बेटा अपने विवाह तक प्रतीक्षा
करने के विचार से चुप हो गया था। तुम नहीं चाहतीं थीं कि बेटा
सिगरेट पीने की आदत डाले और इस उद्देश्य से तुमने मतलब की बात
उससे छिपा ली थी कि 'बच्चू अभी मेरी नकेल में रहो और विवाह के
पश्चात तो बीबी नकेल डाल ही देगी।' तुम्हारी इन चतुराइयों के
कारण तुम्हें अपने तीनों पुत्रों में किसी के विरुद्ध किसी के
द्वारा शिकायत सुनने की हेठी कभी नहीं सहनी पड़ी थी।
फिर तुम सास बनीं और उस ज़माने
में बनीं जब सास सास हुआ करती थी- बहू के चलने-फिरने,
उठने-बैठने, बातचीत करने, घूँघट काढ़ने, सबके बाद खाने, सबसे
पहले जागकर घर के काम में जुट जाने, माइके वालों की याद में
रोने या न रोने, पूजा-पाठ-व्रत करने एवं पति से घुलने-मिलने
आदि प्रत्येक कार्यकलाप पर चौबीस घंटे निगरानी तथा नियंत्रण,
एवं अवज्ञा अथवा असावधानी होने पर डाँट-फटकार एवं गाली गलौज से
लेकर शारीरिक यंत्रणा तक का अबाध अधिकार रखने का उसे हक होता
था। तुमने स्वयं बहू होने
की अवधि में अपनी सास के उस अधिकार को सहा भी था, परंतु जब
तुम्हारी एक बहू तुम्हारी अवज्ञा कर स्वच्छंदता का आचरण करने
लगी थी एवं किसी के समझाने बुझाने से अपने में बदलाव नहीं लायी
थी, तब तुम उस गरल को ठीक उस प्रकार अपने कंठ में गटक गईं थीं
जैसे शंकर ने समुद्र मंथन से प्राप्त गरल को गटक कर नीलकंठ की
उपाधि पाई थी। अन्य सासों की भाँति न तो तुमने बलात अपना
अधिकार दिखाने का प्रयत्न किया था और न अपने निकट उठने बैठने
वाली स्त्रियों में लुकछिपकर बहू की बुराई की थी। हाँ, तुम
चाहते हुए भी उसे अपनी बेटी अवश्य नहीं बना पाईं थीं। फिर जब
दूसरी बहू ने अपने श्रम, प्रेम एवं निष्ठा से तुम्हारा मन जीत
लिया था एवं तुम्हारे प्रेमभाव, तुम्हारी मेधा एवं तुम्हारे
व्यवहारिक ज्ञान को पहचानकर तुम्हें अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा
अर्पित कर दी थी, तब तुमने उसे अविलम्ब अपनी बेटी बना लिया था।
कालांतर में जब उसके पति साहब कहलाने लगे थे और वह मेम साहब
कहलाने लगी थी, तो तुमने भी उसे सम्मान मिश्रित प्रेमभाव से मेम
साहब कहना प्रारम्भ कर दिया था। तुमने घर में मेम साहब को इतना
ऊँचा स्थापित कर दिया था कि बेटे-बहू दोनों के गाँव आने पर
साहब के बजाय मेम साहब की ही धूम रहती थी। यदि मेम साहब के घर
में घुसने से पहले पुत्र घर में घुस जाए, तो तुम्हारा पहला
प्रश्न होता था,
'लला! का मेम साहब कौ नांईं लाए हो?'
