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पर आज अगस्त की उमस भरी गर्म दोपहरी में जब मैं घर में घुसा हूँ तो तुम्हारे आस-पास दस-पाँच स्त्रियाँ मात्र नहीं हैं, वरन भीतर-बाहर स्त्री-पुरुषों की भीड़ लगी हुई है। सबके चेहरों पर अवसाद की छाया है और कई स्त्रियाँ अश्रु बहाते हुए विलाप कर रहीं हैं। मुनुआँ की अइया के मुँह से एक ही बात बार-बार निकल रही है,
'हाय चाची, तुम हमैं किनके सहारे छोड़ गईं हौ?'

पर तुम तो आँख मींचकर निर्विकार होकर बर्फ़ की सिल्ली पर लेटी हुई हो। मैं आगे बढ़कर तुम्हारे पास आने का उपक्रम करता हूँ, तो स्त्रियाँ मेरे लिए थोड़ी-सी जगह बना देतीं हैं। तुम्हारे निकट पहुँचकर सदैव की भाँति तुम्हारे पैर छूने की बात मन में आती है, परंतु फिर मस्तिष्क कहता है कि अब इसका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अब न तो तुम मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाओगी और न 'लला, खुस रहौ' कहोगी- तुम्हारे द्वारा अंतिम समय प्यार एवं आशीर्वाद न पाने के लिए मैं स्वयं ही दोषी हूँ, मैंने तुम्हारे पास आने में कुछ घंटे का विलम्ब जो कर दिया है। मैं तुम्हारे पैताने बैठ जाता हूँ और आज तुम्हारे बजाय मैं तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले लेता हूँ। तुम्हारे हिम से ठंडे हाथ के स्पर्श से तुम्हारा अंतर्मन मेरी बाँह के रास्ते से मेरी आँखों में प्रविष्ट होकर उन्हें जलप्लावित कर देता है- मेरे अश्रु प्रवाहित होने को व्याकुल होने लगते हैं और मैं अपनी पूर्ण चेष्टा के उपरांत भी उन्हें आँखों की कोर से बह निकलने से नहीं रोक पाता हूँ। पर आज तुम न तो मेरे अश्रुओं से विचलित होती हो और न उनके बहने का कारण पूछती हो।

तुम्हारा नाम चाची नहीं है वरन पानकुँअर है, और मैं जानता हूँ कि यदि मुझे तुम्हारे विषय में लिखना है तो शीर्षक तुम्हारे नाम का ही रखना चाहिए- चाची तो हर घर में एक-दो होतीं हैं, लेकिन मजबूरी यह है कि चाची के अतिरिक्त किसी नाम से तुम्हें जानता ही कौन है। तुम्हारे गाँव अथवा आस-पास के किसी गाँव में चाची की बात करो तो सुनने वाला तुरंत समझ जाता है कि किसके विषय में बात की जा रही है, परंतु यदि पानकुँअर के विषय में बात करो तो स्वयं तुम्हारे घर में भी बिरला ही समझ पाएगा। तीन चौथाई शताब्दी से कुछ अधिक ही वर्ष बीत गए हैं जब तुम इस गाँव में ब्याहकर आईं थीं। तब तुम केवल १३ वर्ष की थीं, परंतु उसी दिन बहू कहलाने के अतिरिक्त चाची भी कहलाने लगीं थीं। उन दिनों किसी लड़की का नाम विवाह के पहले तक ही तो रहता था- विवाह के पश्चात तो वह अपने नाम सहित अपने पति के घर में विलीन हो जाती थी। ससुराल में आकर तुम सास, जेठ और जिठानी की बहू और जेठ के पुत्र व पुत्रियों की चाची बन गईं थीं, देवर था ही नहीं जो भौजी बन पातीं। तुम अपने पति के लिए भी अनाम-सी ही रहीं थीं क्योंकि अन्यों के सामने तो वह भी तुम्हें नाम से पुकारने का साहस नहीं कर सकता था। ससुराल में अपने से छोटों द्वारा चाची पुकारे जाने का सिलसिला जो एक बार प्रारम्भ हुआ, तो सुरसा के मुँह की भाँति विस्तृत होता गया और तुम न केवल गाँव के सब बच्चों की चाची बन गईं, वरन् भविष्य में होने वाले अपने स्वयं के तीन बेटों की भी चाची बन गईं। फिर ज्यों-ज्यों तुम बडी होती गईं और तुमसे बड़ों की संख्या कम और छोटों की संख्या बढ़ती गई, तुम जगचाची होती गईं। बेटों का विवाह होने पर जो बहुएँ आईं, उन्होने और फिर उनके बच्चों ने भी तुम्हें चाची ही कहा। मुझे लगता है कि तुम स्वयं भी चाची के नाम से पुकारे जाने की इतनी अभ्यस्त हो चुकीं थीं कि यदि बहुएँ अथवा बच्चे कुछ और कहते तो तुम्हें सोचना पड़ता कि किसे पुकार रहे हैं।

