|  
                    उसके बाद वे इलियास से मुखातिब 
                    हुयी थीं, ''इलियास बेटे, हमेशा पीर साहब का सिजरा पढ़ना और 
                    वक्त पर नमाज अदा करना। अल्लाह तुम्हारा निगेहबां रहेगा।''लखनऊ स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर एक पर लखनऊ मेल लगी हुयी थी। 
                    चारों ओर भीड़ ही भीड़ थी। लगता था जैसे पूरे शहर के लोग वहाँ 
                    जमा हो गये हैं। भीड़ को चीरते हुए वे लोग ट्रेन की ओर बढ़े। 
                    एस-९ की २७ और २८ नम्बर सीटें उनका इंतजार कर रही थीं।
 अपने आस-पास के लोगों को 
                    देखकर इलियास हैरान रह गया। वहाँ पर पचासों लड़के उसी की तरह 
                    गुलाब का हार पहने हुए इधर-उधर खड़े थे। तो क्या ये सभी 
                    लोग....?तभी कोई आवाज उसके कानों से टकराई, ''ये इतने सारे लोग हार पहन 
                    कर कहाँ जा रहे हैं?''
 पड़ोस में कोई आदमी अपने साथी से पूछ रहा था। उसके साथी ने 
                    हंसकर जवाब दिया, ''हलाल करने से पहले बकरे को फूल-माला पहनाना 
                    सुन्नत का काम है।''
 इलियास के मुँह का स्वाद खराब 
                    हो गया। ख्यालों की गलियों से निकलकर वह यथार्थ की जमीन पर आ 
                    गिरा। तो क्या वह सचमुच हलाल होने वाला बकरा है? उसने लॉकअप 
                    में चारों ओर नजर दौड़ाई, फिर अपने आप से पूछा। आखिर क्या कुसूर 
                    है उसका और इन तमाम लोगों का? यही न कि ये अपने-अपने परिवार का 
                    पेट पालने के लिए यहाँ चार पैसे कमाने आए थे? आखिर इन लोगों ने 
                    पुलिस वालों का क्या बिगाड़ा है, जो ये यहाँ पर चोर-उचक्कों की 
                    तरह पकड़ कर बंद कर दिये गये हैं? क्या मेहनत करके खाना जुर्म 
                    है? क्या अपने परिवार का पेट पालना गुनाह है? क्या बेहद कम 
                    तनख्वाह में लोगों का काम करना अपराध है? हाँ, शायद ये सब जुर्म है। 
                    उसका सबसे बड़ा गुनाह है गरीब के घर में पैदा होना। गरीब हमेशा 
                    पिसता है, गरीब हमेशा कुचला जाता है, गरीब हमेशा सताया जाता 
                    है। और उसके साथ सब कुछ इसलिए ऐसा होता है, क्योंकि वह चुपचाप 
                    यह सब झेल लेता है। इसीलिए, शायद इसीलिए वह हलाल हो रहा है।
                    शोर सुनकर इलियास चौंका। उसने देखा पास के एक लॉकअप में किसी 
                    कैदी पर पुलिस वाले लात-घूँसे बरसा रहे हैं। कैदी के मुँह और 
                    नाक से खून बह रहा था और वह बुरी तरह से चिल्ला रहा था। इलियास 
                    ने उसे गौर से देखा। उस आदमी ने पठानी सूट पहन रखा था।
 ''जरूर यह पाकिस्तानी होगा और 
                    इसने चोरी वगैरह की होगी।'' इलियास बड़बड़ाया, ''इन कमबख्तों ने 
                    तो पूरी मुसलमान कौम को बदनाम कर रखा है। उल्टे-सीधे कामों के 
                    अलावा इन्हें कुछ आता ही नहीं।''कुछ ही देर में कैदी बेहोश हो गया। एक सिपाही ने जोर से उसके 
                    पेट में एक लात मारी और उसे घसीटते हुए एक ओर लेकर चला गया।
 
 यह सब देखकर इलियास काँप उठा। बनीमान इसी कंपकंपी के लिए पूरे 
                    सउदी अरब में जानी जाती है। बनीमान की गिनती बड़ी जेलों में 
                    होती है और आमतौर पर वहाँ खुंख्वार किस्म के मुजरिमों को ही 
                    रखा जाता है। दरअसल बनीमान एक खौफ का नाम है, एक ऐसा खौफ, 
                    जिसकी छाया वहाँ के हर उमरा वाले की दुआओं में कभी न कभी देखने 
                    को मिल जाती है।
 
