मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


धुआँ उठने लगा। माँ बुरी तरह खाँसने लगीं। मगर वह चुप रहा। चुप रहने की उसने एक तरह की आदत ही बना ली है। उसने बस प्लेट में भात लिया, उसी में दाल। एक अलग कटोरी में सब्ज़ी।

सिरहाने रखी सुराही से उसने गिलास में पानी भरा। एक कपड़े का हरा-सा चरखाना टुकड़ा, जिसे पहले माँ मेज पर बिछाती थीं, उनकी गोद में डाल दिया। कपड़ा जगह-जगह से फट गया था। वह जानता है, माँ को अब इस कपड़े के बदले एक नया तौलिया चाहिए... वह चुपचाप कनखा मुड़े कटोरे को गोद में रखकर हाथ धुलाता रहा। फिर कटोरे का पानी खिड़की से पिछवाड़े फेंक देता है। पीछे, दीवार से सटकर नाली है। जब-तब बदबू उठा करती है।

जब भी माँ को सरदी हो जाती है, वे कड़वा तेल गरम कर नाक में डालने को कहतीं, तो वह टाल जाता है। ऐसा कर, उसे भीतर-ही-भीतर बहुत दुःख होता है। दुःख तो मन की एक भावना है, जिसे मन से हटाकर या मन में रखकर किया जा सकता है...मगर बदबू तो यथार्थ है, जिसकी वजह से सोया नहीं जा सकता। एक कौर खाकर माँ कहती है, ''चावल बहुत कड़े हैं।''
इस बार भी वह चुप रहता है। अभी कल ही उसने नौकरानी से कहा था, ''चावल कड़े हो जाते हैं। ऐसा करो कि मायजी के लिए दो-चार दाने अलग से सिझा दो...बेचारी से निगला नहीं जाता।''

दाई ने हाथ की थाली पटक दी, ''अब तो हमारे हाथ में ही नुक्स आ गया है। अरे, मुँह में एक भी दाँत हो तब न खाए... ऐसा ही है तो कोई अलग से क्यों नहीं रख लेते?''
सड़ाक! चाबुक-सी लगती है। मगर वह फिर भी चुप रहता है। वह जानता है, यह नौकरानी नहीं, उसकी भाभी बोल रही हैं। माँ कहती हैं, ''बेटा निगला नहीं जाता।'' वह चावल में थोड़ा पानी डाल देता है, ''ज़रा रुक जाइए। अभी बस अपने-आप मुलायम हो जाएगा, फिर खा लीजिएगा।''

माँ वैसे ही प्लेट पर हाथ रखे चावल के मुलायम होने का इंतज़ार करती हैं। वह माँ की गीली आँखों के दर्द को महसूस करता है... औरत की ज़िंदगी केवल प्रतीक्षा की लंबी-सी डोर है, जो जिस्म और रूह पर लपेट दी गई है। एक फेरा खुलता है, डोली की प्रतीक्षा। दूसरा, बच्चे का इंतज़ार। फिर बच्चे के बड़े होने की प्रतीक्षा। फिर, एक उम्मीद कि बेटा बड़ा होकर बुढ़ापे में सहारा देगा... बहू सेवा करेगी। इंतज़ार सिर्फ़ इंतज़ार। उसकी आँखों में पीतल का नया गिलास उभरता है और धीरे-धीरे रंग उड़े एल्युमीनियम के गिलास में बदल जाता है।
वह अब पानी में मिले चावल को मसलता है।
''खा लीजिए नं।''

माँ खिचड़ी की तरह चावलों को सुरकने लगती है।
''सब्ज़ी?''
''न, झाल है, बहुत तीता...।''
''तो फिर सबके साथ क्यों बनवाने को कह दिया, भले ही आपकी अलग बनती थी।''
''उसमें तो और भी मिरची... बहुत तीता।'' कहते-कहते माँ की आवाज़ काँप जाती है।

वह जानता है, अपाहिज अंग को कोई पसंद नहीं करता, केवल लोकलाज के भय से ढोया जाता है। वह भी क्या करे... अधकच्चे चावलों के कारण माँ के पेट में बराबर दर्द रहता है। एक बार माँ ने दबी ज़बान से कहा भी, तो भैया का उत्तर मिला, ''खाना तो हम माँ-बेटे को देते ही हैं, अब दवा भी हमीं लाएँ? जितना दो, उतना ही थोड़ा पड़ता है। आखिर यह भी तो आप का बेटा है, दवा क्यों नहीं लाता? ऐसे नाम से फ़ायदा?''

अब वह भैया से क्या कहे। क्या वे नहीं जानते कि रचनाओं पर उसे क्या पारिश्रमिक मिलता है और जो मिलता है वह तो माँ पर ही खर्च हो जाता है... आज खाँसी तो कल जोड़ में दर्द, परसों छाती में... ऐसे नाम से फ़ायदा? कोई तीखी कीलवाले लट्टू की तरह सवाल उसके दिमाग में बस एक जगह ही चक्कर काटता रहता है। सूराख बनता जाता है...
जब पहली कहानी छपी थी तो माँ कितना खुश हुई थीं। पत्रिका की दो प्रतियाँ अलग से ख़रीदकर, एक उन्होंने दूर-दराज रहनेवाली बेटी को भेज दी थी और एक वे खुद पढ़ता... बार-बार पिताजी के चित्र को देखतीं। वह सोचता, ऐसे नाम से फ़ायदा? फिर धीरे-धीरे, उसकी रचनाएँ लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगीं और जाने-अनजाने में वह लेखक बन गया। ढेर सारे पाठकों के खत आने लगे। लेकिन जब वह उसका पहला उपन्यास धारावाहिक रूप से छपना शुरू हुआ तो पहली किश्त के बाद ही उसे एक लड़की का पत्र मिला... उसे लगा, किसी ने उसकी मुठ्ठी में खत नहीं, एक टिमटिमाता हुआ जुगनू दे दिया है और वह बार-बार थोड़ी-सी मुट्ठी खोलकर, फिर बंद कर लेता है..कहीं यह रोशनी उड़ न जाए।

घर में हर किसी ने उसकी प्रशंसा की। भैया ने खुद ही कहा कि परिवार का खूब नाम हो रहा है इन दिनों... मगर तीखी कीलवाला लट्टू फिर घूम गया- ऐसे नाम से फ़ायदा?
वह देखता है, माँ बहुत मुश्किल से घिसट कर पेशाब करने जा रही है। उसकी इच्छा होती है, मदद कर दे... न, अब उसे शादी कर लेनी चाहिए। तभी भाभी की जैसी आवाज़ उभरती है- ''लड़की काठ से ब्याह दे, मगर लेखक-वेखक से...।''
- और वह अब भी घिसटती हुई माँ को देखता है। एक पल को लगता है, मुट्ठी का जुगनू बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा है, वह लड़की को भुला देना चाहता है। माँ के लिए दवा नहीं ला पा रहा है, कई दिनों से मनीऑर्डर का इंतज़ार है... फिर बहू। वह अपनी मूर्खता पर खुद ही हँसता है।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।