अब्बे साले!
ऐसे ही भरा रहेगा तो एक दिन कुक्कर की तरह फट जागा। मन का
गुब्बार निकालता क्यों नी?'
जवाब में मुन्नालाल ने बस इतना ही कहा, ''कुछ नी, उलटी आँख
लहक री है। भौत दिन से माँ का भी खत नी आया।''
कुंदन को लगा कि मुन्नालाल की हालत आज ऐसी नहीं है कि वह
क्वार्टर तक अकेला पैदल जा सके। इसलिए जाँच से फारिग हो रिक्शा
पकड़ी और मुन्नालाल के साथ क्वार्टर की तरफ़ चल दिया।
रास्ते में फिर कुंदन ने मुन्नालाल का मन टटोल ने की कोशिश की।
''अबे यार! तू गाँव चला क्यों नी जात्ता। मिलिया ना माँ से। कब
तक ऐसे ही सड़ता रहूँगा?'
'गाँव के हालात ठीक नी हैं। माँ के कहने पर ही गाँव छोड़ा था।
हाल जब तलक ठीक ना हो, वह भी नी चाहत्ती कि मैं गाँव आऊँ।'
मुन्नालाल ने संक्षिप्त जवाब दिया।
रिक्शा में सवार कुन्दन सलाह
और सवालों का तंत्र बुन मुन्नालाल का मन टटोलने का असफल प्रयास
करता रहा और वह हाँ-ना, हाँ-ना की जुबान में सवाल टालता रहा।
इसी बीच रिक्शा मुन्नालाल के क्वार्टर के पास जा कर रुक गई।
रिक्शा से उतर मुन्नालाल रिक्शा वाले का भाड़ा देने लगा और उसके
हाथ से चाबी ले कुंदन क्वार्टर खोलने के लिए दरवाज़े की तरफ़
बढ़ गया।
दरवाज़ा खोलते ही कुंदन ऐसे चिल्लाया, मानों किसी बच्चे के हाथ
लॉलीपॉप लग गई हो, 'अब ओ...ए! मुन्ना, देख, खत।'
खत शब्द कानों में पड़ते ही मुन्नालाल के ज़र्द चेहरे पर सुर्ख
लकीरें उभर आई। बाई आँख की अतिरिक्त हरकत पर विराम लग गया।
दिमाग़ में गूँजती सायरन की भयावह चिल्लाहट भी शांत हो गई और
रिक्शा वाले को पैसे देते-देते ही वह भी चिल्लाया, 'माँ का
होगा।'
मुन्नालाल कुंदन की तरफ़ लपका और उसके हाथ से खत ले लिया। खत
देखते ही ज़र्द चेहरे पर खिंची सुर्ख लकीरें अस्थायी भाव की
तरह गायब होने लगी। दरअसल खत का एक कोना कटा था।
बदलते भाव के साथ-साथ उसके
सोच की धारा भी बदली। 'खत माँ का नी, माँ के बारे में है। हाँ,
वह खतों का जवाब इसीलिए नी देरी होगी। बीमार होगी। कहीं
वह...।'
माँ के लिए मन में उतरते-चढ़ते अशुभ विचारों पर उसने ब्रेक
लगाने का प्रयास किया और उलट-पुलट कर खत पढ़ने लगा। आशीर्वचन
के बाद खत की पहली पंक्ति थी, 'मुन्ना अब तू घर आ जा।'
खत की पहली पंक्ति पढ़ते ही उसे लगा कि जैसे दर्द के सागर में
डूबते-डूबते उसे तिनके का सहारा मिल गया और वह फिर किनारे पर आ
लगा। अब उसे पक्का यकीन हो गया था कि खत माँ के बारे में नहीं,
खत माँ का ही है। ज़रूर किसी की शरारत रही होगी अथवा डाकिए की
लापरवाही से खत का कोना फट गया होगा।
हर्ष और विषाद की लहरों में
बहता मुन्नालाल कुंदन को खत पढ़ कर सुनाने लगा। खत में लिखा
था- 'मुन्ना अब तू घर आ जा। कितने दिन है गए, तुझे देक्खे
बिना। तेरे खत अर मनिआडरों से अब पेट ना भरै। लगै है, अब मेरा
आखरी बखत आ गिया। सांस अब जुड़ता ना है। आँखों से भी कम दिक्खे
है। गोड़ भी टूटने लगे। तुझे देक्खूं अर बस इन परानन नै तयाग
दूँ। आखरी बखत तू बस मेरे धोरे हो, अब तो यही इच्छा रह गई है।
बस तू आजा।
अब तो लंबरदार का छोरा परमा
भी गाँव में बस कभी-कभी आवै है। लोग कह वै हैं, अब वह राछस ना