 अब से ठीक एक महीने पहले सउदी सरकार ने गैर कानूनी रूप से रह 
                    रहे लोगों की धरपकड़ के लिए एक खुसुसी प्रोजेक्ट शुरू किया था। 
                    अपने इस मकसद को कामयाब बनाने के लिए उसने न सिर्फ कारखानों पर 
                    छापे मारे, बल्कि यह हुक्म भी लागू किया था कि जिस किसी के घर 
                    से गैरकानूनी मजदूर पकड़े जाएँगे, उनपर जुर्माना लगाया जाएगा। 
                    जुर्माने से बचने के लिए मकानमालिक खुद ही मजदूरों के इकामे 
                    देखने लगे। ऐसे में गैरकानूनी मजदूरों के पास दो ही रास्ते 
                    बचे। पहला खुद जाकर टिकट खरीदें और अपने मुल्क की राह पकडें। 
                    दूसरा रास्ता था खुद को पुलिस के हाथों पकडवा देना। दूसरा 
                    रास्ता उन लोगों को ज्यादा मुफ़ीद लगा। टिकट के पैसे बचाने और 
                    बनीमान से बचने के लिए लोगों ने जद्दा शहर की ही एक छोटी जेल 
                    अशर्फिया को चुना और खुद को गिरफ्तार करवाने के लिए वहाँ पर 
                    पहुँचने लगे।
 पुलिस वाले यह देखकर बहुत खुश 
                    हुए। उन्होंने लोगों को पकड़-पकड़ कर जेल में बंद करना शुरू कर 
                    दिया। गिरफ्तारियों की संख्या सौ, दो सौ को पार करती हुई 
                    हजारों में जा पहुँची। दो ही दिन में जेलें ठसाठस भर गयीं। 
                    पुलिस वाले हैरान। अब क्या करें? थक हार कर उन लोगों ने 
                    गिरफतारियाँ रोक दीं। लेकिन लोग थे कि अशर्फिया पहुँचते ही जा 
                    रहे थे। धीरे-धीरे यह आलम हो गया कि जेल के सामने रोड पर एक-एक 
                    किमी. इधर-उधर तक हजारों आदमी जमा हो गये। 
 जो मजदूर अपनी किस्मत को दाँव पर लगाकर रोजी-रोटी की तलाश में 
                    सऊदी अरब आए थे, वे खुले आकाश में अपनी गिरफ्तारी का इंतजार कर 
                    रहे थे। ऊपर दहकता सूरज था और नीचे सुलगती हुयी जमीन। और उसमें 
                    भी होड़ कि मेरा नम्बर पहले आ जाए? कई बार इसी बात को लेकर 
                    मजदूरों में झगड़ा हो गया। गाली-गलौज से होती हुयी बात 
                    मार-पिटाई तक जा पहुँची। हालात जब बेकाबू होने लगे, तो 
                    बीच-बचाव के लिए पुलिस को आगे आना पड़ा।
 वीजा वाले मजदूरों के लिए यह 
                    आमदनी का एक खूबसूरत मौका था। उन्होंने रोजाना की जरूरत के 
                    सामान खरीदे और जेल के पास जाकर बेचने लगे। देखते ही देखते जेल 
                    के सामने खाने-पीने से लेकर छाते और कपड़े तक की दुकानें लग 
                    गयीं। सभी मजदूरों ने ऐसे ही किसी हालात के लिए अपने पास कुछ न 
                    कुछ पैसे बचा रखे थे। उन्हीं पैसों से वे दुकानदारों से सामान 
                    लेकर खाते पीते, छाता लगाकर धूप से बचते, अपनी दुआओं में ऊपर 
                    वाले से जल्दी गिरफ्तारी की इल्तजा करते और रात होने पर सड़क के 
                    किनारे चादर ओढ़कर सो जाते। 
 उस दौरान पूरे एक महीने तक इलियास भी इसी भीड़ का एक हिस्सा बना 
                    रहा। उसका सारा दिन रोने और दुआओं में बीतता। धीरे-धीरे उसकी 
                    सारी जमा पूँजी खत्म हो गयी। एक दिन उसने किसी तरह अपने 
                    साथियों से पैसे माँग कर काम चलाया। लेकिन वहाँ पर तो सभी उसी 
                    के जैसे थे। किसी के पास कारून का खजाना तो था नहीं। थक-हार कर 
                    वे लोग इस नतीजे पर पहुँचे कि पुलिस वाले अब हमें गिरफ्तार 
                    करने से रहे। यहाँ पर पड़े रहने से अब कोई फायदा नही। लिहाजा 
                    धीरे-धीरे करके लोग वहाँ से खिसकने लगे। इलियास के सामने भी और 
                    कोई रास्ता नहीं था। थक-हार कर वह भी वापस अपने मोअल्लिम यानी 
                    कारखाने के मालिक के पास लौट गया।
 
 आने वाला कल अपने साथ क्या-क्या लेकर आने वाला है, यह किसी को 
                    नहीं मालूम। इलियास को भी यह बात कहाँ मालूम थी। और अगर मालूम 
                    होती, तो शायद वह अशर्फिया में जाकर अपना एक महीना बरबाद नहीं 
                    करता। जिस बनीमान जेल से बचने के लिए उसने अपना पूरा एक महीना 
                    होम कर दिया था, वही बनीमान अब उसकी हकीकत थी। और कौन जाने उसे 
                    कब तक इस हकीकत से जूझना था।
 
