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साथ ही घर की रसोई का ठंडा चूल्हा। हालाँकि ताई के हाथ का खाना मेरे दादा कुल जमा डेढ़ वर्ष ही खाए रहे और मेरे ताऊ केवल चार वर्ष।
''कारखाने में करना क्या होगा?'' पापा पूछते हैं।
''ब्लीचिंग...''
''फिर तो माँ को वहाँ हरगिज़ नहीं भेजना चाहिए,'' मैं उन दोनों के पास जा पहुँचता हूँ, ''कपड़े की ब्लीचिंग में तरल क्लोरीन का प्रयोग होता है, जो दमे के मरीज़ के लिए घातक सिद्ध हो सकता है...''

आठवीं जमात की मेरी रसायन-शास्त्र की पुस्तक ऐसा ही कहती है।
''तू चुप कर,'' पापा मुझे डपटते हैं, ''तू क्या हम सबसे ज़्यादा जानता, समझता है? मालूम भी है घर में रुपए की कितनी तंगी है? खाने वाले पाँच मुँह और कमाने वाला अकेला मैं, अकेले हाथ...''

डर कर मैं चुप हो लेता हूँ।
पापा गुस्से में हैं, वर्ना मैं कह देता, आपकी अध्यापिकी के साथ-साथ माँ की सिलाई भी तो घर में रुपया लाती है...
परिवार में अकेला मैं ही माँ की पैरवी करता हूँ। पापा और बुआ दोनों ही, माँ से बहुत चिढ़ते हैं। ताई की तुलना में माँ उनके संग व्यवहार है भी बहुत रुखा, बहुत कठोर। जबकि ताई उन पर अपना लाड़ उँडेलने को हरदम तत्पर रहा करती हैं। माँ कहती हैं, ताई की इस तत्परता के पीछे उनका स्वार्थ है। पापा की आश्रिता बनी रहने का स्वार्थ।
''मैं वहाँ नौकरी कर लूँगी, दीदी,'' घर के अगले कमरे में अपनी सिलाई मशीन से माँ कहती हैं, ''मुझे कोई परेशानी नहीं होने वाली...''

रिश्ते में माँ, ताई की चचेरी बहन हैं। पापा के संग उनके विवाह की करणकारक भी ताई ही रहीं। तेरह वर्ष पूर्व। ताऊ की मृत्यु के एकदम बाद।
''वहाँ जाकर मैं अभी पता करता हूँ,'' पापा कहते हैं, ''नौकरी कब शुरू का जा सकती है?''
अगले ही दिन से माँ कारखाने में काम शुरू कर देती हैं।
मेरी सुबहें अब खामोश हो गई हैं।
माँ की सिलाई मशीन की तरह। और शाम तीन बजे के बाद, जब हमारा सन्नाटा टूटता भी है, तो भी हम पर अपनी पकड़ बनाए रखता है। थकान से निढाल माँ न तो अपनी सिलाई मशीन ही को गति दे पाती हैं और न ही मेरे संग अपनी बातचीत को। उनकी हाँफ भी शिथिल पड़ रही है। उनकी साँस अब न ही पहले जैसी फूलती है और न ही चढ़ती है।
माँ की मृत्यु का अंदेशा मेरे अंदर जड़ जमा रहा है, मेरे संत्रास में, मेरी नींद में, मेरे दुःस्वप्न में...

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