फिर एक दिन हमारे स्कूल में आधी
छु़ट्टी हो जाती है...
स्कूल के घड़ियाल के हथौड़िए की आकस्मिक मृत्यु के कारण। जिस
ऊँचे बुर्ज़ पर लटक रहे घंटे पर वह सालों-साल हथौड़ा ठोंकता
रहा है, वहाँ से उस दिन रिसेस की समाप्ति की घोषणा करते समय वह
नीचे गिर पड़ा है। उसकी मृत्यु के विवरण देते समय हमारे क्लास
टीचर ने अपना खेद भी प्रकट किया है और अपना रोष भी, ''पिछले दो
साल से बीमार चल रहे उस हथौड़िए को हम लोग बहुत बार रिटायरमेंट
लेने की सलाह देते रहे लेकिन फिर भी वह रोज़ ही स्कूल चला आता
रहा, घंटा बजाने में हमें कोई परेशानी नहीं होती...''
स्कूल से मैं घर नहीं जाता,
माँ के कारखाने का रुख करता हूँ। माँ ने भी तो कह रखा है, उधर
कारखाने में काम करने में मुझे कोई परेशानी नहीं होती...
माँ के कारखाने में काम चालू है। गेट पर माँ का पता पूछने पर
मुझे बताया जाता है वे दूसरे हॉल में मिलेंगी जहाँ केवल
स्त्रियाँ काम करती हैं। जिज्ञासावश मैं पहले हॉल में जा टपकता
हूँ। यह दो भागों में बँटा है। एक भाग में गट्ठों में कस कर
लिपटाई गई ओटी हुई कपास मशीनों पर चढ़ कर तेज़ी से सूत में बदल
रही हैं तो दूसरे भाग में बँधे सूत के गट्ठर करघों पर सवार
होकर सूती कपड़े का रूख धारण कर रहे हैं। यहाँ सभी कारीगर
पुरुष हैं।
दूसरे हॉल का दरवाज़ा पार करते ही क्लोरीन की तीखी बू मुझसे आन
टकराती है। भाप की कई, कई ताप तरंगों के संग मेरी नाक और आँखें
बहने लगती हैं। थोड़ा प्रकृतिस्थ होने पर देखता हूँ भाप एक
चौकोर हौज़ से मेरी ओर लपक रही है। हौज़ में बल्लों के सहारे
सूती कपड़े की अट्टियाँ नीचे भेजी जा रही हैं।
हॉल में स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ हैं। उन्हीं में से कुछ ने
अपने चेहरों पर मास्क पहन रखे हैं। ऑपरेशन करते समय डॉक्टरों
और नर्सों जैसे।
मैं उन्हें नज़र में उतारता हूँ।
मैं एक कोने में जा खड़ा होता हूँ।
हॉल के दूसरे छोर पर भी स्त्रियाँ जमा हैं- कपड़े की गठरियाँ
खोलती हुई, थान समेटती हुईं... माँ वहीं हैं।
उन्हें मैंने उनकी धोती से पहचाना है, उनके चेहरे से नहीं।
उनका यह चेहरा मेरे लिए नितांत अजनबी है- निरंकुश और दबंग।
उनके चेहरे की सारी की सारी मांसपेशियाँ ऊँची तान में हैं...
ठुड्डी जबड़ों पर उछल रही है...
नाक और होंठ गालों पर...
और आँखों में तो ऐसी चमक नाच रही है मानो उनमें बिजलियाँ दौड़
रही हों...
मैं माँ की दिशा में चल पड़ता हूँ...
''तुम बहुत हँसती हो, कार्तिकी।'' रौबदार एक महिला आवाज़ माँ
को टोकती है...
माँ हँसती हैं? बहुत हँसती हैं? उनके पास इतनी हँसी कहाँ से
आई? या उन्हीं के अंदर रही यह हँसी? जिसे उधर घर में दबाए रखने
की मजबूरी ही हाँफ का रूप ग्रहण कर लेती है?
''चलो,'' रौबदार आवाज़ माँ को आदेश दे रही है, ''अपने हाथ
जल्दी-जल्दी चलाओ। ध्यान से। कायदे से। कपड़े में तनिक भी सूफ
नहीं रहना चाहिए। ब्लीचिंग के लिए आज यह सारा माल उधर जाना
है...''
''भगवान भला करे,'' एक उन्मत्त वाक्यांश मुझ तक चला आता है।
यह शब्द चयन माँ का है। यह
वाक्य रचना माँ दिन में कई बार दोहराती हैं- पापा की हर लानत
पर, बुआ की हर शिकायत पर, ताई की हर हिदायत पर...
''किसका भला करे?'' माँ की एक साथिन माँ से पूछती हैं, ''इस
तानाशाह का?''
''सबका भला करे।'' माँ की दूसरी साथिन कहती हैं, ''लेकिन इस
कार्तिकी की जेठानी का भला न करें, जिसने देवर के पीछे पति को
स्वर्ग भेज कर इसके लिए नरक खड़ा कर दिया...''
''लेकिन अब वह नरक मैंने औंधा दिया है,'' माँ कहती है, ''वह
नरक अब मेरा नहीं है। उसका है। मेरा यह कारखाना है, मेरा
स्वर्ग...''
विचित्र एक असमंजस मुझसे आन
उलझा है, अनजानी एक हिचकिचाहट मुझ पर घेरा डाल रही है...
माँ से मैं केवल दो कदम की दूरी पर हूँ...
लेकिन मेरे कदम माँ की ओर बढ़ने के बजाए विपरीत दिशा में उठ
लिए हैं... |