और यदि पुत्र अकेला आया हो तो तुम्हारे मुख पर एक रिक्ति का
भाव परिलक्षित होने लगता था और तुम उससे स्पष्ट कह देतीं थीं
कि इस बार तुम्हारा आना नहीं माना गया।
तुम जब इस गाँव में ब्याह कर
आईं थीं, अधिकतर ग्रामवासियों के लिए वह हर प्रकार के अभावों
का समय था- धरती से पैदावार का अभाव क्योंकि ट्रैक्टर व
ट्यूब-वेल न होने के कारण अनाज की पैदावार न केवल न्यून होती
थी वरन अनिश्चित भी थी, अधिकांश ग्रामीणों को जीवित रहने भर तक
को भोजन का अभाव क्योंकि अधिकतर भूमि ज़मीदार की थी और अधिकतर
ग्रामवासी भूमिहीन मज़दूर थे, पहनने को कपड़े का अभाव क्योंकि
भारत में पैदा होने वाली कपास कपड़ा बनाने के लिए इंग्लैंड की
मिलों में चली जाती थी, रहने को मकान का अभाव क्योंकि अधिकतर
ग्रामवासियों के पास मकान बनाने को न तो धन था और न संसाधन।
मानव समाज में अल्प-अवधि के अभाव एक दूसरे की सहायता के प्रेरक
होते हैं परंतु दीर्घकालीन अभाव अपनी एक विशेष अपसंस्कृति के
जनक होते हैं- संचयन, स्वार्थ, क्षुद्र मानसिकता एवं शोषण की
अपसंस्कृति। सदियों की दासता झेल रहे भारत का प्रत्येक ग्राम
इसी अभावजनित अपसंस्कृति से ग्रस्त था और तुम्हारी ससुराल का
ग्राम भी उसका अपवाद नहीं था। अत: जब भी ग्राम में अतिवृष्टि,
अनावृष्टि अथवा अन्य किसी आपदा के कारण लोगों के यहाँ भोजन के
लाले पड़ने लगते थे, तब धनवान लोग ऋण के ब्याज की दर प्रचलित
३६ प्रतिशत से बढ़ाकर ऋण माँगने वाले की विवशता के अनुपात में
४८ से ६० प्रतिशत तक कर देते थे। साथ में यह कहकर कि 'तुम्हारा
क्या पता कि तुम ब्याज भी वापस कर पाओगे या नहीं', उनके
ज़मीन-मकान भी गिरवी रखा लेते थे। यह उनकी ज़मीनों को हड़पने
अथवा उनके परिवार को बंधुआ मज़दूर बना लेने की सटीक चाल हुआ
करती थी।
यद्यपि तुम धनिक परिवारों में से एक की सदस्य थीं, तथापि बेबस
के इस शोषण को देखकर तुम्हारी सम्वेदना शोषित के प्रति रहती
थी। सेवानिवृत्ति के उपरांत तुम्हारे पति जब गाँव में रहने आए,
तभी उनकी माँ की मृत्यु हो गई थी और तुम्हारे पति ने अपना मकान
अलग बनवा लिया था। इससे तुम अपने घर की मालकिन बन गईं थीं, और
तब तुमने धनवानों द्वारा निरीहों के इस शोषण पर बड़े प्रभावी
ढंग से कुठाराघात किया था। तुमने ऐसे अवसरों पर ३६ प्रतिशत के
बजाय २४ प्रतिशत ब्याज पर ऋण देना प्रारम्भ कर दिया। विवश होकर
दूसरे धनिकों को भी ब्याज की दर घटानी पड़ी। जिन घरों में
चूल्हा जलने के लाले पड़े, तुमने उनको बिना सूद के अनाज उधार
दिया और हारी-बीमारी में अथवा अन्य आपदा पड़ने पर बिना किसी
वापसी की आशा अथवा माँग किए धन-धान्य से लोगों की सहायता की।
विवश को केवल शोषित होते देखने के अभ्यस्त निरीह गाँववालों के
लिए यह एक नवीन अनुभव था और इस कारण वे 'चाची' के भक्त बन गए
थे। फिर चाहे भुखमरी की समस्या हो, चाहे बीमारी की हो,