 वक्त का पहिया अपनी रफ्तार से घूम रहा था। सारी घड़ियाँ अपनी लय 
                    में चल रही थी। सारा संसार अपने आप में मगन था। लेकिन इलियास 
                    का वक्त जैसे अपनी जगह पर ठहर गया था। कब सूरज निकलता और कब 
                    डूबता, इसका उसे पता ही न चलता। उसके पास बस दो ही काम थे, 
                    नमाज पढ़ना और दुआ माँगना। अक्सर दुआ माँगते-माँगते उसके गाल 
                    आसुओं से तर हो जाते, गला भर आता और ठीक से खाना न खाने के 
                    कारण पैदा हुयी कमजोरी से चक्कर आ जाता। लेकिन इसके बावजूद 
                    उसकी दुआओं का असर न दिखता। पता नहीं माँगने वाले के ही जज्बे 
                    में कोई कमी रह गयी थी या फिर देना वाला कुछ और ही चाह रहा था?
 
 पच्चीसवें दिन इलियास के मामू उससे मिलने आए। इलियास की हालत 
                    देखकर वे एकदम सन्न रह गये। सींखचों के अंन्दर हाथ डालकर 
                    उन्होंने इलियास को अपनी बाहों में भींचने की कोशिश की। काफ़ी 
                    देर के बाद वे अपने आप को सहज कर पाए, ''कल जब मैंने तुम्हारे 
                    कारखाने में फोन किया, तो पता चला। ......बड़ी मुश्किल से यहाँ 
                    का पता ........''
 
 इसके आगे उनका गला रूंध गया। मामू को देखकर इलियास अपने आपको 
                    रोक न सका। कई दिनों से उसके भीतर जमा हुआ गुबार आसुँओं के रूप 
                    में बह चला।
 
 ''चलो समय हो गया।'' सिपाही ने मामू का हाथ पकड़ कर अलग किया।
 जल्दी में उन्होंने जेब से एक लिफाफा निकाल कर इलियास की ओर 
                    बढ़ाया, ''तुम्हारा खत है, कल ही आया था। .......मैं जेलर से 
                    तुम्हारे बारे में बात करता हूँ।''
 
 कहते हुए वे बाहर निकल गये। बेबस निगाहों से इलियास मामू को 
                    जाते हुए देखता रहा। मामू के नजरों से ओझल होते ही उसने लिफाफा 
                    फाड़ा और खत को निकाल कर पढ़ने लगा। उसकी आँखों से आँसू झरने 
                    लगे। जैसे-जैसे खत आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे उसके आसुँओं की 
                    रफ्तार भी बढ़ती गयी।
 
 इलियास ने खत को एक बार पढ़ा, दो बार पढ़ा, .....पूरे सात बार 
                    पढ़ा। उसका मन विचलित हो उठा। उसने सोचा काश वह उड़कर अपनी अम्मी 
                    के पास पहुँच जाए और उनकी गोद में सिर छिपाकर खूब जोर-जोर से 
                    रोए। अभी वह यह सोच ही रहा था कि अस्र की अजान उसके कानों में 
                    पड़ी। अजान सुन कर उसका ढाढ़स बँधा। उसने खत को जेब में रखा और 
                    नल के पास जाकर वजू करने लगा। वजू करते समय भी उसके दिमाग में 
                    खत की बातें गूँजती रहीं। वजू करके उसने रूमाल से अपना 
                    हाथ-मुँह पोंछा और टोपी लगाकर नमाज पढ़ने की नियत करने लगा।
 
 एक तरफ इलियास नमाज की नियत कर रहा था, दूसरी तरफ उसका मन तमाम 
                    दुश्चिंताओं में फँसा हुआ था। कब हमें इस जेल से मुक्ति 
                    मिलेगी? कब हम अपने घर पहुँचेंगे? घर का खर्च कैसे चलेगा? 
                    अम्मी को जब यह सब पता चलेगा, तो उनके दिल पर क्या बीतेगी? 
                    खेतों को गिरवी रख कर जो पैसा जुटाया गया था, उसे कैसे वापस 
                    किया जाएगा?
 
 तभी एक पुलिस वाले ने बैरक में आकर आवाज दी। आज शाम की फ्लाइट 
                    से जाने के लिए जिन लोगों चुना गया था, वह उनके नाम लेकर बुला 
                    रहा था। नियत बाँधने के लिए इलियास के हाथ कान की तरफ उठ ही 
                    रहे थे कि उसके कान में आवाज पड़ी, ''मोहम्मद इलियास 
                    सिद्दीकी!''
 
 आगे की बात इलियास ने सुनी ही नहीं। सदियों से पिंजरे में कैद 
                    पंछी को उसकी आजादी का फरमान मिल गया था। उसे लगा उसकी अम्मी 
                    सामने खड़ी हैं और वे अपने दोनों हाथ फैलाकर उसे अपने पास बुला 
                    रही हैं। उसके पैरों में पंख लग गये। न तो उसे नमाज का ध्यान 
                    रहा और न ही उससे होने वाले बेअदबी का। एक झटके में उसने अपनी 
                    गर्दन गेट की ओर घुमायी और फिर पूरी ताकत के साथ उस ओर दौड़ 
                    पड़ा।
 |