तुम पढ़ीं नहीं थीं पर गुनी बहुत थीं। तुम्हारा मस्तिष्क तुम्हारे शरीर के अंगों में सबसे अधिक सशक्त एवं क्रियाशील अंग था। किसी परिस्थिति का सूक्ष्मतम निरीक्षण-परीक्षण कर समुचित निष्कर्ष निकालने की तुममें अद्भुत क्षमता थी; और तुम स्वयं भी इस तथ्य से अवगत थीं और अपनों के सामने कभी-कभी कह भी देतीं थीं,
''हम पढ़े नाईं हैं तौ का भओ? गुने तौ हैं।''

तुम्हारे ऐसा कहने में आत्माभिमान स्पष्ट झलकता था पर यदा-कदा एक पीड़ा भी परिलक्षित हो जाती थी कि स्त्री के रूप में जन्म लेने के 'अपराध' मात्र के कारण तुम्हें अपने मेधावी मस्तिष्क का पूर्ण उपयोग कर सामाजिक उच्चता प्राप्त करने का अवसर नहीं दिया गया। परंतु घर के समस्त पुरुष एवं स्त्री वर्ग के मन में तुमको पढ़ाया न जाना इतनी सामान्य एवं समुचित बात थी कि किसी का तुम्हारे कथन में छिपी पीड़ा पर ध्यान ही नहीं जाता था। तुम्हें पढ़ाया भी कैसे जा सकता था- एक तो तुम्हारे गाँव में विद्यालय नहीं था और दूसरे तुम्हारे पिता, जो लम्बी पगड़ी बाँधकर शान से घोड़ी पर सवार होकर चलते थे, को क्या अपनी बेटी से नौकरी कराकर अपनी बदनामी करानी थी जो उसे पढ़ाते? कुछ नया सीखने की अपनी रुचि के कारण तुमने घर में ही अक्षर से अक्षर मिलाना सीखने का प्रयत्न अवश्य किया था, परंतु किसी ने लड़की को इतना भी सिखाने में रुचि नहीं ली थी कि तुम रामायण बाँच सकतीं अथवा पत्र लिख पातीं। तुम्हारी ससुराल के ठेठ ग्रामीण परिवेश में विवाहोपरांत तो तुम्हें पढ़ाया जाना अकल्पनीय था- विशेषकर इसलिए भी कि उन दिनों तुम्हारे पति नौकरी के सिलसिले में बाहर रहते थे और तुम गाँव में सास और जेठानी के साथ। फिर भी तुम यथासम्भव अक्षर-ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करतीं रही थीं और अपनी लगन मात्र से तुमने हस्ताक्षर करना एवं सरल शब्दों को एक एक मिलाकर पढ़ना सीख लिया था।

तुमने अपनी बुद्धि, विवेक, श्रम एवं निष्ठा से परिवार को ऐसे पाला था कि तुम्हारे पति एवं तीनों बच्चे सदैव सीधे रास्ते पर चले एवं तुम्हारे प्रति निष्ठावान रहे। तुम्हारा अपने तीनों बच्चों से बड़ा सोचा बिचारा सम्बंध था- प्यार का ऊपरी प्रदर्शन किए बिना उनकी अथक देखभाल से उन्हें अपनी चिंता एवं स्नेह का आभास दिलाते रहना एवं उन्हें कुटैवों से बचाने हेतु समुचित मार्गदर्शन करते रहना। अनुशासन के प्रकरणों में तुम स्वयं कम ही सामने आतीं थीं वरन बच्चों में उनके पिता के प्रति सम्मान एवं भय का ऐसा भाव भरतीं रहतीं थीं कि पिता से शिकायत कर देने की धमकी मात्र उन्हें तुम्हारी आज्ञानुसार चलने को बाध्य कर देती थी। एक बार जब तुम्हारा मझला बेटा सात साल का था, तब उसने बातचीत में एक अवचनीय शब्द का प्रयोग उसका अर्थ न जानने के कारण कर दिया था। उस दिन तुमने पिता से उसकी शिकायत कर दी थी और वह संटी लेकर बेटे के पीछे ऐसे दौड़े थे कि जैसे उसे लहूलुहान कर देंगे। यद्यपि उनके द्वारा एक बार भी संटी-प्रहार करने से पहले तुमने उसे बचा लिया था, तथापि उस संटी की चमक तड़ित की गर्जना सम उस बेटे के अवचेतन में बस गई थी। तुम कभी कभी कह भी देतीं थीं- 'बच्चों को खिलाये सोने का निवाला, पर देखे शेर की आँख से।' सो तुमने ये दोनों कार्य अपने और बच्चों के पिता के बीच बाँट लिए थे- स्वयं सोने का निवाला खिलातीं थीं और पिता शेर की आँख से देखते थे। अपने साथियों को सिगरेट पीकर धुएँ के छल्ले उड़ाते देखकर एक बेटे ने एक-आध बार सिगरेट पीने की इच्छा जताई थी, तो तुमने कड़ाई से कह दिया था,
'बेटा, अबै तुम्हारी सिगरेट पीबे की उमिर नाहीं है।'
बेटा इससे आश्वस्त नहीं हुआ था और उसने ज़िद के भाव से पूछ लिया था,
'तो कब होगी मेरी उम्र?'
तुमने बेहिचक उत्तर दिया था,
'तुम्हारे ब्याह के बाद।'

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