रहा अब बड़ा आदमी हो गिया है। अर गाँव वालों को भी ना सतावै।
तेरी बात भी भूल गिया होगा, राछस। अब डर मन से निकाल दै। मैंने
भी निकाल दिया।'
खत पढ़ कर उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। इस खुशी के बीच उसके
मन में विचार ज्वार-भाटे की तरह उतरने-चढ़ने लगे।
'भगवान का लाख-लाख सुकर है, माँ ठीक-ठाक है। अंतिम इच्छा की
बात तो उसने वैसे ही लिख दी होगी। इतना लंबा बखत जो बीत गिया
है, बेटे को देखे बिना। माँ आखिर माँ है, कलेजे पर पत्थर कब
तलक धरे रहती। माँ बिलकुल ठीक होगी।'
विचारों की इन लहरों के बीच तैरते-तैरते उसने अपने यार कुंदन
से कहा, 'कुंदन! मैं आज रात की रेल पकड़ गाँव जाऊँगा।'
हालात पर गौर करते हुए कुंदन ने भी इस बारे में किसी तरह की
सलाह देना उचित नहीं समझा और उसने भी हामी भर दी। स्टेशन से
रेल छूटने में मात्र-तीन चार घंटे शेष थे, इसलिए कुंदन की मदद
से वह फटाफट तैयार होने लगा।
उसने कपड़े-लत्ते बाँधे और
हाथ-मुँह धो कर बाल ठीक करने के लिए आईना हाथ में उठाया। बालों
में कंघी रोज़ करता था और आईना भी दिन में तीन चार बार देख ही
लेता था। मगर आईना देख कर उसे जैसी अनुभूति आज हुई वैसी पहले
कभी नहीं हुई थी। आईने में अपना चेहरा देख आज वह स्तब्ध था।
शक्लों-सूरत में परिवर्तन आज अचानक नहीं आ गए थे। परिवर्तन
अपनी गति से आए थे। मगर उसने महसूस अब किए थे। क्यों कि दस वर्ष
पूर्व गाँव छोड़ने वाला मुन्ना भी आज उसके पास खड़ा था, इसलिए तब
और आज के मुन्ना में तुलना करना स्वाभाविक था।
गाँव से जब वह विदा हुआ था तब
जवानी सिर पर चढ़कर बोल रही थी। सिर व मूँछ दोनों के बाल स्याह
थे। मगर अब दोनों स्थानों पर सफ़ेदी ने घुसपैठ कर ली थी। चेहरे
की खाल भी फटी झूल-सी लटकने लगी थी। कुल मिलाकर बुढ़ापा दस्तक
देने लगा था। यह कुछ उम्र का तकाज़ा था तो कुछ वक्त के थपेड़ों
का असर।
सूरत आईने में देखते ही उसके मन का भय बोल उठा, 'माँ मुझे
पहचान भी लेगी? नहीं...नहीं, माँ नी पहचान पाएगी। अरे! क्यूं
नी पहचानेगी, माँ तो माँ है, ज़रूर पहचान लेगी। उसका और है भी
कौन, बस अब मैं ही तो हूँ उसका। जवानी, बुढ़ापे की तराजू में
थोड़ा ही तोलती है कोई माँ अपने बेटे को।
माँ तो पहचान ही लेगी। पर
परमा ने पहचान लिया तो...? ना, ना, ना, भईया! माँ ने लिखा है
कि वह राछस ना रहा अब बड़ा आदमी हो गिया है। डर की कोई बात ना
है। पहचान भी लिया तो कुछ ना कहवै। पर कहवैं हैं पुरानी चोट अर
पुरानी दुसमनी कब हरी हो जावै, कुछ ना कै सकै।...कोई बात ना,
भईया, वा भी देखेंगे।'
आते-जाते विचारों के झटकोलों के बीच से मुन्नालाल को निकालते
हुए कुंदन ने याद दिलाए 'अब्बे! कहाँ खो गिया है, रेल भी पकड़नी
है।'
कुंदन की बात सुन मुन्नालाल विचारों की दुनिया से वापस आया।
फटाफट समान उठाया, क्वार्टर की चाबी कुंदन के हाथ में थमाई और
स्टेशन के लिए रिक्शा पकड़ ली।
अपने यार को स्टेशन की तरफ़ जाता देख कुंदन ने कहा, 'मुन्ना,
जाते ही खत डाल देना।'
स्टेशन पहुँचते ही मुन्नालाल
