महाकाल
ने शायद चंडी को खुश करने की ठान ली थी, अस्पताल का नज़ारा ही
अलग था, पैर रखने तक की जगह नहीं थी, पूरा बरामदा, सारे
स्ट्रेचर, ज़मीन का चप्पा-चप्पा मरीज़ों से भरे कराह रहे थे।
यों लग रह था कि आज काली ने महीने भर का उपवास पूरा कर भरपेट
कलेवर करने का मन बना लिया है।
डाक्टर-नर्सें, समाज सेवक सब मुस्तैदी से सेवा में लगे थे, कोई
घाव धो कर मरहम लगा रहा था, तो कोई थर्मामीटर। डाक्टर मरीज़ को
देखते, नर्सों को दवाई लिखवाते, लेकिन उनका धैर्य, मीठी जबान,
और सांत्वना के दो शब्द बस शायद उस वक्त दुखी मरीज़ों की आँखों
के आँसू पोछने के लिए इतना मरहम काफी था।
मोहन बेचैनी से कभी इधर तो कभी
उधर घूम रहा था। विमला बेहोशी में भी कराह रही थी, बर्फ़,
बरनाल आदि जो भी मोहन जुटा पाया उससे उसने विमला को राहत
पहुँचाने की नाकाम कोशिश की, रजनी तो वैसे ही निस्तेज पड़ी थी।
घंटों बीत गए लेकिन विमला और रजनी का नंबर नहीं आया था। काफी
दौड़-धूप के बाद एक डॉ. ने विमला का चेकअप किया वह तीन महीने
के गर्भ से थी और आधी से ज़्यादा जल चुकी थी उसे फौरन अतिरिक्त
सुविधाएँ उपलब्ध कराई गईं विमला और बच्चे की जान को खतरा था।
डॉ. ने कहा, 'हम अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करेंगे आगे भगवान की
मर्ज़ी।'
नर्स ने लंबी-सी लिस्ट मोहन के हाथों मे थमा दी इन दवाइयों का
जल्दी से जल्दी इंतज़ाम कर दो ये अस्पताल में उपलब्ध नहीं हैं,
मरीज़ को इमरजेंसी में देना है।
मोहन तेज़ी से बाहर लपका,
बाहर तो पूरा शहर धू... धू कर जल रहा था, देखते ही गोली मारने
के आदेश आ चुके थे, मोहन का कलेजा मुँह को आने लगा, उसका कंठ
सूख गया, निराशा ने उसे आ घेरा, आखिरकार वह काल, जिसका वह
मज़ाक उड़ाया करता था, उसी काल ने उसके घर का रास्ता देख ही
लिया।
अब कहाँ जाऊँ, ये दवाएँ कहाँ से लाऊँ...वह मन ही मन सोचने लगा।
चेलाराम तो अपनी जय-जयकार कराता वापस लश्कर समेत ओस की बूँद सा
गायब हो चुका था, वह पर्ची हाथ में लिए सिसकने लगा।
उसकी निगाहें अस्पताल के मंदिर पर पड़ीं, वह भगवान के चरणों
में गिरकर सिसकने लगा, 'प्रभु मेरे किए की सज़ा मेरे परिवार को
मत दो, उन मासूमों का क्या कसूर' मंदिर में कृष्ण और राधा की
बहुत ही सुंदर मूर्तियाँ थीं, पास ही राम और सीता की संगमरमर
की मूर्तियाँ विराजमान थीं, एक तरफ़ श्री गुरुनानक देव जी की
तस्वीर लगी थी उनके साथ ही ईसामसीह की तस्वीर थी उन तस्वीरों
के बिल्कुल सामने की तरफ़ हरे रंग की बड़ी-सी तस्वीर लगी थी
जिस पर उर्दू में एक इबारत लिखी थी जिसका अर्थ नीचे लिखा था-
''अल्लाह-ताला ने सब इनसानों को एक ही प्रेम के धागे में
पिरोया है उसकी निगाह में सारे इंसान समान हैं, सारे धर्म,
सारे मज़हब एक ही जुबान जानते है, भाई चारा, प्रेम... बस
प्रेम।''
मोहन का सर चकराने लगा, एक ही
छत के तले सारे मज़हब खिलते हैं जैसे एक ही बगिया में गुलाब,
चमेली, चंपा आदि... माली कभी नहीं सोचता कि यह अच्छा या वह
बुरा है उसकी नज़र में तो सभी फूल, कलियाँ एक समान होते है...
