मन मारकर
उसने बिस्तर छोड़ा, टेढ़ी-मेढ़ी अंगड़ाइयाँ लीं और जैसे-तैसे
अपने को बाहर जाने लायक स्थिति में लाने के लिए बाथरूम की ओर
चल दिया। बाहर आया तो भाभी पहले ही चाय तैयार कर चुकीं थीं।
धीरज ने एक पल घड़ी को देखा, दिमाग में कुछ हिसाब लगाया और चाय
पीने बैठ गया। मरीन इंजिनीयरिंग की तथाकथित पैरा-मिलैट्री
स्टाइल ट्रेनिंग ने उसे और कुछ भले ही न सिखाया हो पर फटाफट
तैयार होना ज़रूर सिखा दिया था। ऐसे भी, मरीन इंजिनीयरिंग में,
इससे ज़्यादा सीखने की ज़रूरत भी नहीं होती। धीरज ने उन चारों
सालों की पढ़ाई को मन ही मन धन्यवाद दिया जिसके कारण वह आज लेट
होने के बाद भी इत्मिनान से बस पकड़ सकता था। और इसी
अत्यधिक आत्मविश्वास के चलते उसने आराम से चाय पी, फैलकर
'डेली
टाइम्स' की रंगीनियत में झाँका और भैया के कार से बस स्टैण्ड पर
ड्रॉप कर देने के प्रस्ताव को भी सर हिला कर ना कर दिया। इसका उसे
बाद में अफ़सोस भी हुआ क्योंकि भैया ने उसके इंकार को गंभीरता
से
ले लिया और दुबारा पूछा ही नहीं। धीरज महाराज भी तैश में आ गए
और मन पक्का कर पैदल ही बस स्टैण्ड की तरफ़ चल पड़े।
बस स्टैण्ड
ज़्यादा दूर तो नहीं था पर पैदल पहुँचने में कुछ समय तो लगता
है। धीरज ने फिर से हिसाब लगाया तो मामला अब समया-सीमा पर
पहुँचा था।
कदमों में अपने आप ही कुछ तेज़ी-सी आ गई। दूर से ही उसने बस
स्टॉप पर खड़ी बस को स्पॉट कर लिया और बस पकड़ने के लिये
पूरी ताकत से दौड़ लगा दी। भाग कर बस पकड़ने में धीरज उस्ताद
था ही। हालाँकि इस बार बस को भाग कर पकड़ने का कुछ खास फायदा
उसे नहीं हुआ क्योंकि ट्रैफिक जाम में फँसे होने के कारण बस
काफी देर वहीं खड़ी रही। फूले हुए साँस के साथ धीरज अंदर घुसा
और घुसते ही पैनी निगाहों से अंदर का तेज़ी से मुआयना किया।
सबसे पीछे, खिड़की की सीट पर बैठी लड़की के बराबर में एक सीट
खाली थी। लड़की कुछ ख़ास नहीं थी पर लड़की थी जो धीरज के लिए
काफी था। यों सीटें और भी एक-दो खाली थीं पर धीरज ने,
स्वाभाविक रूप से, वहीं बैठने का फ़ैसला किया और मौका कहीं मिस ना हो
जाए इस डर से तुरंत सीट की ओर लपक लिया। इस लपक-झपक के दौरान
हुए हल्के-फुल्के स्पर्श का लड़की ने अपनी नाक मुँह सिकोड़ कर
भारी-भरकम जवाब दिया। उत्तर-स्वरूप धीरज ने अपने मासूम चेहरे
पर क्षमा याचना भरी मुस्कान बिखेर दी। लड़की ने मायावती की तरह
धीरज को देखा और फिर ऐश्वर्या की तरह अपना मुँह दुसरी तरफ़
मोड़ लिया। और इस तरह एक बार फिर, लड़की को देखकर जागा धीरज का
प्रारंभिक उत्साह हर बार की तरह ठंडा हो चला था।
'टिकट! हाँ जी। टिकट बोलिये, साहब।'' कंडक्टर उसी की तरफ़
इशारा कर के पूछ रहा था। अपने उठने से होने वाले किसी भी
संभावित कष्ट से लड़की को बचाते हुए धीरज सावधानीपूर्वक उठकर
कंडक्टर के पास पहुँचा और ५० का नोट बढ़ाकर बोला, ''एक बाबूगढ़
का टिकट देना।''
हुम्म...रंग
तो साफ़ है। धीरज लड़की की ओर देखकर सोच रहा था। जाटनी लगती
है। दुपट्टे से सर ढक रखा है। गाँव की होगी। पहली बार अकेले
बाहर आई है। इतनी ख़ास तो है नहीं फिर इतना क्यों इतरा रही है?