गाँव की तरफ़ जाने वाली रेल में बैठ गया। कुछ ही देर बाद रेल
ने स्टेशन छोड़ दिया। धीरे-धीरे रेल की धड़कन और गति दोनों तेज़
होने लगी। रेल के साथ-साथ मुन्नालाल के दिल की धड़कन और विचार
भी रफ्तार पकड़ने लगे।
मुन्नालाल तंग आ चुका था विचारों के इस सैलाब से, इसलिए ध्यान
बाँटने के लिए खिड़की का शीशा चढ़ाकर वह बाहर का नज़ारा देखने
का प्रयास करने लगा। मगर विचारों की गति पर ब्रेक न लग पाए।
उसका शरीर रेल के साथ-साथ गाँव की तरफ़ दौड़ रहा था और मन
विपरीत दिशा में दौड़ते वृक्षों के साथ अतीत की ओर।
माँ का स्नेह उसे, सुखद
भविष्य के कल्पना लोक में ले जा रहा था और परमा का भय उसे फिर
अतीत की कंदराओं की तरफ़ घसीट रहा था। वह चाहता था कि काबू कर
मन पूरी तरह माँ के चरणों में लगा दे। परमा और उसके भय से
मुक्ति प्राप्त कर ले। मगर ऐसा हो न सका वह चाहकर भी भय मुक्त
नहीं हो पाया।
बंधन और मुक्ति के बीच
अभिमन्यु की तरह अकेला-सा वह सोचने लगा, 'परमा के भय से माँ भी
कहाँ मुक्त हो पाई थी। तभी तो उसने कहा था, 'मुन्ना तू कहीं
दूर निकल जा नहीं तो यह राछस तेरी जान ले लेगा।'
'मैंने तो मना किया था, माँ तुझे इकला कैसे छोड़ दूँ। गाँव कैसे
छोड़ दूँ। मैं तो चला जाऊँगा पर तेरी कौन करेगा।' लाख समझाने पर
भी माँ ना मानी। उसने साफ़-साफ़ कह दिया था, 'सुन रे मुन्ना जब
तू ना रहवेगा तब मेरी कौन करेगा। अरे बावले, तू दूर रहवेगा तो
क्या, तेरी आस में ही रहे सहे दिन काट लूँगी। जब तू ही ना
रहवेगा फिर आस भी किसकी। तुझे मेरी कसम, कहीं दूर निकल जा।'
मैं क्या करता निकल आया।
माँ का भय भी सच्चा था। उस
दिन गाँव का नज़ारा और परमा का रौद्र रूप जो भी देख लेता ऐसी
ही सलाह देता। पूरा गाँव पुलिस के कब्ज़े में था। पुलिस
कुख्यात बदमाश परमा को गिरफ्तार करने आई थी। दरोगा फतेह सिंह
परमा को घसीटता हुआ पुलिस की गाड़ी की तरफ़ ले जा रहा था। परमा
थोड़ी भी चूँ पटाक करता दरोगा उसकी कमर में डंडा जड़ता और परमा,
कमर पर डंडा पड़ते ही मुन्नालाल की माँ-बहन के साथ रिश्ते जोड़ने
लगता। परमा चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, 'हरामजादे मुन्ना मैं
साल-दो साल में जेल से बाहर आ जाऊँगा, पर तुझे नहीं छोडूँगा।
तेरा खून पी जाऊँगा, हरामज़ादे।'
परमा को शक था कि मुन्नालाल पुलिस का मुखबिर है और उसकी ही
सूचना पर पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया है। बस यही मुन्नालाल का
कसूर था।
रेल अपनी गति से आगे बढ़ रही
थी और मुन्नालाल का मन अपनी गति से। रेल की सीट पर पसरा
मुन्नालाल आँखें बंद कर स्नेह और भय के इस द्वंद्व से लड़ने के
लिए हिम्मत बटोरने का प्रयास कर रहा था। रेल इस बीच कितने
स्टेशन पार कर चुकी। उसे पता नहीं लगा। उसकी तंद्रा तब भंग हुई
जब उसे बचपन के दोस्त मंगल ने उसके कंधे पर हाथ रखा।
उस समय गाड़ी मानिकपुर स्टेशन पर खड़ी थी। मंगल गाड़ी पर यहीं से
सवार हुआ था और सीट खोजते-खोजते वह मुन्नालाल के करीब पहुँच
गया। पुराने दोस्त को देख वह ठिठका और पुराने ही अंदाज़ में
उसके कंधे पर हाथ मारते हुए बोला, 'अब्बे साले तू...?'
