"पर अवस्थी, यहाँ यह श्रेष्ठ
का एक्सीडेंट...?" उसने फिर बात शुरू की थी।
"जो ईश्वर को मंजूर! भला उसके आगे कोई ठहरा है क्या?" मैंने
दोनों हाथ पहले ऊपर उठाते और फिर नीचे गिराते हुए कहा।
"मैंने सुना है, शाम को मिस्टर बतरा आने वाले हैं?" मेहता ने
मुझसे जानकारी चाही।
"हाँ, वह मिस्टर श्रेष्ठ के यहाँ जाकर मुआवज़े का चेक देने
वाले हैं। सारा स्टाफ़ साथ में जाएगा। और सुन, श्रेष्ठ के
साथ-साथ उसके ड्राइवर शेरसिंह का भी तो देहांत हुआ है।" मैंने
मेहता को अपने विचार बताने की शृंखला में एक कड़ी बनाते हुए
कहा।
"अच्छा, मुझे नहीं मालूम!" वह थोड़ा आश्चर्य में था।
"तुझे नहीं मालूम?" अब चौंकने की बारी मेरी थी। "तेरे विभाग के
दो कर्मचारी, एक एक्सीडेंट में, एक ही गाड़ी में, एक ही दिन मर
गए। उनका दाह-संस्कार एक ही दिन हुआ और तू कहता है, तुझे नहीं
मालूम! आश्चर्य!! घोर आश्चर्य!!!" मैंने लगभग चिल्लाते हुए
कहा।
"लेकिन, मेरा इसमें क्या कुसूर है? मेरे विभाग में सभी श्रेष्ठ
की बात कर रहे हैं। शेरसिंह की मृत्यु की बात पहली बार मैं
तेरे मुँह से ही सुन रहा हूँ।"
मैं स्तब्ध था और सोचने लगा
था। मिस्टर श्रेष्ठ मुख्य महाप्रबंधक मिस्टर बतरा के रिश्ते
में थे, उनकी बात सब कर रहे हैं? बेचारे शेरसिंह की मृत्यु पर
उसके अपने विभाग में कोई चर्चा नहीं। क्या मूल्य इतने गिर गए
हैं? तीन लाख रुपए का चैक मिस्टर श्रेष्ठ के घर पहुँचाने सारा
स्टाफ जाएगा और शेरसिंह के गरीब और बिलखते परिवार को मुआवज़ा
दिए जाने की चर्चा तक नहीं? क्रय विभाग में साठ के स्टाफ़ में
से किसी एक ने भी शेरसिंह का ज़िक्र तक नहीं किया? क्या सब के
सब पत्थर-दिल हो गए हैं, क्या उनकी संवेदनाएँ लुप्त हो गई हैं?
"अवस्थी, अवस्थी! क्या सोच रहा है यार? यह चाय ठंडी हो रही
है।" मेहता ने मेरे आगे प्याली खिसकाते हुए कहा।
मैंने चाय का कप हाथ में लिया
और धीरे-धीरे सिप करने लगा। चाय पीते-पीते मैंने मेहता को
शेरसिंह के परिवार के बारे में, उसकी आर्थिक स्थिति के बारे
में बताया, सुबह उसके भाई रामसिंह की जो हालत देखी थी, उसके
बारे में बताया, उसके आँसूओं के बारे में बताया।
"हमें कुछ करना चाहिए।" मैंने मेहता से कहा, "जिस आदमी के घर
में रोटी के लाले पड़ रहे हों, उसकी तरफ़ किसी का ख़याल नहीं।
मिस्टर श्रेष्ठ के यहाँ मुआवज़ा इतनी जल्दी, जहाँ पर सब-कुछ है
और गरीब की गरीबी का ध्यान किसी को नहीं। कोई उनकी आवश्यकताओं
को महसूस नहीं कर रहा।"
हम दोनों ने सलाह-मशविरा किया
और फिर मेहता ने अपने विभाग में जाकर एक प्रार्थना-पत्र निकाला
जिसमें मिस्टर श्रेष्ठ और ड्राइवर शेरसिंह के परिवार की आर्थिक
मदद करने के लिए अपील की गई। चूँकि मेहता यूनियन का लीडर था,
उसकी यह अपील काम कर गई। शाम के चार बजे तक उसने पूरी कंपनी से
पचास हज़ार रुपए एकत्र कर लिए।
शाम को सभी लोग मिस्टर
श्रेष्ठ के यहाँ इकट्ठा हुए। मुख्य महाप्रबंधक ने जब तीन लाख
रुपए का चेक उनकी विधवा को दे दिया तब मेहता और मैं दोनों
मिलकर मिस्टर बतरा के पास गए और उन्हें पच्चीस हज़ार रुपए नगद
देकर कहा, "यह हम सब कर्मचारियों की ओर से मिस्टर श्रेष्ठ के
परिवार के लिए दे दीजिए।" साथ ही हमने उन्हें शेरसिंह की
मृत्यु के बारे में याद दिलाया और प्रार्थना की कि आप स्वयं
चलकर शेरसिंह की पत्नी को यह शेष पच्चीस हज़ार रुपए दीजिए और
मुआवज़ा भी अलग से।
मिस्टर बतरा के लिए चौंकना
लाजिमी था, फिर भी उन्होंने हमारे इस कार्य की भूरी-भूरी
प्रशंसा की और कुछ देर बाद ही वह हम लोगों के साथ शेरसिंह के
घर भी आ पहुँचे। रास्ते में वह अपने निजी सचिव से भी इस बारे
में बातचीत करते रहे। क्यों कि शेरसिंह का घर और कोई नहीं जानता
था इसलिए मैं उनकी गाड़ी में ही बैठ गया था।
शेरसिंह की विधवा को उन्होंने
कर्मचारियों द्वारा एकत्रित की गई राशि थमाते हुए कहा, "मैं
अपनी तरफ़ से भी तीन हज़ार रुपए इस मदद में और जोड़ रहा हूँ।
मुआवज़े की राशि का चेक भी इन्हें कल शाम तक ज़रूर मिल जाएगा
जो एक लाख रुपए का होगा।" साथ ही उन्होंने शेरसिंह के छोटे भाई
रामसिंह को बतौर लिपिक कंपनी में नियुक्त करने की सूचना दी।
हम सब गद्गद थे। आँखों में
खुशी के आँसू थे। मेहता का हाथ मैंने कसकर पकड़ लिया था।
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