नानी ने भरपूर ज़िंदगी पाई।
नब्बे बरस की उम्र कोई कम तो नहीं होती और एक लंबी ज़िंदगी में
जो कुछ अच्छा-बुरा कोई देख सकता है वो नानी ने भी देखा।
नानी पैदा हुई थी लाहौर के
नज़दीक एक गाँव में, खानदानी पटवारियों के परिवार में। परिवार
पटवारियों का था इसलिए घर में पैसा भी था, ज़मीन भी थी और
घोड़े भी थे। नानी को घोड़े की सवारी बखूबी आती थी।
जब नानी की शादी हुई तब नाना
खूबसूरत जवान थे। सवा छह फुट से ऊपर निकलता कद। गोरा रंग और
ग्रीक देवताओं जैसे नाक-नक्श। उस ज़माने के ग्रेजुएट थे नाना।
अरबी, उर्दू, अंग्रेज़ी और गणित के मास्टर। गृहस्थी जमती चली
गई। शुरू में लड़कियाँ होती रहीं तो मान-मनौतियों का सिलसिला
शुरू हुआ फिर एक बेटा हुआ। डिप्थीरिया से चल बसा। उस ज़माने
में कोई टीकाकरण तो होता नहीं था- होता तो नानी ज़रूर अपने सब
बच्चों को पूरे टीके लगवातीं क्यों कि अनपढ़ होने के बावजूद
एलोपैथिक इलाज में उनकी बड़ी श्रद्धा थी। नानी को डॉक्टरों से
मिलने का और नई से नई दवाएँ लिखवाने का भी बड़ा शौक था।
मेरी आँखों में बचपन की एक
तस्वीर कौंधती है जिसमें इस घर के लंबे-चौड़े बरामदों में,
कमरों में नानी झाड़ू-पोंछा करती दिखाई देती हैं। |