहीं तो बाप-बेटे आसमान की तरफ़ पानी के लिए ताकते रहते हैं। बहुत कठिन जीवन है उनका बेटा। तेरे पास लाखों रुपए हैं, तू यहाँ की तीन-चार एकड़ ज़मीन लेकर क्या करेगा! मनोहर के नाम कर दे। मनोहर कह रहा था कि पैसों का जुगाड़ करके वह तुझे ज़रूर भेजेगा। मेरे जीते-जी यह निबट जाए तो अच्छा है, बाद में तुम भाइयों में थाना-कचहरी हो तो मेरी आत्मा को दुख पहुँचेगा। देखता नहीं, ज़रा-ज़रा ज़मीन के लिए गाँव में भाइयों के बीच तलवारें तन जाती हैं। मनोहर ने सारी उम्र मुझे सँभाला है, तू तो परदेसी है, मेहमान की तरह आता है।''

अम्मा के जीत-जी मैं कुछ फैसला नहीं कर पाया कि ज़मीन मनोहर के नाम कर दूँ। अब अम्मा के गुज़र जाने के बाद रो-धोकर, सारे क्रिया-कर्म करके सुबह मनोहर के साथ उसके स्कूटर पर पास के कस्बे से मुंबई के लिए ट्रेन लेने पहुँचा हूँ। मनोहर हम भाई-बहनों में सबसे बड़ा है, धीर-गंभीर स्वभाव है उसका। उससे कभी सीधे आँख मिलाकर बात नहीं की मैंने।

मुझसे गले मिलकर गला भर आया उसका। बोला, ''अम्मा के कारण तू हर साल आता था, अब पता नहीं आएगा भी या नहीं!  बहुत सख़्त दिल है तेरा। सब रिश्तों से मुक्त है तू!  मेरा हाल-चाल फ़ोन पर पूछते रहना!  शादी-गमी में आते रहना, मुँह न मोड़ना! अम्मा ने मरते समय मुझसे कहा था कि धर्मदेव का हक मत मारना। सो तब से ही लोन आदि लेकर तेरे लिए पैसों का इंतज़ाम किया है मैंने। ये ले, दस लाख का चैक है। अपनी पत्नी से चोरी से दे रहा हूँ। तू भी घर पर मत बताना। ये तेरे-मेरे बीच का हिसाब-किताब रहा। ज़मीन चाहे मेरे नाम लिख या न लिख, मेरे बच्चे उस पर काश्त कर रहे है, सो तेरा हक तुझे दे रहा हूँ ताकि हम दोनों के दिलों में हमेशा प्यार बना रहे।''

मनोहर ने जबरन वह चेक मेरी क़मीज़ की ऊपरी जेब में ठूँस दिया और मेरे सिर पर हाथ फिराकर आशीर्वाद दिया।
ट्रेन धीरे-धीरे सरक रही थी।...

दूर होता जा रहा मनोहर ऐसा लग रहा था मानो बचपन के मेरे पिता हों जो मुझे शहर के कॉलेज के लिए छोड़ने साइकिल पर आया करते थे। सारी यादें ताज़ा हो उठीं। मनोहर ने कर्ज़ लेकर मुझे अपनी हैसियत से बढ़कर रुपए दिए हैं। पता नहीं, कब तक वह इस पैसे की किस्तें चुकाता रहेगा, असल की भी और सूद की भी! मैं इन रुपयों का क्या करूँगा! बैंक में रखकर ब्याज खाऊँगा, शेयर खरीदूँगा, बीवी के लिए हीरे खरीदूँगा या क्लब में ऐश करूँगा? अम्मा ने असल में ऐसा तो नहीं चाहा था। मनोहर ने अंत तक उसे सँभाला। मेरे हिस्से की देखभाल भी उसी ने की। मनोहर न होता तो अम्मा रुल जाती, वक्त से पहले खत्म हो जाती।

मैंने जेब से वह चेक निकाला और उसे फाड़कर उसकी चिंदी-चिंदी करके बाहर उड़ा दी और ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। सोचने लगा कि यह देखकर अम्मा की आत्मा को कितनी शांति मिली होगी!

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१९ जनवरी २००८

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