दूसरी किसी दुनिया में खोए मुन्नालाल को लगा कि गरदन पर हाथ
किसी और ने नहीं परमा ने ही डाला है। हड़बड़ा कर उसने आँखें खोल
दी और मुँह से निकला- परमा...।
मंगल हँस दिया- 'अब्बे! परमा
का भूत अभी तलक चढ़ा है। परमा नी मंगल हूँ मंगल।'
मुन्ना की जान में जान आई। मगर परमा का भूत ज्यों का त्यों रहा
और कुशल क्षेम पूछे बिना ही उसके मुँह से निकला परमा कहाँ है?
सुना है वह बड़ा आदमी हो गया है, अब कहाँ रहता है...? मंगल समझ
गया कि मुन्नालाल केवल बस केवल परमा के बारे में ही सोच रहा
था। उसी के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में विचार कर रहा
था। परमा के तीनों काल मानों उसके अपने काल हो गए थे।
मंगल ने हाथ खिड़की से बाहर निकाला और प्लेटफार्म पर खड़े चाय
वाले से एक-एक कर दो कुल्हड़ चाय ली। मुन्नालाल की तरफ़ कुल्हड़
बढ़ाते हुए बोला, 'ले चाय के साथ निगल जा परमा की गोली।'
मुन्नालाल ने सुड़क-सुड़क कर बस
दो-तीन घूँट में ही चाय का कुल्हड़, खाली कर दिया और याचक की सी
दृष्टि से फिर मंगल को ताकने लगा। मंगल ने एक ही नज़र में
याचिका पढ़ उसे समझाया, 'अबे, आराम से घर जा। परमा अब तेरे
जैसे चूहों पर हाथ नी डालता। नेता हो गिया है, नेता... गाँव
आने की उसे फुरसत ना है। आएगा भी तो तेरे जैसों के बारे में
सोचने का बखत उसके पास ना है।'
मंगल की बात सुन मुन्नालाल के चेहरे से भय की लकीरें एक-एक कर
बिदा होने लगी। मगर बिदा होते होते गंभीर कई सवाल उसके
दिल-ओ-दिमाग पर अंकित कर गई।
उनमें से पहला सवाल उड़ेलते
हुए मंगल से पूछा, 'क्यों भइया? चोर-उचक्का अर नेता, कैसा
बना?'
मुन्नालाल के गंभीर सवाल का जवाब मंगल ने सहज भाव से दिया,
'राजनीति छिनाल है गई है भइया, छिनाल है गई। जिसके पास भी पैसा
अर लट्ठ की ताक़त हो, उसी के सामने मुज़रा करने लगै है, छिनाल।
अब कोई धरम-धोरा ना बचा।'
मंगल का रहस्यमय यह जवाब शायद मुन्नालाल की समझ नहीं आया,
इसलिए उसने फिर दोहराया,
'पर भइया ये परमा नेता कैसे बना?'
मंगल ने इस बार समझाने की
तर्ज़ में कहा, 'कह तो रहा हूँ, भईया। सुसरी छिनाल है गई है,
छिनाल। सुसरी पै कब्जा करने के लइयाँ बस पैसा चहीये अर लट्ठं
का ज़ोर। ये दोनों परमा के पास थे, फिर छिनाल के कोठे का
गिराहक बनने से वो क्यों चूकता। यै तो तुझे पताई है, चोरी
डकैती अर पकड़ जैसे धंधे तो पहले से करै था। इलाके में रोब
गालिब हो गिया तो फिर दारू के धंधे में हाथ डाल दिया। पहले
ठेक्के लूटने शुरू करे फिर माहवारी बाँध ली अर धीरे-धीरे खुद
ही ठेक्के लेने लगा। सैज-सैज दारू माफिया बन गिया परमा अर फिर
परमा से बन गिया परमजीत सिंह। जब पैसा भी ढेर सारा हो गिया अर
गुंडागर्दी का ज़ोर भी, बस पारटी वाले चक्कर काटने लगे ससुर
के। गुड़ होगा तो मक्खी भिन-भिनाएगीं ही भइया। बस परमा कू भी
लालच आ गिया अर वा भी झक कुरता-पजामा पहन, जाने लगा एक पारटी
के कोठे पै। हो गिया नेता अर परमजीत सिंह से हो गिया पीजे
भइया।'
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