चोरी-चकारी की हो अथवा लड़की पर डोरे डालने की हो, ग्रामवासी
उसके समाधान हेतु तुम्हारे पास ही आने लगे थे। उन दिनों के
जातीय पक्षपात से ग्रस्त ग्रामीण समाज में किसी मुखिया,
ज़मीदार अथवा पंचायत से निष्पक्ष निर्णय की आशा करना चंद्रमा को
मुट्ठी में भर लेने जैसा होता था। पुलिस और कचहरी भी धनवान एवं
बलशाली लोगों के हाथ के खिलौने मात्र हुआ करते थे, अत: न्याय
की इन संस्थाओं पर निर्धन एवं निर्बल को कोई विश्वास नहीं था।
यद्यपि तुम्हारे पास कोई कानूनी बल नहीं था, तथापि
ग्रामवासियों को यह विश्वास था कि तुम निष्पक्ष एवं खरी बात
कहोगी, अत: वे अपनी समस्याएँ लेकर तुम्हारे पास ही आते थे। तुम
प्राय: उनकी समस्याओं का संतोषजनक हल निकाल भी देतीं थीं
क्योंकि तुम्हारे स्वभाव एवं नैतिक प्रभाव के कारण तुम्हारा
दिया हुआ निर्णय सभी पक्ष स्वीकार कर लेते थे।
विगत तीन वर्ष से तुम कमर झुक
जाने एवं टाँगों के अशक्त हो जाने के कारण चलने फिरने में
असमर्थ थीं- डंडे के सहारे शौचालय तक घिसटकर चले जाने के
अतिरिक्त दिन रात बरामदे में लेटीं रहतीं थी। कितनी भी तूफ़ानी
वर्षा हो अथवा किटकिटाती ठंड हो, तुम इस बरामदे के अतिरिक्त
कहीं और नहीं लेटतीं थीं- जब तक आकाश में चाँद-तारे अथवा बादल
न दिखाई दें, तुम्हें नींद ही कहाँ आती थी? हो सकता है कि
तुम इसलिए यह बरामदा न छोड़ती हो क्योंकि तुम्हारे पति भी यहीं
लेटे रहा करते थे और उन्होने अपनी अंतिम साँस इसी चारपाई पर ली
थी।
मैं, मेम साहब एवं गाँव के
अन्य सभी व्यक्ति प्राय: आश्चर्यचकित होकर यह चर्चा किया करते
थे कि शरीर से इतनी अशक्त हो जाने के पश्चात भी घर एवं बाहर
तुम्हारे प्रशासन, प्रभाव एवं वर्चस्व में लेशमात्र भी कमी
नहीं आई थी। खेती-बाड़ी का कार्य यथावत चल रहा था और तुम
पूर्ववत उसका हिसाब एवं नियंत्रण रख रहीं थीं। तुम्हारी
पड़ोसिनें अब भी दोपहर में तुम्हारे पास नई बहू की सुंदरता का
बखान करने, पुरानी पड़ती बहू की अवज्ञाकारिता की शिकायत करने,
विगत चौबीस घंटे में घटित घटनाओं का समाचार देने, अथवा चुटकी
भर मैनपुरी तम्बाकू खाने हेतु इकट्ठी होतीं थीं। गाँव वाले अब
भी किसी प्रकार का झगड़ा-झंझट होने पर तुम्हारे पास समाधान
हेतु आते थे, एवं धन-धान्य की कठिनाई पड़ने पर बरामदे में आकर
चुपचाप इस विश्वास के साथ तुम्हारे पास बैठ जाते थे कि तुम्हें
उनकी समस्या का ज्ञान तो हो ही चुका होगा और उसके समाधान हेतु
तुम स्वयं ही बात छेड़ोगी।
चाची! आज तुम पूरे गाँव को अनाथ बनाकर ऐसे चली गई हो जैसे
तुम्हारा कभी किसी से कोई नाता ही नहीं था? देखो, तुम्हारी मेम
साहब तुम्हारे पैताने पैर छूने को झुकी हुई हैं। बस एक बार,
केवल एक बार- कह दो,
'बेटा, खुस रहौ। अच्छो करो तुम आय गईं- नाईं तौ पता नाईं तुम
सै फिर हम मिल पातीं कि नाईं।' |