|  मुन्नालाल ने अगला सवाल किया, 
                    'पर भइया इन पारटी वालन नै का हो गिया? इनै बदनामी-वदनामी का 
                    डर ना है।' मंगल ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, 'बदनामी! अरे भइया 
                    बदनामी भी सुसरी गरीबन के साथ चिपकी है गरीबन के साथ। अमीरन कै 
                    लिया बदनामी कुछ ना हो वै है, कुछ ना हो वै। अर, यें पारटी! सब 
                    सुसरी दिखावै की हैं। असल मैं तो ये कोठे की बड़ी बाई है गई है, 
                    बड़ी बाई। यें भी पैसे अर लट्ठ से मज़बूत लोगों को फँसावै हैं, 
                    अर फिर छिनाल राजनीति कू उसके सामने नचानै लगै। ...या ही बात 
                    परमा के साथ हुई। मंत्री का सा रुतबा है उसका, मंत्री का सा, 
                    अर अगले चुनाव में तो असल मंत्री बनने सै उसे कोई ना रोक सकै।'
 परमा से परमजीत सिंह और 
                    परमजीत सिंह से पीजे भइया बनने की कहानी सुन पीछे की तरफ़ 
                    दौड़ते पेड, बिजली के खंभे, मकान-दुकान मुन्नालाल को थमते नज़र 
                    आने लगे। कुछ ही देर बाद चाय-समोसे, पान-बीड़ी और मूंगफली बेचने 
                    वालों का शोर व कुलियों का डिब्बे के अंदर आने का आभास हुआ। 
                    रेल अब उसके शहर के प्लेटफार्म आ खड़ी हुई थी। दोनों दोस्त 
                    अपना-अपना सामान उठाकर डिब्बे से उतर प्लेटफार्म पर आ खड़े हुए।
                     प्लेटफार्म से बाहर मंगल अपने 
                    गाँव की बस की तरफ़ बढ़ा और मुन्नालाल की आँखें गाँव के 
                    पुस्तैनी इक्के वाले चाचा झुम्मन को तलाशने लगी। बस की तरफ़ 
                    जाते-जाते मंगल ने एक बार फिर मुन्नालाल को तसल्ली दी, 'आराम 
                    से चला जईओ, अब पहले जैसी बात ना रई।'मुन्नालाल की आँखे झुम्मन को तलाश नहीं पाई। अलबत्ता पेड़ की 
                    छाँव मे छकड़ा-सा एक इक्का, इक्के के पास थूथड़ी में घास फँसाए 
                    मरियल टट्टू और भविष्य के प्रति चिंतित-सी एक मानव काया उसे 
                    ज़रूर दिखलाई दी। काया की ठोड़ी व नाक एक दूसरे को छूने की 
                    चेष्टा में क्षितिज का सा दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। अरावली 
                    पर्वतमाला-सी चेहरे की हड्डियों पर झाड़ से उगी बेतरतीब दाढ़ी 
                    और आँखों के नाम पर नाक दाएँ-बाएँ दो गड्डें। कुल मिलाकर लग 
                    रहा था कि किसी सुगढ़ चित्रकार ने फुर्सत में अपनी तूलिका से 
                    दृश्य उकेरा है।
 झुम्मन की तलाश में मुन्नालाल 
                    के कदम उसी तरफ़ बढ़ गए और काया की और मुखातिब हो उसने कहा, 
                    'महादेव चलोगे?'उसने बस की तरफ़ संकेत कर कहा, 'वा जावेगी।' काया के मुँह से 
                    निकले शब्द मुन्नालाल के कान के परदों से टकराए और प्रतिध्वनि 
                    के रूप में उसके मुँह से निकला, 'अरे...झुम्मन चाचा! काया के 
                    मुँह से निकला - पहचाना नी बाबू।'
 'नहीं, अरे! मैं मुन्ना, मुन्नालाल।'
 प्रतिध्वनि इस बार ओठों के ज़रिए नहीं आँख के रास्ते ध्वनित 
                    हुई और काया की आँख से निकली पानी की दो बूँद गाल के गड्डें की 
                    ओर लुढ़क गई।
 झुम्मन के परिवार का इतिहास 
                    जिसे जितना याद है, बस उसने उसके पुरखों को गाँव से शहर और शहर 
                    से गाँव की तरफ़ इक्का ही हाँकते देखा सुना है। इसलिए झुम्मन 
                    गाँव का पुस्तैनी तांगे वाला है। वक्त बदला गाँव-शहर के बीच बस 
