|  हिन्दुस्तान 
                    सहित तमाम देषों के लाखों गरीब मुस्लिम मजदूर गैर कानूनी रूप 
                    से सऊदी अरब में रहते हैं। मजहबी रस्म 'उमरा' के बहाने ये लोग 
                    टिकट का जुगाड़ करके वहाँ पहुँचते हैं और फिर अपने जान-पहचान 
                    वालों की मदद से खुद को १६ घन्टे काम करने वाली मशीन के रूप 
                    में तब्दील कर लेते हैं। इनका सिर्फ एक ही मकसद होता है दिन 
                    रात कोल्हू के बैल की तरह जुट कर काम करना, जिससे कम से कम 
                    वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जा सके। आमतौर पर ऐसे 
                    लोग दिन-रात एक कर के छ: महीने में अपने कर्ज को अदा कर लेते 
                    हैं। उसके बाद ऊपरवाले की मेहरबानी से वहाँ जितने दिन रूकने का 
                    मौका मिल जाता है, मुनाफा उतना ही मोटा होता जाता है। 
                    जो लोग बाकायदा कानूनी वीजा लेकर 
                    सऊदी अरब जाते हैं, उन्हें वीजा जारी करने वाली कम्पनी की तरफ 
                    से एक लाइसेंस मिलता है, जो 'इकामा' के नाम से जाना जाता है। 
                    वहाँ पर रह रहे सभी प्रवासियों के लिए इकामा को २४ घंटे अपने 
                    पास रखना जरूरी होता है। क्यों कि गैर कानूनी रूप से रह रहे 
                    नागरिकों की तलाश में घूमती पुलिस पता नहीं किस गली, किस मोड़ 
                    पर पूछ बैठे- इकामा फ़ी? यानी इकामा है? या फिर हात इकामा? 
                    यानी कि इकामा दिखाओ। जिन लोगों के पास इकामा होता 
                    ही नहीं, वे लोग पासपोर्ट को हमेशा अपने पास रखते हैं। 
                    पासपोर्ट पास होने से पकड़े जाने पर उस आदमी की शिनाख्त में कोई 
                    परेशानी नहीं होती। ऐसे लोगों को कुछ दिन जेल में रखा जाता है। 
                    उसके बाद सऊदी अरब के धनाढ़यों द्वारा निकाले गये ज़कात के पैसों 
                    से टिकट दिलाकर उन्हें वापस उनके देश रवाना कर दिया जाता है। 'अल हजरत' कारखाने में उस समय 
                    एक बाहरी व्यक्ति भी मौजूद था। उसका नाम था हफ़ीज। हफ़ीज वहाँ 
                    पर अपने दोस्त से मिलने के लिए आया हुआ था। खुश्किमती से उसके 
                    पास इकामा था। जब काफ़ी देर हो गयी और कोई भी आदमी गेट खोलने 
                    के लिए राजी नहीं हुआ, तो हफ़ीज ने हिम्मत जुटाई, ''मेरी समझ 
                    से गेट को खोल देने में ही सभी लोगों की भलाई है।''कुछ देर रूक कर उसने सभी लोगों के चेहरों पर आ रहे भावों को 
                    पढ़ा और फिर बात आगे बढ़ाई, ''अगर वे लोग गेट तोड़ कर अन्दर आए, 
                    तो फिर उनके कहर से बचना बहुत मुश्किल होगा।''
 हफ़ीज की बात सुनकर कुछ देर के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया। 
                    सहसा इलियास आगे आया। अपने पासपोर्ट को जेब के हवाले करता हुआ 
                    वह बोला, ''खोल दो गेट। पुलिस वाले हमें पकड़ कर जेल ही तो ले 
                    जाएँगे न? .....अगर अल्लाह-त-आला को यही मंजूर है, तो हम क्या 
                    कर सकते हैं?''
 ''ठीक है, मैं गेट खोलता हूँ।'' कहते हुए हफ़ीज गेट की तरफ बढ़ 
                    गया।
 किसी ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। हफ़ीज सीधे गेट के पास 
                    पहुँचा। उसने एक पल के लिए अपने आप को सँभाला और फिर गेट खोल 
                    दिया। सामने तीन पुलिस वाले और दो गाडियाँ खड़ी हुयी थीं। इससे 
                    पहले कि वे लोग कुछ पूछते, हफ़ीज बोल पड़ा, ''अस्सलाम आलैकुम, 
                    वरह मतुल्लाह!''
 अपने हुक्म की नाफरमानी की वजह से पुलिस वालों के चेहरे गुस्से 
                    में लाल-पीले हो रहे थे। अगर कुछ समय तक गेट और न खुलता, तो 
                    यकीनन वे उसे मिसमार कर देते। सलाम सुनकर वे थोड़ा नार्मल हुए। 
                    तीनों ने एक साथ जवाब दिया, ''वालैकुम अस्सलाम!''
