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अम्मा से वह मेरी अंतिम मुलाक़ात
थी। उसे अंतिम मुलाक़ात कहना सही नहीं होगा क्यों कि मेरे गाँव
पहुँचने से पहले ही अम्मा जा चुकी थी- मृत्युलोक से दूर, हर
दुख-तकलीफ़ से परे। पिछली बार जब मैं उसे मिलने आया था तो वह
बोली थी, ''बेटे, बहुत हो चुकी उम्र! पोते-पड़पोते देख लिए। अब
ईश्वर का बुलावा आ जाए तो अच्छा है! बिस्तर पर न गिरूँ मैं!
मोह-ममता नहीं छुटती, बस! तुझ में ध्यान रहता है। तेरा बड़ा
भाई मनोहर तो यहीं गाँव में ही रहता है। उसके बच्चे तो ब्याहे
गए। तेरे अभी कुँवारे हैं। उनका घर बस जाता तो सुख की साँस
लेकर मरती मैं।''
मैं
उसे समझाता, ''अम्मा, हमारी चिंता मत किया कर। हम लोग मज़े में
हैं। बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवा दी है। सब मज़े कर रहे हैं।
खाते-कमाते हैं। वहाँ के संस्कार कुछ और ही हैं, अम्मा। मनोहर
के बच्चों जैसे नहीं कि जो बापू ने बोल दिया वह पत्थर की लकीर
नई सदी के इस मोड़ पर मुझे भी यह बात सालती है, मगर क्या करूँ?
समय के साथ चलना पड़ता है। मैं अपने बच्चों का भाग्य-विधाता तो
हूँ नहीं कि जबरन उन्हें शादी के मंडप में बिठा दूँ। अम्मा! जब
उनका ब्याह होगा तो उनके साथ रहना और कठिन हो जाएगा। एक कोठी
में दो परिवार। पहले उनके लिए कोई फ्लैट का बंदोबस्त हो जाए तो
शादी के लिए उनके पीछे पडूँ।''
हैरानी के मारे अम्मा की आँखें खुली रह गईं। बोली, ''इतना
निर्मोही है तू। शादी करते ही बच्चों को अलग कर देगा!'' |