                    चलने लगी, मगर झुम्मन ने न तो पुस्तैनी यह धंधा बदला और न ही 
                    धंधे के नियम-धरम। आज भी वह गाँव की छोरी-छपारियों, 
                    लारे-लवारों से भाड़ा लेने में परहेज़ करता है। मगर इस छूट में 
                    बड़ी-बूढ़िया कभी शामिल नहीं रही।  कभी कोई अधेड़ उम्र की महिला 
                    मज़ाक में कहती भी, 'मैं भी तो इस गाँव की बहू हूँ, तेरी भाभी 
                    लगूँ हूँ, मुझ से पैसे-धेल्ले क्यों?' झुम्मन जवाब में 
                    रटा-रटाया मुहावरा हवा में फेंकता, 'घोड़ा घास से यारी करेगा तो 
                    खाएगा का! भाभी का कालजा।'भाभी हँस देती और गाँठ से भाड़ा निकाल उसकी हथेली पर रख देती।
 घोड़ा तांगा जोत झुम्मन जिस किसी के भी खेत खलियान या घर-बाहर 
                    की तरफ़ निकल जाता घोड़े के लिए हफ्ते भर की घास और बाल-बच्चों 
                    के लिए खाने-पीने का जुगाड़ कर लाता। उस तरह उसने अपना परिवार 
                    भी पाला और कच्चा-पक्का एक ओसारा भी डाल लिया। मगर आज वक्त के 
                    साथ-साथ सभी कुछ बदल गया है। बदला नहीं तो केवल झुम्मन का 
                    स्वभाव।
 बदले इस दौर में मुन्ना और 
                    झुम्मन आज फिर आमने-सामने खड़े एक दूसरे को निहार रहे थे। मानो 
                    पहचान पर मोहर लगा रहे हों। दोनों के बीच शब्द हीन वार्ता का दौर चला। झुम्मन ने टट्टू-इक्का 
                    कसा और मुन्नालाल उस पर बैठ गया। शब्दहीन इस वार्ता में अपने 
                    आपको शरीक कर टट्टू ने भी गाँव की तरफ़ छकड़ा खींचना शुरू कर 
                    दिया।
 झुम्मन ने कटोरों में धँसी आँखें मुन्नालाल की आँखों में डाली 
                    और उसकी आँखों में तैरते सवाल पढ़ने लगा। फिर मुन्नालाल को 
                    मौका दिए बिना निःशब्दता भंग करते हुए उसने बस इतना कहा- 'अब 
                    पहले जैसा बखत ना रहा।'
 झुम्मन के गूढ़ इस वाक्य का अर्थ समझने में मुन्नालाल ने भी 
                    कोई गलती नहीं की और इस बार उसने आँखों की भाषा से नहीं शब्दों 
                    के माध्यम से सवाल किया - 'अर दो बीघे वाला खेत?' झुम्मन ने 
                    ठोड़ी और नाक के बीच बने क्षितिज को ज़मीन व आसमान के क्षितिज 
                    से मिलाते हुए कहा, पटवारी कहता था, सरकार को ज़रूरत है सो 
                    उसने काग़ज़ों पर अंगूठा लगवा लिया। तेरी माँ से भी लगवाया 
                    था।'
 क्षितिज ८० डिग्री अंश से ९० डिग्री पर लाते हुए झुम्मन बोला, 
                    'उस ज़मीन पर अब पीजे भइया का फारम है।'
 मुन्नालाल के मुँह से निकला पीजे भइया...! शब्दों की पूरी 
                    बारात अभी मुँह से बाहर निकली भी न थी कि पुलिस का डंडा हवा 
                    में लहराया। लड़खड़ाते टट्टूं के कदमों पर ब्रेक लग गए।
 उधर टट्टूं के कदमों पर तंत्र 
                    के ब्रेक लगे और उधर पुलिस और परमा का अक्स मुन्ना की खोपड़ी 
                    में एक साथ टकराए। जिस भय से वह कुछ देर के लिए मुक्त हुआ था, पुन: उसके दिलो-दिमाग 
                    पर काबिज हो गया। भयग्रस्त मुन्नालाल की खोपड़ी चकराने लगी। उसे 
                    लगा कि सारे बदन का रक्त उसकी खोपड़ी में चढ़ गया है और इक्के 
                    को पहिए खड़ंजे से उठकर उसके दिमाग में चक्कर काटने लगे।
 थकी-थकी-सी दोनों आँखें उसने गाँव की तरफ़ दौड़ाई तो चारों तरफ़ 
                    पुलिस ही पुलिस नज़र आई। उसने झुम्मन से पूछा, 'चाचा पुलिस!'