 इससे पहले कि वे लोग कुछ और पूछते, हफ़ीज ने अपना इकामा आगे कर 
                    दिया। एक सिपाही उसका इकामा लेकर देखने लगा और बाकी के दोनों 
                    लोग कारखाने के अन्दर घुस गये। हफ़ीज का इकामा एकदम दुरूस्त 
                    था। सिपाही का सिग्नल पाकर उसने राहत की साँस ली और मन ही मन 
                    'अल हजरत' में फँसे अपने साथियों के लिए दुआ करता हुआ वह अपनी 
                    मंजिल की तरफ बढ़ गया।
 दोनों सिपाही अपने बूट खटकाते 
                    हुए अन्दर पहुँचे। वहाँ पर मातम का माहौल था। सभी लोग झुण्ड 
                    बनाकर एक जगह पर खड़े थे। जैसे कसाई के सामने खड़ा बकरों का रेला 
                    इस इंतजार में हो कि जाने कब उनकी गर्दन नाप दी जाए।''इकामा फ़ी?'' सिपाही की आवाज ने कमरे के सन्नाटे को तोड़ा।
 कोई कुछ नहीं बोला। जैसे सभी को साँप सूँघ गया हो। यह देखकर एक 
                    पुलिस वाले को गुस्सा आ गया। वह जोर से चिल्लाया, ''हात 
                    इकामा!''
 किसी के पास इकामा होता, तब 
                    तो वह दिखाता। इलियास ने थोड़ी सी हिम्मत जुटाई। वह धीरे से 
                    बोला, ''माफ़ी इकामा।''यह सुनकर एक पुलिस वाले का धैर्य जवाब दे गया। उसने अरबी में 
                    एक भद्दी सी गाली दी। संयोग से इलियास उसे पहले भी सुन चुका 
                    था, इसलिए गाली सुनकर उसका खून खौल उठा। एक क्षण के लिए उसके 
                    दिमाग में आया कि अभी इन पुलिस वालों को उनकी औकात बता दी जाए, 
                    बाद में फिर चाहे जो हो। लेकिन अगले ही पल उसके कानों में 
                    अम्मी की बात गूँज उठी, ''बेटा, परदेश में हमेशा सबके साथ 
                    मेल-मोहब्बत से रहना। कभी किसी से झगड़ा नहीं करना। कोई दो बात 
                    कह दे, तो उसकी तरफ ध्यान मत देना। बस अपने काम से काम 
                    .........''
 इलियास के कदम खुद-ब-खुद पीछे 
                    हट गये। तब तक तीसरा पुलिस वाला भी अन्दर पहुँच गया। उसके हाथ 
                    में प्लास्टिक की एक बड़ी सी रस्सी थी। उसने सभी लोगों को लाइन 
                    से खड़ा किया और उनके हाथ रस्सी से बाँध दिये। उन लोगों को लेकर 
                    पुलिस वाले बाहर जाने ही वाले थे कि तभी ऊपर छत पर किसी चीज के 
                    गिरने की आवाज हुयी। पुलिस वालों के कान खड़े हो गये। एक सिपाही 
                    सीढ़ियाँ खोजकर ऊपर गया। वहाँ पर दो लड़के छिपे हुए थे। सिपाही 
                    उन्हें लेकर नीचे आया। तीनों पुलिस वालों ने उनकी जमकर धुनाई 
                    की। सात-आठ मिनट तक कूटने के बाद उन्हें इत्मिनान हुआ। वे 
                    दोनों लड़के भी रस्सी से बाँध दिये गये। उसके बाद सिपाहियों ने 
                    पूरे घर की तलाशी ली। जब उन्हें पूरी तरह से यकीन हो गया कि अब 
                    इस घर में और कोई नहीं है, तो उन्होंने लडकों को ले जाकर बाहर 
                    खड़ी गाड़ियों में ठूँसा और जेल की ओर रवाना हो गये। लॉकअप में लगातार भीड़ बढ़ती जा 
                    रही थी। अभी-अभी दस-बारह लोगों का एक और जत्था उसमें शामिल हुआ 
                    था। सीखचों का सहारा लिए इलियास बमुश्किल उकड़ू बैठ पा रहा था। 
                    अब तक उसके पेट में चूहों की दौड़ शुरू हो चुकी थी। लेकिन इस 
                    समय वहाँ खाना कहाँ रखा। उसने दाएँ हाथ से अपनी जाँघिया को 
                    टटोला, उसमें लगी जेब में 500 रियाल का नोट सही सलामत था। भूख 
                    से ध्यान हटाने के लिए वह अपनी याददाश्त को खंगालने लगा।
                     चार साल पहले की बात है। एक 