शक्ल नहीं है आठ आने की और खुद को मिस इंडिया समझती है।
अपनी
एम.बी.ए. की डिग्री के बड़प्पन और लड़की के संभावित गँवारपन के
तुलनास्वरूप धीरज के होंठो पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान खेल गई
और उसे यह भी ध्यान न रहा कि कंडक्टर कब से उसे ही पुकार रहा
था।
''साहब…..!'' कंडक्टर ने ज़ोर से पकड़ कर धीरज को हिलाया।
''हाँ...हाँ।'' धीरज ने चौंककर कंडक्टर की तरफ़ देखा।
''लड़की घूरने से फ़ुर्सत मिल गई हो तो बाबूगढ़ का
टिकट और ये
बचे हुए २२ रुपये भी ले लो।''
कंडक्टर की
बात सुन पूरी बस मे ठहाका गूँज गया। खिड़की वाली लड़की ने बिना
नज़र हटाये ही एक तीखी मुसकान दी जिसे देख धीरज झेंप गया और
टिकट व पैसे ले चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया। कंडक्टर के
सरेआम मज़ाक से धीरज थोड़ा असहज महसूस कर रहा था।
इस दो कौड़ी
के कंडक्टर ने पूरी बस के सामने मेरी इज़्ज़त दो कौड़ी कर दी।
ये लड़की भी मेरे बारे में जाने क्या सोच रही होगी। गुस्से में
लग रही है। गुस्सा होती है तो हो, मेरी बला से। लड़की को बस
घूर ही तो रहा था, काई ऐसी-वैसी हरकत तो नहीं की?
लड़की अभी भी
खिड़की के बाहर ही देख रही थी। धीरज ने खुद को सँभाला, थोड़ी
देर इधर-उधर देखने का नाटक किया और फिर अपना ध्यान खिड़की के
शीशे में दिख रहे लड़की के प्रतिबिंब पर टिका दिया।
छठी-सातवीं तक पढ़ी होगी। बहुत समझो तो हाईस्कूल। सेकंड
डिवीज़न, आर्ट साइड। लड़की सीधी है पर पटाई जाए तो पट सकती है।
बेटा धीरज ट्राई तो कर एक बार। मगर कैसे। मेरे फर्स्ट इंप्रैशन
की तो इस कंडक्टर के बच्चे ने पहले ही वाट लगा दी। कोई नहीं।
हिम्मते मर्दा मददे खुदा। अबे तू एम.बी.ए. है। बातों-बातों में बता दे फिर तो
पटेगी ही। पर बात कैसे शुरू करू। हाँ...फोन माँगता हूँ इससे।
कह देता हूँ मेरे मोबाइल की बैट्री डिस्चार्ज हो गई है, एक
अर्जेंट फोन करना है। लेकिन मना कर दिया तो? तब की तब देखी
जाएगी। एक बार माँग तो सही।
''इक्सक्यूज़ मी मिस, कैन आई यूज़ योर फोन प्लीज़?''
'धीरे बोल धीरज धीरे।'
उसने यह यह अंग्रेज़ी वाक्य संभल संभलक कर दुबारा दोहराया।
पर अंग्रेज़ी? अंग्रेज़ी समझ में आएगी इसे?
ना हिंदी में बोलना
पड़ेगा।
''क्षमा करें मिस...मिस की हिंदी क्या होती है – बहिन जी। पागल
हो गया है क्या। मिस ही बोल।''
''क्षमा करें मिस, क्या मैं आपका फोन का प्रयोग कर सकता हूँ?''
''बक साला। ऐसा लग रहा है जैसे दूरदर्शन पर सात बजे के हिंदी
समाचार आ रहे हैं। अबे इतनी शुद्ध हिंदी क्यों बोल रहा है।''
''सीधा बोल – अपना फोन देना एक मिनट, एक ज़रूरी फोन करना है।
हाँ ये हुई ना मर्दों वाली बात।'' |