 झुम्मन बोला- 'पीजे, भइया आया होगा।'
 पीजे और पुलिस का यह समीकरण 
                    मुन्नालाल की समझ नहीं आया। बिना कोई प्रयास किए उसके मुँह से 
                    निकला, मगर माँ ने तो लिखा था परमा अब बड़ा आदमी हो गया। मंगल 
                    भी कहता था कि वह नेता बन गया। ज़रूर दोनों ने मुझे बहकाया है। 
                    परमा गाँव में है और पुलिस भी, ज़रूर उसे गिरफ्तार करने आई 
                    होगी। मंगल के साथ बात कर मुन्नालाल अतीत की जिन कंदराओं से निकल कर 
                    वर्तमान के धरातल पर आया था एक ही क्षण में पुन: उन्हीं 
                    कंदराओं में जा गिरा।
 वही दस वर्ष पुराना दृश्य। 
                    चारों तरफ़ पुलिस से घिरा महादेव गाँव। परमा को पीटता दरोगा 
                    फतेह सिंह और मुन्नालाल को गाली देता परमा। माँ की आँखों से 
                    झरते खारे पानी के झरने और काँपती जुबान से निकलते शब्द, 
                    मुन्ना जान है तो जहान है। तू गाँव छोड़ कर चला जा मेरी फिक्र 
                    मत कर। तू ज़िंदा रहेगा तो जैसे-जैसे मेरा भी बखत कट ही 
                    जाएगा?' इक्का रुकते ही कड़कती आवाज़ में सिपाही ने पूछा, 'कहाँ जारा है 
                    बे?'
 मुन्नालाल ने हकलाते हुए जवाब दिया, 'घर जारा हूँ। माँ बीमार 
                    है।'
 सिपाही ने कहा, 'जलदी खिसक साले। साब आ गए तो ऐसी की तैसी कर 
                    देगा।'
 झुम्मन ने टट्टूं की पीठ पर चाबुक चलाया। टट्टूं ने पाँव तेज़ 
                    चलाने की कोशिश की और कुछ ही देर में इक्का मुन्नालाल के घर जा 
                    पहुँचा।
 इक्के से उतर मुन्नालाल ने घर 
                    में प्रवेश किया। ओसारे के कोने में अधमरी-सी उसकी माँ 
                    जीर्णशीर्ण खाट पर पड़ी थी। मुन्नालाल ने आवाज़ लगाई- माँ...। 
                    माँ ने अधखुली आँखों से बेटे को निहारा और बेटे ने माँ को। 
                    दोनों की छाती पर वर्षो से रखे पत्थर पिघल आँखों के रास्ते 
                    बहने लगे, निःशब्द। आँखे पौंछता मुन्नालाल माँ की तरफ़ बढ़ा और उसके पैरों पर अपना 
                    सिर रख दिया। उसे लगा कि माँ के सीने पर रखा पत्थर जैसे-जैसे 
                    पिघल रहा है, शरीर वैसे-वैसे ठंडा होता जा रहा है। फौरन उसने 
                    झुम्मन को आवाज़ लगाई, चाचा जल्दी कर, माँ को शहर के 
                    अस्पताल...।
 मुन्नालाल व झुम्मन चाचा ने चारपाई समेत माँ को इक्के में डाला 
                    और टट्टूं फिर से शहर की तरफ़ हाँक दिया। मगर तब तक पीजे आ 
                    चुका था। शहर की तरफ़ जाने वाले खड़ंजे से सटे बाग में उसकी 
                    जनसभा थी। शहर जाने वाले खड़ंजे पर पुलिस व पीजे का भाषण सुनने 
                    वाले काबिज़ हो चुके थे। गाँव की गलियों से निकल कर झुम्मन का 
                    इक्का जैसे ही खड़ंजे के पास पहुँचा, सिपाही का डंडा फिर उसके 
                    आगे आ गया।
 मुन्नालाल सिपाही के सामने 
                    गिडगिड़ाया, 'भइया माँ बीमार है। हस्पताल ले जारा हूँ।' दिक्खे ना है, पीजे भइया का भाषन चलरा है। खत्म हो जागा, जबी 
                    जा पावेगा। चुपचाप खड़ा रै। सिपाही ने मुन्नालाल को डाटा।
 मुन्नालाल ने दांत फिर निपोरे, 'माँ मर जागी, रहम कर भइया।'
 सिपाही को कुछ रहम आया- 'ठीक है ठीक है, सबर कर बड़े साब से पूछ 