                    दिन बड़े जोर की आंधी आई। खेतों से घर लौटते वक्त एक पेड़ इलियास 
                    के अब्बू के ऊपर आ गिरा। सर पर गहरी चोट आई और ज्यादा खून बह 
                    जाने की वजह से उनका इन्तकाल हो गया। अपने पीछे छोड़ गये वे 
                    अपनी पत्नी, इलियास और उसकी चार बहनें। घर में थोड़ी बहुत खेती 
                    थी, सो उसके सहारे किसी तरह से नमक-मिर्च चलता रहा। इलियास उस 
                    समय आठवीं में पढ़ रहा था। अब्बू का गुजरना और उसका स्कूल छूटना 
                    दोनों काम एक साथ हुए। परिवार का इकलौता मर्द होने के कारण घर 
                    की जिम्मेदारी उसके ऊपर आन पड़ी। ऐसे में रहमत चाचा की सिलाई की 
                    दुकान उसके काम आई। कापी-किताब छोड़ कर उसने सूई-धागे को संभाला 
                    और उसी में रमता चला गया। इलियास का दिमाग बहुत अच्छा 
                    निकला। रहमत चाचा ने अपनी रहमत जारी रखी। उसका नतीजा यह निकला 
                    कि दो साल में वह पक्का दर्जी बन गया। उसके दूर के रिश्ते के 
                    एक मामू सउदी अरब में सिलाई का काम करते थे। संयोग से उसी 
                    दौरान वे ईद की छुटिटयों में घर आए। उन्होंने इलियास की अम्मी 
                    से कहकर उसका पासपोर्ट बनवा दिया। हालांकि उस समय उसकी उम्र 
                    १4-१5 साल से अधिक नहीं थी। पासपोर्ट की इंक्वायरी के लिए आए 
                    हुए इंस्पेक्टर ने यह बात उठायी भी, लेकिन जैसे ही उसकी जेब 
                    में पांच सौ रूपये गये, उसने इलियास को बालिग घोशित कर दिया।
                    खेत और मकान को गिरवी रख कर टिकट का इन्तजाम हुआ। उड़ान दिल्ली 
                    से थी। और दिल्ली तक पहुँचने के लिए लखनऊ मेल में रिजर्वेशन हो 
                    चुका था। जिस दिन इलियास अपने घर से निकला, वह जनवरी का दूसरा 
                    शनिवार था। ठंड अपने पूरे शबाब पर थी। शाम चार बजे से ही कुहरे 
                    ने अपने हाथ-पैर फैलाने शुरू कर दिये थे। गाँव वालों से विदा 
                    लेकर जब वह अपने गले में पड़े गुलाब के हार को लहराता हुआ 
                    टैम्पो में बैठा, तो उसकी माँ का बुरा हाल था। जबान को तो 
                    उन्होंने जब्त करके बंद कर रखा था, पर आँखें सब्र के बाँध को 
                    तहस-नहस करने पर उतारू थीं। छोटी बहनें इस तरह से जार-ओ-कतार 
                    रो रही थीं, जैसे उनका भाई विदेश न जाकर कहीं जंग के मैदान के 
                    लिए रवाना हो रहा हो।
 जैसे ही टैम्पो ने गाँव के चौराहे को छोड़ा, अम्मी के हाथों से 
                    सब्र का दामन छूट गया। वे फूट-फूट कर रोने लगीं। उनके जिगर का 
                    टुकड़ा पहली बार उनसे इतनी दूर जा रहा था। पता नहीं कब उसका 
                    चेहरा देखने को मिले? यह देखकर इलियास भी अपने आप को रोक नहीं 
                    पाया और फूट-फूट कर रोने लगा।
 ''अपने आप को संभालो बेटे।'' बगल में बैठे मामू ने हिम्मत 
                    बँधाई, ''इस तरह से रोओगे तो कैसे काम चलेगा?''
 इलियास ने अपना मुँह मामू के सीने में छिपा लिया। वे उसकी पीठ 
                    सहलाने लगे। अन्जाने में ही इलियास का बाँया हाथ दाहिने हाथ पर 
                    बंधे ताबीज पर चला गया। आज सुबह ही अम्मी ने मौलवी साहब का 
                    लिखा हुआ ताबीज इमाम जामिन में मढ़कर उसके हाथ में बाँधा था। 
                    ताबीज बाँधते हुए उन्होंने कहा था, ''या पीर बाबा, परदेश में 
                    मेरे बेटे की हिफाजत करना।''
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