वैसे ही भगवान की निगाह में सारी मानवजाति तो क्या- ये पेड़
पौधे, जीव-जंतु सभी समान है, वह मंदिर की चौखट पर सर पटक-पटक
कर माफी माँगने लगा, आज उसके गुनाहों का पिटारा एक-एक कर उसकी
आँखों के आगे पिक्चर-सा धूम रहा था, कभी दंगे कराने और बम,
गोला बारूद फिकवाने में सबसे ज़्यादा हाथ उसी का हुआ करता था,
उसका माथा लहूलुहान हो रहा था, आशा ने आकर उसे झंकझोड़ा,
''पापा, पापा क्या करते हो, उसके सिर से बहता खून देखकर वह
मोहन से लिपट कर रोने लगी, आशा को सीने से लगाकर मोहन भर्राई
आवाज़ में बोला, ''बेटा जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है,
भगवान उसे खाई में गिराता है आज मैं कितना असहाय हो गया हूँ,
तुम्हारी माँ तड़प रही है, मौत से जंग लड़ रही है, और मैं इतना
असहाय हूँ कि उसके लिए दवा का इंतज़ाम भी नहीं कर पा रहा,
तुम्हारी माँ बिना दवा के मर जाएगी।''
''नहीं पापा ऐसा मत कहो, दवाई का इंतज़ाम हो चुका है, मैं आपको
यहीं बताने आई थी।''
''शहर भर के समाज-सेवक इकट्ठा
हो कर दवाइयों और खाने का इंतज़ाम कर रहे है, घर-घर से
रोटी-सब्ज़ी और दवाएँ आ रही है। डॉ. अंसारी फ्री सेवा दे रहे
हैं, उन्होने अपने अस्पताल का पूरा स्टाफ, दवाएँ और बड़ी-बड़ी
मशीनें तक मुफ़्त उपलब्ध करवा दी हैं। रजनी को भी दाख़िल कर
लिया गया है, उसके बोलने, सुनने की क्षमता ख़त्म हो चुकी है
शायद जो उसके साथ हुआ उसका उस पर बहुत गहरा असर हुआ है।'' इतना
कहते आशा का गला भर्रा गया और वह फूट-फूट कर रोने लगी।
दो दुखियारे मन एक दूसरे को ढाढ़स बँधा रहे थे।
अस्पताल का मुर्दाघर भी पट
गया था, चारों तरफ़ हाहाकार, चीख-पुकार मची थी, हर पाँच-दस
मिनट में एक लाश मुर्दाघर की तरफ़ बढ़ रही थी, और घर वाले तथा
रिश्तेदार जिनकी आस का चिराग बुझ जाता वे छाती पीट-पीट कर
क्रंदन करने लगते, जिन औरतों के सुहाग छिन रहे थे, वे बच्चों
को सीने से चिपकाए विलाप कर रहीं थी, अब उन्हें अपना व परिवार
का भविष्य अंधकारमय नज़र आ रहा था... कई बुजुर्गों की आँखों के
सपने स्वाहा हो गए तो दुधमुँहे बच्चों से उनकी माताएँ, ये सब
देख महाकाल की नयनों से भी खून के आँसू टपकने लगे, वह भी तड़प
उठा, और एकबारगी सोचने पर मजबूर हो गया कि उसे सृष्टि रच कर,
और इंसान पैदा करके सिवा दुख के क्या मिला।
''नहीं अब और नहीं,'' मोहन की
आत्मा चीत्कार उठी, माँ सदा कहा करती थी, ''मैंने तेरा नाम
मोहन इसलिए रखा कि तू बचपन में श्याम-सी भोली सूरत वाला था और
अपनी नटखट अदाओं से सबका मन मोह लेता था, जब माँ उसे स्कूल के
लिए तैयार करती तो गीता जी के श्लोक सुनाया करती उसे कई श्लोक
कंठस्थ थे, और आज... माँ उसे क्या देखना चाहती थी और वह क्या
बन गया... उसकी आँखों के आगे माँ के कई रूप नाचने लगे...
शिष्टाचार सिखाती, पढ़ाती, मंदिर ले जाती... अचानक उसके दिल
में एक जलजला-सा उठा... नहीं-नहीं अब और नहीं... इसका अंजाम वह
जानता था जहाँ वह खड़ा है वह वन वे है पलटने का मतलब मौत...
कुछ पल तक खामोशी से वह श्याम की मूर्ति को निहारता रहा... फिर
झटके से वह खड़ा हो गया।
कुछ ही देर बाद वह समाज
सेवकों के साथ मिलकर दीन-दुखियों की सेवा में रमा था और उसकी
आँखों से 'प्रायश्चित' की गंगाधार बह रही थी!! |