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नृत्य केंद्र पालम से पंद्रह किलोमीटर दूर था। सुबह का झुटपुटा था। टैक्सी की खिड़की में मुँह लगाए जूली भारत हरे पेड़ों पर, हरे घास पर और सबसे अधिक खुली धूप पर मुग्ध हो रही थी। टैक्सी एक अजीब-से घर के सामने रुकी। मानसी देवी ने घंटी बजायी और एक अधेड़-सी महिला ने दरवाजा खोला।
''यही हैं श्रीमंती सेन, इन्होंने अपने घर में तुम्हें एक कमरा दिया है। यह जगह नृत्य केंद्र के पास है। तुम पैदल आ-जा सकती हो। हाँ खाना तुम अलग बनाना। और यहाँ एक मेज़ है स्टोव, चारपाई, कुरसी सभी-कुछ है। बस बाथरूम शेयर करना पड़ेगा।''
''मानसी देवी, धन्यवाद।'' और जूली ने मानसी देवी का हाथ पकड़ माथे पर चुंबन चिपका दिया।

मानसी देवी माथा पोछती हुई कुछ सोचकर चुप रह गईं। फिर बोलीं, ''हाँ दो घंटे के बाद मैं तुम्हें स्वयं नृत्य केंद्र ले चलूँगी।''
''मुझे साड़ी पहननी होगी न? मैंने एक हारवर्ड स्क्वायर से ख़रीदी थी ५० डॉलर की।'' और जूली ने अपना सूटकेस खोलकर लाल छापे की रेशमी साड़ी निकाल ली।
मानसी देवी मुस्काकर रह गई, ''अच्छा मैं चलती हूँ दो घंटे बाद आऊँगी।''
ठीक ग्यारह बजे मानसी देवी आ गईं। जूली अपनी स्कर्ट पर दोहरी की हुई साड़ी लपेटे थी।
''ठीक है, न मानसी देवी?''
''नहीं। साड़ी के लिए तुम्हें पेटीकोट व ब्लाउज़ भी बनवाने पड़ेंगे। आज तुम स्कर्ट पहनकर ही नृत्य केंद्र चलो। वहीं का दर्ज़ी सब बना देगा।''
''और घूँघरू कहाँ से ख़रीदूँ?''
''वह भी नृत्य केंद्र से।''
जूली, मानसी देवी के साथ केंद्र पहुँच गई। दूर से ही घुँघरू की आवाज़ सुन वह उतावली हो गईं।
''कितना स्वर्गीय है, मेरे ह्रदय पर हाथ रखकर देखिए न, देखिए कितनी ज़ोर से धड़क रहा है।''  और जूली ने मानसी देवी का हाथ अपने ह्रदय पर रखा।
'अरे' मानसी देवी सकपका गईं।

केंद्र के प्रकोष्ठ में प्रविष्ट हो मानसी देवी ने दीवार पर टँगे नृत्यकारों के चित्र दिखाए। जूली हर चित्र के सामने खड़ी हो जाती। उसका मन ही न भरता, कला के सेवक। उसकी आँखें आदर तथा श्रद्धा से भरी थीं। मानसी देवी के कहने पर ही वह आगे बढ़ी। नृत्य केंद्र जूली के लिए एक पावन मंदिर था।

नृत्य के कमरे के सामने अपने जूते उतार जूली मानसी देवी के साथ अंदर गई। मानसी देवी ने उसे अपने पास बिठा लिया व अंग्रेज़ी में समझाने लगीं।
''जूली! भारत बहुत भिन्न है। खुले में किसी का भी चुंबन लेना निषिद्ध है। खुले में यहाँ माँ ही केवल अपने नन्हें बच्चे का चुंबन ले सकती है। जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो माँ के लिए भी उसका चुंबन लेना तो क्या स्पर्श भी वर्जित है।''
जूली आश्चर्य में पड़ गई, उसका मुँह खुला-का-खुला रह गया।
मानसी देवी पुनः बोलने लगीं, ''नृत्य केंद्र में प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा है।''
''मेरी समझ में नहीं आया।''
''यहाँ मैं तुम्हें नाच सिखाऊँगी। इसके माने हैं मैं गुरु और तुम शिष्या। यह मेरी शिष्या कविता तुमको सब-कुछ बताएगी।'' मानसी देवी जूली को कविता के पास बिठाकर बाहर चली गई। कविता ने जूली को नृत्य केंद्र के सारे नियम समझा डाले। ''गुरु के पैर छूने पड़ते हैं और गुरु कुछ भी कहे वह सहना पड़ता है। जूली तुम शिष्या हो तुम्हें नीचे आसन में बैठना होगा। गुरु आदर का पात्र है'', आदि-आदि।

