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''और'', मैंने जोड़ा, ''और भी बहुत-सी। आपकी सभी फोटोओं के संयोजन में कौशल भी है और भावातिरेक भी... आपको फोटोग्राफी छोड़नी नहीं चाहिए थी। जारी रखनी चाहिए थी-''
''जारी रखने के लिए समय बहुत चाहिए था, ''बाबू जी फिर रोआँसे हो चले, ''रुपया बहुत चाहिए था। विद्यावती की बीमारी क्या शुरू हुई मानो ज़िंदगी में विराम लग गया...''
''आप बाबू जी को समझाइए, बुआ,'' रेखा असहज हो उठी, ''बात-बात पर बड़ी मम्मी को याद कर फूट पड़ते हैं-''
''और माँ की डायरियाँ?'' रेखा को मैंने फिर जा घेरा, ''वे कहाँ हैं?''

नए साल के चढ़ने से पहले बाबू जी के पास जब भी डायरियाँ आतीं, पहली डायरी हमेशा माँ के लिए आरक्षित रहा करती। घरेलू हिसाब के साथ-साथ माँ अपनी डायरी में हर दिन की अपनी टोह-टटोल और टीका-टिप्पणी भी जोड़ दिया करती। माँ केवल बारहवीं पास थीं, लेकिन संक्षेप में और संकेत में बात कहनी उन्हें खूब आती थी। लोगों का उल्लेख करते समय नाम न लेकर उनके नाम के केवल पहले अक्षर का प्रयोग में लाती। यदि किसी की निंदा-आलोचना करतीं तो फिर उस पर लकीरें इतनी होशियार से लगाती कि लाख चाहने पर भी कोई यह न समझ सकता किस के बारे में क्या बात लिखी गई है? जिस दिन वे बीमार होतीं वे बेशक डायरी न लिखतीं लेकिन चिन्हित उस दिन की तिथि का भाग रिक्त छोड़ देती। उनके अंतिम वर्षों की वृहत-सी तिथियाँ खाली रह गईं पूरी-पूरी शून्य।
''ममा अब नहा चुकी होंगी, ''असमंजस की स्थिति में भाभी का सहारा लेने में रेखा दक्ष रही, ''मैं ममा से पूछती हूँ। रेडियो वाली मेज़ की दराजों से सामान उन्हीं ने निकाला था...''
'' तुम कुछ मत पूछो, '' रेखा के जाने पर बाबू जी ने मुझसे कहा, ''वह सब बीत गया है...''
भाभी आते ही मुझसे लिपट कर रोने लगी, ''हाय, हमारी मम्मी...''

''रेडियो वाली मेज़ यहाँ नहीं है,'' मुझे भावुक बनाने का भाभी का प्रयास मैंने निष्फल कर देना चाहा, हालाँकि मैं जानती थी उसे घेरना मुश्किल था। अपने से किए गए सवाल को या तो वह एक घुसपैठ के रूप में लिया करती जिसका जवाब आक्रामक रखना उसे ज़रूरी लगता था या फिर उसे उस दुविधा की मानिंद लेती जिसके मायावर्ग से बच निकलने का पहले तो रास्ता ढूँढ़ने की कोशिश करती और जब सामने रास्ता न सूझता तो उसके बराबर एक समकोण आयताकार खड़ा करने में लग जाती।
''आपके भाई ने कहा उस मेज़ के यहाँ रहने से यह कमरा ठसाठस भरा हुआ लगता है। कमरे में कुछ जगह तो खाली दिखाई देनी ही चाहिए-''
''और माँ की डायरियाँ?'' मैंने फिर पूछा, ''वे कहाँ हैं?''
''वे सब मैंने रद्दी में बेच डालीं। अब वे किस काम की थीं? पहली वालियों में नून-तेल का हिसाब लिखा था और पिछली वालियों में टिकिया-सुई का...''
''तुम नहा क्यों नहीं लेती?''  बाबू जी ने मेरी ओर देखा, ''बाथरूम अब खाली है-''
''हाँ जीजी,'' भाभी ने कहा, ''आप नहा लीजिए अभी। फ्रेश होकर आप आइए। जब तक मैं बाबू जी को नाश्ता करा दूँ। उनका दूध और कार्नफ्लेक्स ज्यों का त्यों रखा है। आपके आने की खुशी में अपना नाश्ता वे टालते ही चले गए हैं। फिर आपके लिए मुझे कढ़ी बनानी है जिसके लिए पिछले तीन दिन से मैं दही जमा कर सूख रही थी, दही खट्टा कर रही थी...''

अपने सूटकेस से अपने ताज़ा कपड़े निकाले बिना ही मैं बाथरूम की ओर निकल पड़ी।
मुझे अभी रोना था।
घोर रोना था।
अत्यधिक रोना था।

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६ अक्तूबर २००८

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