तभी अचानक
डी.सी. की प्रथम पंक्ति में बैठे एक युवा जौड़े के साथ
नन्हे-से सुन्दर बच्चे पर मेरी नज़रें अटक जाती हैं, और मुझे
अपने बच्चे की याद आ जाती है। मैं भावना के सागर में गोते खाने
लगता हूँ। क्योंकि मैं भी एक मनुष्य हूँ। मेरे भी कुछ अरमान
हैं। अत: कभी-कभी घर की याद आ जाना भी स्वाभाविक है। लेकिन
मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी यही है कि मैं खेल दिखाते समय भी अपने
आप को रोक नहीं पाता।
तभी खेल
दिखाते-दिखाते मेरा पाँव फिसल जाता है। मैं सम्हल न पाने के
कारण सायकल समेत गिर पड़ता हूँ। तभी दर्शकों की हूटिंग मेरी
तंद्रा तोड़ती है, मैं सम्हलता हूँ और भावना के सागर से निकल
यथार्थ के धरातल यानि कि सर्कस की ज़मीन पर लौट आता हूँ। मुझे
ऐसा लगता है जैसे मेरा पाँव मोच गया है। लेकिन उससे क्या अंतर
पड़ने वाला था, मुझे तो अपना आइटम पूरे समय तक प्रस्तुत करना
ही था। जब तक कि संगीत बदल नहीं जाता।
मुझे अच्छी
तरह याद है, एक बार लेटकर पाँव पर काठ के गोलों का बेलेंस
दिखाने वाली लड़की के सिर पर एक गोला गिर पड़ा था, लेकिन वह
लगातार अपना खेल दिखाती रही थी। बाद में पता चला कि उसके सिर
में अंदरूनी चोट आई थी और एक माह बाद ही वह चल बसी। ऐसे जाने
कितने हादसों से इस ज़िन्दगी में हमें गुज़रना पड़ता है। मेरे
पाँव में तो मामूली मोच ही आई थी।
तभी मेरी
नज़र एक तरफ़ खड़े मैनेजर पर पड़ती है। वह मुझे खा जाने वाली
नज़रों से घूरता नज़र आता है। मैं अपना खेल फिर दिखाने लगता
हूँ। लेकिन अपने होठों पर सदाबहार मुस्कुराहट लाना नहीं भूलता।
मेरे मस्तिष्क में एक बार फिर मैनेजर की वे ही पुरानी
घिसी-पिटी झिड़कियाँ गूँजने लगती हैं ''विजयन, हम तुमको कई बार
कहा, तुम शो टाईम में सही रहा करो, नहीं तो कोई और सर्कस
ढूँढो। तुमको क्या हो जाता है। तुम दस मिनिट भी अपने पर
कन्ट्रोल नहीं रख सकता। यह मेरी अंतिम चेतावनी है।'' ऐसी अंतिम
चेतावनियाँ मैं कई बार सुन चुका था। ऐसी चेतावनियों से मेरे
ऊपर अब कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हाँ पहली-पहली बार ज़रूर पड़ा
था। लेकिन अब नहीं पड़ता।
तभी संगीत
बदलता है और मैं वापस लौट पड़ता हूँ, अंदर की तरफ़। लेकिन
जाते-जाते अपना हाथ हिलाना नहीं भूलता दर्शकों की तरफ़। मुझे
अहसास होता है कि मैनेजर वहीं पर खड़ा है, जहाँ मैं सायकल रखता
हूँ। उसकी वही पुरानी गीदड़ भभकियाँ फिर शुरू हो जाती हैं।
जिन्हें सुनने का मैं अभ्यस्त हो चुका हूँ।
मैं चुपचाप
सुनता रहता हूँ और वह बिल्ली की तरह गुर्राता हुआ चला जाता है।
मुझे पता है उसका यह गुस्सा क्षणिक होता है। वह रोष में ये सब
कह जाता है। न वो मुझे निकाल सकता है और न ही मैं ये सर्कस
छोड़ सकता हूँ, क्योंकि मुझे पता है कि मेरा यह आइटम बिलकुल
नया है। यदि उसने मुझे निकाल दिया तो सर्कस का एक आइटम कम हो
जाएगा। और मैं भी ये सर्कस नहीं छोड़ सकता क्योंकि जितना पैसा
और सुविधाएँ मुझे यहाँ मिलती हैं किसी दूसरे सर्कस में नहीं
मिल सकतीं।
मुझे पाँव
में दर्द महसूस होने लगता है। मैं लँगड़ाता हुआ धीरे-धीरे अपने
टेंट में पहुँचता हूँ और कपड़े खोल कर लुंगी बाँध लेता हूँ।
फिर धीरे-धीरे चलकर बाहर रखे स्टूल पर बैठकर दादा को आवाज़
लगाता हूँ, जो कि इन मामलों का जानकार है। दादा मेरे पास आता
है। मैं उसे पाँव दिखाता हूँ। वह पाँव देख वापस चला जाता है।
फिर हाथ में तेल की प्याली ले वापस लौटता है और मेरे पाँव की
मालिश करने बैठ जाता है। मैं खामोशी के साथ मालिश कराता रहता
हूँ।
तभी मेरी
आँखें सामने के पिंजरे में बंद जंगल के राजा कहलाने वाले शेर
पर जम जाती हैं। उसको उदास देख मैं भी उदास हो जाता है। सोचता
हूँ मुझमें और इसमें क्या अंतर है। दोनों ही करतब दिखलाते हैं।
लेकिन हाँ इतना अंतर अवश्य है कि वह पिंजड़े में कैद रहता है
और मैं खुले वातावरण में घूम-फिर सकता हूँ। मेरा भरा-पूरा
परिवार है, उसका नहीं।
परिवार...हाँ
परिवार। मेरा भरा-पूरा परिवार है। बाप था, मर गया। वह भी सर्कस
में ही काम करता था। शरीर पर पहने कपड़ों में पैट्रोल छिड़क आग
लगाकर पचास फीट की ऊँचाई से पानी में कूदने वाला खेल दिखाता
था। एक दिन एक्सीडेंट का शिकार हो गया। ऊपर से कूदते समय
बेलेंस गड़बड़ा जाने के कारण ज़मीन पर गिरते ही बिखर गया और
अपने साथ एक आइटम का अंत भी कर गया। ये खेल उसने किसी को भी
नहीं सिखाया था। आज उसी की वजह से मैं सर्कस में हूँ। |