मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


सच में बड़ी मेहनत का काम था मगर यही नानी का शौक था। इस घर में तीन रसोईघर थे। एक असली रसोईघर जिसमें खूब मेहनत से माँजे गए कांसे और पीतल के चमचमाते बर्तन लाइन से अलमारियों में लगे रहते थे। दूसरा रसोईघर एक बरामदे में था जहाँ रोज़ खाना पकता था और तीसरी रसोई थी खुले आँगन में जहाँ गर्मियों में शाम का खाना तंदूर में पका करता था। नानी का सजावट का भी अपना एक नज़रिया था। बर्तनों को वह अनोखे ढंग से सजाकर रखती थीं। सब भगोने एक लाइन में, कढाइयाँ उनके पीछे। एक लाइन गिलासों की और हर गिलास के ऊपर एक कटोरी उल्टी रखी हुई। नानी के घर में कोई नौकर नहीं रखा। झाडू-पोंछा, साफ़-सफ़ाई, सब खुद करना उनका शौक भी था और लगन भी।

नानी का शरीर कुछ भारी था। जब हम थोड़े बड़े हुए और नानी और ज़्यादा बूढ़ी तो मैं उन्हें देखता था एक छोटी-सी पीढ़ी पर बैठकर वह झाडू-पोंछा करती थीं और पीढ़ी को सरका-सरका कर अपना काम कर लेती थीं।

नानी का शरीर भारी होने का एक ठोस कारण था। नानी थी ठेठ पंजाबन। नानी ने पंजाबी के अलावा कोई भाषा न समझी, न बोली, सलवार-कमीज़ के अलावा कुछ पहना नहीं और देसी घी के अलावा कुछ खाया नहीं। घी-दूध से उनका अगाध प्रेम था। खाने की हर चीज़ में भरपूर देसी घी न हो तो उनका काम ही नहीं चलता था। चाय के बारे में वह मानती थीं कि चाय गरमी करती है इसलिए चाय को एक तो वो ठंडा करके पीती थीं और उनमें एक-दो चम्मच खालिस घी ज़रूर डाल लेती थीं। उनका शैंपू लस्सी थी और लस्सी से सिर की मालिश करती थीं और हम अपने बचपन में उनके शरीर से आने वाली घी की गंध से उन्हें पहचानते आ रहे थे। घर में उनके बिस्तर, कपड़ों सब जगह घी की गंध छाई रहती थी। पिछले बरस जब वो काफी बीमार होकर अस्पताल में भर्ती रहकर लौटीं तो फिर मरते दम तक करीब नीम-बेहोशी की हालत में रहीं। इस दौरान उन्होंने घी की मालिश नहीं की। हमें उनके पास से घी की वो गंध नहीं आती थी जो कि उनकी पहचान का हिस्सा बन चुकी थी।

करीब दस बरस पहले एक डॉक्टर ने उनका भारी-भरकम शरीर और बुढ़ापा देखकर निराशा में सिर हिलाया तो हम सबको बड़ी चिंता हुई। हमने डॉक्टर से पूछा कि आप कहें तो इनका घी-दूध बंद कर दें जिससे उनका मोटापा कुछ कम हो जाए। डॉक्टर ने कहा, ''नहीं! इन्हें शौक से खाने दीजिए- चार-छह महीने की तो बात है।'' हम सब थोड़ा घबराए। लेकिन नानी की समझ में डॉक्टर को घी के फ़ायदे पता ही नहीं थे। बहरहाल, नानी अगले दस साल तक अंतिम साँस तक घी-दूध का भरपूर सेवन करती रहीं।

हमारा मंझला भाई शुरू से नानी के पास ही रहा। दूध की जादुई ताक़त में नानी का इतना यकीन था कि हर दिन घर से वह एक 'कड़ेवाला' गिलास भर कर दूध स्कूल में ले जाकर उसे पिलाती थीं।

एक बार तो नानी ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे में घर खोया, दूसरी बार उन्होंने अपना घर खोया एक किरायेदार की वजह से। पानीपत के उस मकान का एक हिस्सा कॉलेज के एक संगीत प्रोफ़ेसर ने किराये पर लिया। प्रोफ़ेसर जन्मांध था और खूबसूरत बीवी का पति। उन्होंने पहले तो किराया देना बंद किया और फिर धीरे-धीरे पूरे मकान पर कब्जा जमाने लगे। प्रोफ़ेसर होने के बावजूद उनके संबंध असामाजिक तत्त्वों से भी थे। ऐसे लोग घर में आकर बूढ़े नाना-नानी को तरह-तरह से डराते-धमकाते। दोनों बूढ़ों की जान सांसत में थी। पुलिस में रिपोर्ट-रिपाटी भी की, लेकिन सबकी सहानुभूति अंधे प्रोफ़ेसर और उससे ज़्यादा उसकी खूबसूरत बीवी के साथ थी, कोई कार्रवाई नहीं हुई। नानी हिम्मतवाली ज़रूर थीं लेकिन उसमें आज के ज़माने वाला काइंयापन नहीं था। थक हार कर नानी ने अपनी कोठी औने-पौने दामों पर बेच दी और भोपाल का रुख किया। भोपाल में उन्होंने एक फ्लैट ख़रीद लिया और बाकी पैसे फिक्स्ड डिपाज़िट कराकर ब्याज से अपना गुज़ारा चलाने लगे। महल जैसे सात कमरों के मकान के बाद यह फ्लैट नानी के लिए चूहेदानी जैसा था। अपना मकान छोड़ने का दुख तो था ही और फिर बुढ़ापे की मार। नानी लगातार बीमार रहने लगीं। पिछले दो तीन बरसों से तो उनका चलना-फिरना भी बंद-सा ही था। लेकिन मकान को लेकर नानी के शौक कम नहीं हुए। बिस्तर पर पड़े-पड़े उन्होंने नाना को हुक्म लगाया कि पूरे होते रहे। उनसे बहस करने की किसी की हिम्मत नहीं थी। पूरा घर उनका रौब खाता था और उनकी बुलंद आवाज़ से डरता था। आवाज़ की ये बुलंदगी लगभग आखिर तक कायम रही। उन्हें यह पसंद नहीं था कि उनका कहना पूरा न हो।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।