                    लूँ।'
 अब सिपाही के साथ बड़ा साब 
                    फत्तेह सिंह उसके पास खड़ा था। फत्तेह सिंह को देख मुन्नालाल ने 
                    राहत की सांस ली। फत्तेह सिंह पुरानी जान पहचान वाला अफ़सर था, 
                    इसलिए उसे लगा कि अब शहर जाने की इजाज़त मिल जाएगी। मगर हुआ 
                    विपरीत क्यों कि उसे मालूम नहीं था कि तब से अब तक वक्त कई बार 
                    करवटें बदल चुका है। परमा पीजे बन गया है और फत्तेह सिंह दरोगा 
                    से उपकप्तान, वह भी पीजे भइया की कृपा से। फतेह सिंह आज परमा 
                    को गिरफ्तार करने नहीं आया है, बल्कि पीजे की सुरक्षा के लिए 
                    तैनात है। मुन्नालाल को देखते ही फत्तेह सिंह बिजली-सा कड़का- 'क्या बकवास 
                    लगा रखी है बे हरामजादे।'
 विनीत भाव में मुन्नालाल ने फिर दोहराया।
 'माँ बीमार है साब! हस्पताल ले जाना है...!' मुन्नालाल की 
                    विनती खारिज करते हुए फतेह सिंह फिर चिल्लाया, 'अबे ओ तेजपाल! 
                    मार साले के दो डंडे, अर भगा दे। इसके चक्कर में अपनी माँ थोड़ा 
                    ही...।'
 मुन्नालाल ने फिर गिड़गिड़ाने की कोशिश की मगर उससे पहले वह कुछ 
                    बोल पाता फत्तेह सिंह ने इक्के पर डंडा मारते हुए कहा, 'इस लाश 
                    कू हस्पताल ले जाके क्या करेगा? परै हट।'
 हिदायत दे कर फत्तेह सिंह मंच की तरफ़ चला गया और नि:सहाय-सा 
                    खड़ा मुन्नालाल माँ को निहारने लगा, मानो उसके आते-जाते सांस 
                    गिन रहा हो।
 मुन्नालाल की माँ मौत के साथ संघर्ष कर रही थी। और मंच से 
                    श्वेत वस्त्रधारी पीजे भइया राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ़ 
                    संघर्ष करने का आह्वान कर रहा था। मुन्नालाल के चिंता माँ को 
                    बचाने के लिए थी और पीजे भइया की चिंता राजनीति की गंगा को 
                    प्रदूषण मुक्त करने के लिए।
 जनता को सम्बोधित करते हुए वह 
                    कह रहा था, 'पालटिक्स में जब से गुंडे-बदमाश घुस आए हैं, गंदी 
                    हो गई है। पालटिक्स गंगा की तरह साफ़ सुथरी थी। उसे फिर सुथरी 
                    बनाना है। उसके लिए पालटिक्स से गुंडे-बदमाशों का सफ़ाया करना 
                    पड़ेगा। ऐसा करना ही आप लोगों के हित में है, समाज के हित में 
                    है, इस देश के हित में है। इसलिए आज सभी लोग मेरे साथ मिलकर 
                    संकल्प लें - गंदे लोगों का सफाया कर पालटिक्स की गंगा को 
                    साफ-सुथरा करना पड़ेगा।'पीजे भइया का भाषण अपनी गति से जारी था और मुन्नालाल की माँ के 
                    सीने पर रखा पत्थर अपनी गति से पिघल रहा था। तभी मुन्नालाल को 
                    लगा उसकी बाई आँख एक क्षण के लिए फिर फड़की। फैक्टरी का सायरन 
                    भी रोया। मुन्नालाल घबराया और उसने माँ के माथे पर हाथ रख 
                    दिया।
 माँ के सीने पर रखा पत्थर अब तक पूरी तरह पिघल चुका था। आँख का 
                    फड़कना थम चुका था। चिल्लाते सायरन भी खामोश हो गया था। 
                    मुन्नालाल के कानों में बस अब पीजे के भाषण के अंश गूँज रहे 
                    थे, 'पालटिक्स से गुंडे बदमाशों का सफ़ाया करना।
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