सुबह-सबेरे अभी भी वह रोज सौंताल
नहाये, पीपल पूजे तब जाकर अनजल छुए। अब इस काम में संगी साथी
कोई न रह्यौ। एक दिन रानी भोर होते उठी। एक हाथ पे धोती जम्पर
धर्यौ दूसरे पे पूजा की थाली और चल दी नहाने।
उस दिन गर्मी कछू ज़्यादा रही कि फूलमती की अगिन। गले गले पानी
में फूलमती खूब नहाई। अबेरी होते देख फूलमती पानी से निकरी।
अभी वह कपड़े बदल ही रही थी कि बाकी नज़र झरबेरी पे परी। गर्म
में झरबेरी लाल लाल बेरों से वौरानी रही।''
इत्ते में घर आ गया। अन्नो बोली, ''दादी तुम्हारी कहानी बहुत
लम्बी होती है।''
दादी अपनी छोटी टाँग पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ''जे कहानी नहीं
जिनगानी है लाली! देर तो लगैगी ही।''
दादी घर पहुँच कर काम-काज में लग गईं। मुझे लगता रहा लो
डाबरनैनी को दादी ने सौंताल पर गीला नंगा छोड़ दिया, जाने वह
कब घर पहुँची। पर दादी को कहाँ वक्त। कभी बटलोई चूल्हे पर धरें,
कभी उतारें। कभी रोटी तवे पर कभी थाली में। हम तीनों उनकी भरसक
मदद करतीं पर चौके में दादी के बिना कुछ होय ही ना।
दिन में दो बार मैंने और अन्नो ने याद दिलाई, ''दादी कहानी?''
दादी ने बरज दिया, ''ना दिन में
ना सुनी जाती कहानी, मामा गैल भूल जायेगौ।'' मैं चुप। मेरे चार
मामा थे और अन्नो-शन्नो के तीन। सात लोग रास्ता भूल जायें, यह
कैसे हो सकता है।
रात की ब्यालू निपटते ही हम दादी को घेर कर बैठ गए। अन्नो उनकी
टाँगे दबाने लगी। मैंने सिर दबाना शुरू किया। ''दादी फिर क्या
हुआ?''
''अज्जे राम रे, मैं तो बहौत थक गई। देखो, हुंकारा भरती रहना।
कहीं भटक-भूल जाऊँ तो टोक देना नहीं फूलमती को न्याव नायं
मिलगौ।''
''हाँ तो फिर क्या था। फूलमती ने न आगा सोचा न पीछा, बस बेर
तोड़ने ठाड़ी हो गई उचक-उचक कर बेर तोड़े और पल्ले में डारौ।
वहीं थोड़ी दूर पर मालिन का लड़का पूजा के लिए फूल तोड़ रहौ थौ।
तभी रानी की उंगरी मा बेरी का काँटा चुभ गयौ। फूलमती तो फूलमती
ही, बाने काँटा कब देखो। उंगरी में ऐसी पीर भई कि आहें भरती वह
दोहरी हो गई। मालिन के छोरे कन्हाई ने रानी जी की आह सुनी तो
दौड़ा आयौ।
काँटा झाड़ी से टूट कर उंगरी
की पोर में धँस गयौ। मालिन का छोरा काँटे से काँटा निकारनौ
जानतौ रहौ। सो बाने झरबेरी से एक और काँटा तोड़ रानी की उंगरी
कुरेद काँटा काढ़ दियौ। काँटे के कढ़ते ही लौहू की एक बूँद पोर
पे छलछलाई। कन्हाई ने झट से झुक कर रानी की उंगरी अपने मुँह
में दाब ली और चूस चूस कर उनकी सारी पीर पी गयौ। छोरे की जीभ
का भभकारा ऐसा कि रानी पसीने पसीने हो गई।
उधर राजा सूरसेन की आँख वा
दिना जल्दी खुल गई। सेज पे हाथ बढ़ाया तो सेज खाली। थोड़ी देर
राजा जी अलसाते, अंगड़ाई लेते लेटे रहे। उन्हें लगा आज रानी को
नहाने पूजने में बड़ी अबेर है रही है। राजा जी ने वातायन खोला।
सौंताल में न रानी न वाकी छाया। पीपल पे पूजा अर्चन का कोई
निशान नहीं। रानी गईं तो कहाँ गई। सूरसेन अल्ली पार देखें,
पल्ली का छोरा कन्हाई दिखे। फूलमती की उंगरी कन्हाई के मुँह
में परी ही और रानी फूलों की डाली-सी लचकती वाके ऊपर झुकी
खड़ी।
राजा सूरसेन को काटो तो खून
नहीं। थोड़ी देर में सुध-बुध लौटी तो मार गुस्से के अपनी तलवार
उठाई। पर जे का तलवार मियान में परे परे इत्ती जंग खा गई कि
बामें ते निकरेंई नायं। राजा ने पोर मालिन के छोरे के मुँह में
परी सो परी।
राजा, परजा की तरह अपनी रानी को घसीट कर महलन में लावै तो कैसे
लावै, बस खड़ा-खड़ा किल्लावै। उसने अपने सारे ताबेदारों को
फरमान सुनायौ कि महल के सारे दुआर मूँद लो, रानी घुसने न पाय।
कोई उदूली करै तो सिर कटाय।
रानी फूलमती नित्त की भाँति खम्म खम्म जीना चढ़ के रनिवास तक
आई। जे का। बारह हाथ ऊँचा किवार अन्दर से बन्द। अर्गला चढ़ी
भई। रानी दूसरे किवार पर गई। वह भी बन्द। इस तरह डाबरनैनी ने
एक-एक कर सातों किवार खड़काये पर वहाँ कोई हो तो बोले।
सूरसेन की माता ने पूछा, ''क्यों लाला आज बहू पे रिसाने च्यों
हो?''