जूली कविता की बातें समझ चुकी थी, तभी मानसी देवी आ गईं। वह मानसी देवी के पैर पर सिर रखकर बोली, ''गुरु।'' वहाँ बैठे शिष्य तथा तबला व सारंगी वालों की हँसी से पूरा नृत्य हाल गूँज गया।
जूली के लिए नए घुँघरू बने, बँधे। गुरु-दक्षिणा आदि से निवृत्त हो, जूली साड़ी पहनकर बैठ गई। अदा, ठाठ, नज़ाकत, घूंघट, टुकड़े, चक्कर-पर-चक्कर करती हुई लड़कियों को एक-एक देखकर जूली सनाका खा गई। सबकी-सब कैसी फिरकी की तरह चक्कर लगा लेती हैं। वह भी खड़ी हो गई उसने भी चक्कर लेना चाहा पर वह चक्कर खाकर गिर पड़ी और सब-के-सब खिलखिलाकर हँसने लगे। मानसी देवी ने उन सबको आड़े हाथों लिया और जूली के मन में मानसी देवी के लिए और स्नेह व आदर बढ़ गया।

नृत्य केंद्र का वातावरण बड़ा सुखमय था। घुँघरू तो उसको इतने भाए कि उसका मन चाहा कि वह पैरों में पहने-ही-पहने घर जाए। मानसी देवी ने कहा, ''जूली, यहाँ की सभ्यता ऐसी नहीं है।''
''पर क्यों?''
''घुँघरू बड़े पवित्र होते हैं। सड़क पर नहीं पहने जाते। सड़क गंदी होती है न।''

जूली समझकर चुप हो गई। जूली पर घुँघरू का रंग चढ़ा था। वह मिसेज सेन के साथ बाज़ार से घुँघरू वाली पायल ख़रीद लाई और उसे वह सदा पहने रहती।
अपने कमरे में कृष्ण की तस्वीर के सामने और पास में गीता भी रख जूली घंटों निकाल देती। एक दिन वह कविता से बोली, ''कविता मुझे, गीता के श्लोकों का अर्थ बता दो।''
''मुझे नहीं आता। यह तो टीचर ही बताएगी।''
''पर क्या तुम गीता नहीं पढ़तीं?''
''नहीं, गीता कौन पढ़ता है। मैं तो हनुमान जी के मंदिर जाती हूँ।''
''सच! मैं भी चलूँगी हनुमान मंदिर।''

और अगले मंगल जूली कविता के साथ हनुमान मंदिर गई। मंदिर का वातावरण उसे अच्छा लगा। भीड़ बहुत थी। कविता के साथ परिक्रमा करते-करते मंदिर में किसी ने उसके चिकोटी काटी तो जूली चिल्ला पड़ी और उसने नोचनेवाले का हाथ पकड़ लिया।

'टेंपिल में तुम बदमासी करता है,'' वह गुंडा जूली का हाथ मरोड़कर भाग गया और जूली खिसयायी-सी रह गई। वह चिल्लाई, ''कविता, कविता!'' पर कविता की आँख ओट हो गई थी। उसके चारों ओर खड़ी जनता खामोश देख रही थी।

तभी कविता आ गई। जूली का मन खिन्न हो गया था। फिर भी उसने हनुमान जी की पूजा की। रात वह सो न सकी। भारत एक उलझी-सी पहेली लगा। पर फिर उसने मन सँभाल लिया।
उसने एक साइकिल ख़रीद ली। साइकिल से वह नृत्य केंद्र भी जाती व बाज़ार-हाट भी करती थी। एक दिन नृत्य केंद्र से लौटने में थोड़ा अंधेरा हो गया था। लैंप पोस्ट की बत्ती बुझी थी। किसी ने पीछे-से जूली को धक्का दिया। साइकिल गिर गई। साथ में जूली भी। गिरानेवाले ने ही उसे इस बेरहमी से पकड़ लिया कि जूली घबरा गई।
''हैल्प, गुंडा, गुंडा।'' वह चिल्लाई।
इतने ही में एक दूसरा आदमी आ पहुँचा और उसने गुंडे की गरदन पकड़ ली। गुंडा गरदन छुड़ाकर भाग गया, मगर साथ में जूली के गले से सोने की जंजीर भी ले गया। जूली सड़क पर ही बैठकर सिसकियाँ भरती फूट-फूट कर रोने लगी।

बचानेवाला शरीफ आदमी था। उसने जूली की साइकिल उठाई और पूछा, ''आप कहाँ रहती हैं? चलिए मैं आपको आपके घर पहुँचा आता हूँ।''
''धन्यवाद।''
''किस बात का?''
''आपने मुझे बचा लिया।'' फिर कुछ सोचकर बोली, ''चलिए पहले पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवा दें।''
''न, न, न। वहाँ न जाइए। वह लोग भी आपको तंग करेंगे।''
''पुलिस तंग करेगी? पर क्यों?''
''देखिए, मैं आपको घर पहुँचा आता हूँ फिर आपका जो मन आए करिएगा।''
''आप तो बड़े अजीब हैं? सुनिए, आपका नाम क्या है?'' जूली ने बड़ी मिठास से पूछा।
''मेरा नाम, 'समीर चंद्र।'

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