उधर मुंबई में रहते हुए भी वहाँ
के कैंसर इंस्टीट्यूट में उनका उपचार मैं टाल गई थी। अपने भेद
ढके के ढके रखने हेतु।
''नहीं।'' मैं विह्वल हुई तो बाबू जी फौरन संभल लिए, अब कोई
गुंजाइश न बची थी।''
अपने हाथ उन्होंने अपनी आँखों से अलग कर लिए।
''ममा नहा रही है।'' पानी की ट्रे के साथ तेरह वर्षीय मेरी
बड़ी भतीजी, रेखा, कमरे में आ खड़ी हुई, ''अभी आ जाएँगी।''
''रेडियो वाली मेज़ कहाँ है?'' ट्रे के लिए दूसरी छोटी मेज़ पर
जगह बना रही रेखा से मैंने पूछा।
कहने को तो वह मेज़ 'रेडियो वाली
मेज़' रही, लेकिन रेडियो केवल उसके बीच वाला भाग ही घेरा करता।
बाकी का उसका तल कभी बाबू जी के खाने की मेज़ बन जाता तो कभी
माँ की डायरी लिखने का पट्ट।
''वह मैं अपने कमरे में ले गई हूँ।''
रेखा हँसने लगी, ''बड़ी मम्मी के बाद बाबू जी ने उसे एक दिन भी
न चलाया होगा-''
''तुम रेडियो की बात कर रही हो?''
मैंने पूछा।
रेडियो की शौकिन माँ का वह
रेडियो चालीस साल पुराना था। समय-समय पर उसके अंदर के पुरज़े
ज़रूर बदलते चले गए थे, लेकिन उसके बाहरी स्वरूप की आन-बान
ज्यों की त्यों बनी रही थी। नियमित रूप से रोज़ अखबार पढ़ने
वाली माँ अपने आखिरी दिनों में जब बहुत शिथिल हो गई थी तो उसी
रेडियो ने उनका जी बहलाए रखा था। यों भी टेलिविजन उधर भाई के
कमरे में रहता था और किसी खास प्रोग्राम के समय उधर बुलाए जाने
पर केवल बाबू जी ही जाते थे। माँ नहीं। माँ ने उधर जाना तब से
छोड़ रखा था जब इसी रेखा ने एक दिन अपनी नानी के सामने माँ से
कहा था,
''यह हमारा कमरा है। आप यहाँ क्यों आती हो?''
''हाँ, बुआ, '' रेखा हँसी, ''इधर रेडियो पर खूब अच्छे
प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं...''
और रेडियो वाली मेज़ की दराज़ों का सामान?'' रेखा को लेखा देने
के लिए मैंने ज़िम्मेवार ठहराना चाहा, ''माँ की वे डायरियाँ?
बाबू जी की खींची हुईं वे तमाम फोटोएँ?''
रेडियो वाली उस मेज़ की दायीं
ओर दो दराज़ें रहीं। ऊपर वाली छोटी, जहाँ माँ अपनी दवाइयाँ और
पर्चियाँ रखा करतीं और नीचे वाली मेज़ की बाकी ऊँचाई के समांतर
जिस में माँ का निजी सामान रखा रहता।
''बाबू जी वाली फोटोएँ तो हम तीनों ने आपस में बाँट ली हैं।''
रेखा फिर हँस दी, ''पेड़ों वाली और फलों वाली कक्कू ने ले ली
है और घर वालों की मैंने। बाकी के साथ छोटी खेला करती है-
कक्कू ग्यारह साल का है और छोटी पाँच की।
''तुम्हें कोई देखनी थीं?'' बाबू जी ने मेरी ओर देखा, ''अपने
साथ ले जानी थीं?''
''हाँ,'' मैंने कहा, ''पहला इनाम जीतने वाली वह सन सड़सठ की तो
ज़रूर ही...''
फोटोग्राफी कि दुनिया में
अव्यवसायी होते हुए भी बाबू जी बहुत अच्छी फोटो खींचते रहे थे।
राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताओं में उनकी फोटोएँ चुनी जाती
रही थीं। सन सड़सठ की वह फोटो मेरी और भाई के बचपन की थी। एक
बूढ़े बरगद के अवतल तने की धसकन में दस महीने का भाई बैठा
मुस्करा रहा था जब कि चार साल की रही मैं उसे अपनी बाँह की टेक
दिए-दिए घबराए खड़ी थी। फोटो खींचते समय बाबू जी की कल्पना में
कुछ और ही रहा था। फोटो में पहले केवल तने में बैठे भाई को ही
उन्होंने संकेंद्रित रखना चाहा था, लेकिन जैसे ही भाई को उस
तने की धसकन में बिठाया गया था मैंने वेगपूर्वक आगे बढ़ कर उसे
थाम लिया था। इस डर से कि वह गिर जाएगा। काली और श्वेत उस फोटो
में हम दोनों बहन-भाई के चेहरों पर खिली हुई धूप की रोशनी
स्पष्ट देखी जा सकती है। सबसे पहले बाबू जी ही से मैंने सुना
था 'फोटोग्राफी' एक यूनानी शब्द है तथा इसका मतलब रोशनी से
लिखना होता है। राइटिंग विद लाइट। |