सूरसेन मुँह फेर कर बोले, ''माँ तुम्हारी बहू कुलच्छनी निकरी।
अब या अटा पे मैं रहूँगो या वो।''
माँ ने माली से पूछा, मालिन से पूछा, महाराज से पूछा, महाराजिन
से पूछा, चौकीदार से पूछा, चोबदार से पूछा। सबका बस एकैई जवाब
राजा जी का हुकुम मिला है जो दरवज्जा खोले सो सिर कटाय।
सात दिना रानी फूलमती अपनी सिर सातों दरब्बजों पे पटकती रही।
माथा फूट कर खून खच्चर हो गयौ। सूरसेन नायं पसीजौ...''
अन्नो ने भड़क कर कहा, ''ये
क्या दादी, तुम्हारी कहानी में औरत हमेशा हारती है, ऐसे थोड़ी
होती है कहानी।''
दादी ने कहा, ''अरे जे कहानी हम तुम नईं बना रहे, जे तो सुनी
भई सच्ची कहानी है।''
मैंने कहा, ''आगे की कहानी मैं बोलूँ दादी?''
''नईं तेरे से अच्छी तो अन्नो बोल लेवे। चल अन्नो तू पूरी कर।
मेरो तो म्हौंडो, सूख गयो। एक पान का बीरा लगा दे।''
मैं भागमभाग दादी के लिए पान का बीड़ा लगा लाई। उस वक्त अन्नो
बिस्तर पर अपने दोनों हाथ सिर के पीछे कैंची बना कर लेटी हुई
थी और कहानी चल रही थी।
''दादी फिर यह हुआ कि जैसे ही डाबरनैनी फूलमती को घर-दुआर पे
दुतकार पड़ी, वह खम्म खम्म जीना उतर गई। सौंताल पर कन्हाई उसकी
राह देख रहा था। उसने रानी का हाथ पकड़ा और अपनी कुटिया में ले
गया। सात दिन में रानी अच्छी बिच्छी हो गई। मालिन ने दोनों की
परितिया देखी तो बोली, ''रे कन्हाई, राधा भी किशन से बड़ी ही,
जे तेरी राधारानी ही दीखै।'' डाबरनैनी वहीं रहने लगी। रोज़
सुबह मालिन और कन्हाई फूल तोड़ कर लाते, फूलमती उनकी मालायें
बनाती।
इधर राजा सूरसेन उदास रहने लगे। माँ ने लब्बावती को बुला भेजा।
लब्बावती ने भाई से पूछा, ''प्यारे भैया, मेरी राजरानी भाभी
में कौन खोट देखा जो उसे वनवास भेज दिया।''
सूरसेन ने कहा, ''तेरी भौजाई
हरजाई निकली। वह मालिन के बेटे के साथ खड़ी थी। दोनों हँस रहे
थे।''
बहन बोली, ''ये तो अनर्थ हुआ। अरे हँसना तो उसका स्वभाव था।
अरे सूरज का उगना नदिया का बहना और चिड़िया का चूँ चूँ करना
कभी किसी ने रोका है?''
राजा सूरसेन को लगा उन्होंने अपनी पत्नी को ज़्यादा ही सज़ा दे
दी।
सात दिन राजा ने अधेड़बुन में बिता दिए। आठवें दिन लब्बावती की
विदा थी। लब्बावती जाते जाते बोली, ''भैया अगली बार मैं हँसते
बोलते घर में आऊँ, भाभी को ले कर आओ।''
कई साल बीत गए। राजा रोज़
सोचते आज जाऊँ कल जाऊँ। आखिर एक दिन वे घोड़े पर सवार होकर
निकले। साथ में कारिन्दे, मन्तरी और सन्तरी। जंगम जंगल में
चलते-चलते राजा जी का गला चटक गया। घोड़ा अलग पियासा। एक जगह
पेड़ों की छैयाँ और बावड़ी दिखी। राजा ने वहीं विश्राम की सोची।
बावड़ी में ओके से लेके ज्योंही राजा पानी पीने झुके, किसी ने
ऐसा तीर चलाया कि राजा के कान के पास से सन्नाता हुआ निकल गया।
मन्तरी सन्तरी चौकन्ने हो गए। तभी सब ने देखा, थोड़ी दूर पर एक
छोटा-सा लड़का साच्छात कन्हैया बना, पीताम्बर पहने खड़ा है और
दनादन तीर चला रहा है। राजा कच्ची डोर में खिंचे उसके पास
पहुँचे। छोरा बूझे राजा-वजीर। वह चुपचाप अपने काम में लगा रहा।
राजा ने बेबस मोह से पूछा,
''तुम्हारा गाम क्या है, तुम्हारा नाम क्या है?'' नन्हें
बनवारी ने आधी नज़र राजा के लाव लश्कर पे डाली और कुटिया की
तरफ़ जाते-जाते पुकारा ''मैया मोरी जे लोगन से बचइयो री।''
लरिका की मैया दौड़ी-दौड़ी आई। बिना किनारे का रंगीन मोटी
धोती, मोटा ढीला जम्पर, नंगे पाँव पर लगती थी एकदम राजरानी।
उसके मुख पर सात रंग झिलमिल झिलमिल नाचें।
राजा ने ध्यान से देखा। अरे
ये तो उसकी डाबरनैनी फूलमती थी।
सूरसेन को अपनी सारी मान मरयादा बिसर गई। सबके सामने बोला, ''परानपियारी
तुम यहाँ कैसे?''
फूलमती ने एक हाथ लम्बा घूँघट काढ़ा और पीठ फेर कर खड़ी हो गई।
तब तक बनवारी का बाप कन्हाई आ
गया। राजा ने कारिन्दों से कहा, ''पकड़ लो इसे, जाने न पाए।''
कन्हाई बोला, ''जाओ राजा जी तुम क्या प्रीत निभाओगे। महलन में
बैठके राज करो।''
मन्तरी बोले, ''बावला है, राजा की रानी को कौन सुख देगा। क्या
खिलाएगा, क्या पिलाएगा?''
कन्हाई ने छाती ठोंक कर कहा, ''पिरितिया खवाऊंगौ, पिरितिया
पिलाऊंगौ। तुमने तो जाकेपिरान निकारै, मैंने जामें वापस जान
डारी। तो जे हुई मेरी परानपियारी।''
''और जे चिरौंटा?'' मन्तरी ने पूछा।
''जे हमारी डाली का फूल है।''
राजा के कलेजे में आग लगी। मालिन के बेटे की यह मजाल कि उसी की
रानी को अपनी पत्नी बनाया वह भी डंके की चोट पर। उसने घुड़सवार
सिपहिये दौड़ा दिए।''
दादी की ऊंघ हवा हो गई, ''अन्नो तू ऐंचातानी बहौत कर रई ए। आगे
मैं सुनाऊँ।''
अन्नो की समझ में नहीं आ रहा था कि कहानी को कैसे समेटे। उसने
हारी मान ली, ''अच्छा दादी तुम्हें करो खतम।''
दादी बोली, ''हाँ तो कन्हाई और फूलमती बिसात भर लड़े। नन्हा
बनवारी भी तान तान कर तीर चलायौ। पर तलवारों के आगे तीर और
डंडा का चीज़। सौंताल के पल्ली पार की धरती लाल चक्क हो गई।
थोड़ी देर में राजा के सिपहिया तलवारों की नोक पे तीन सिर
उठाये लौट आए।''
मैंने कहा, ''दादी तीनों मर
गए?''
दादी ने उसांस भरी, ''हम्बै लाली। तीनोंई ने बीरगति पाई।
येईमारे आज तक सौंताल की धरती लाल दीखै। वहाँ पे सेम उगाओ तो
हरी नहीं लाल ऊगे। अनार उगाओ तो कन्धारी को मात देवै। और तो और
वहाँ के पंछी पखैरू के गेटुए पे भी लाल धारी जरूर होवै। ना
रानी घर-दुआर छोड़ती ना बाकी ऐसी गत्त होती।''
अन्नो और मैं एक साथ बोले, ''ग़लत, एकदम ग़लत। निर्मोही के साथ
उमर काटने से अच्छा था वह जो उसने किया।'' |