काफी देर तक वह प्रकृति
के रौद्र सम्मोहन और प्रोफ़ेसर के शब्दों में बंदी बनी रही।
अंतत: किसी तरह उसने स्वयं को मुक्त किया।
घाटी के बाहर का वातावरण एकदम भिन्न था। प्रियंवदा को लगा वह
अनंत काल बाद बाहर आई है। वह अपने आपको
वातावरण से जोड़ने की कोशिश करने लगी।
काफी दूर जाने के बाद जब कुछ बूँदाबाँदी
शुरू होने पर उसे छतरी की याद आई। कुल
तीन दिनों में यह तीसरी छतरी थी। उसने सोचा अब छतरी नहीं। मै
ऐसे ही घूमूँगी। मैं
भी अब इन पेड़ों की तरह भीगते हुए, काँपते
हुए चारों ओर आँख
फैला कर देखूँगी। उसने दोनों बाहें
फैलाकर बारिश को अंगीकार कर लिया। उसने
सोचा 'मेरे बाल इतने छोटे है मुझे उनके बिगड़ने
का भय नहीं है। हवा मेरे सिर की चमड़ी
को ही छुएगी,
अब हाथ मुक्त है क्यों कि इन्हें छतरी
नहीं पकड़ना
है।'' तभी उसे एक उल्टी पड़ी छतरी
दिखाई दी। उसने सोचा शायद एरिक की छतरी उल्टी हो कर हवा में उड़
गई। पर यह एरिक की नहीं लगती। यह तो
दुबली पतली छतरी है जो हवा के हल्के
झोंके में भी कच्ची पगडंडी पर घसिटती जा रही है।
अगले क्षण उसका विचार बिल्कुल ही अलग दिशा में दौड़ा।
वह सोचने लगी और कौन छतरी उड़ने देगा?
युवा प्रेमी, एक छतरी में पास पास दोनों के बीच कोई मस्ती और हवा
का शरारती झोंका। किसकी छतरी होगी? ज़रूर
कोई मोटर साइकिल पर जा रहा होगा पीछे वाले ने छतरी पकड़
रखी होगी। या कोई गाँववाला होगा अपनी
घरवाली को साइकिल पर ले जा रहा होगा।
उसकी घरवाली ने सिर ढँक रखा होगा। बूँदाबाँदी
रुक चुकी थी।
प्रियंवदा ने आस पास के पेड़ों की तरह
ही खुद को धुला हुआ महसूस किया।
वह परिचित रास्तों से अलग
रास्ते पर चल रही थी। जिस रास्ते पर वह चल रही थी कुछ देर बाद
वह तीन दिशाओं में बँट
रहा था। एक दिशा जो किसी गली की और जाती थी उस तरफ़
निचाई की ओर छोटे-छोटे होते हुए
ऊँचाई की ओर किसी पहाड़ी
टीले पर जा रही थी। तीसरी दिशा शहर की
तरफ़ जा रही थी।
प्रियंवदा ने पहाड़ी टीले की ऊँचाई
पर जाती सड़क का अनुसरण किया। आसमान
में फैले स्याह बादल सूर्यास्त के नशीले रंगों से भरे जाम जैसे
लग रहे थे। वह सूरज की गिरती किरणों
में गली की विचित्रता और रम्यता को कौतुक
से देख रही थी। लग रहा था जैसे घनघोर घटाओं
में एक टुकड़ों जड़ी रज़ाई या अफ़गान में
घर दुबक कर बैठे हुए है। बड़ी
देर तक वह वहाँ खड़ी
उस गली को निहारती रही। चिमनी, कहीं-कहीं
से उठता धुआँ, पहाड़,
समतल ज़मीन। उस
गली को जानने की इच्छा अदम्य होने के कारण वह पहाड़ी
टीले से उतर कर गली की दिशा में चलने लगी।
कहीं खामोश रोशनी, कहीं बोलता
हुआ अंधेरा। प्रियंवदा गली में चलने लगी। चारों ओर कीचड़, घरों
की खिड़कियों-दरवाज़ों पर लटके जगह जगह लटके चीथड़े जो टीले पर
से टुकड़ें जोड़ कर बनाई गई रज़ाई जैसे दिख रहे थे। किसी-किसी
घर में चीथड़ों को सलीके से लगाने की कोशिश की गई थी। गेरू,
पीला रंग, सस्ता सफ़ेद रंग। गली में उबलती दाल, लहसुन प्याज़
के मसाले, बघार की गंध, जगह-जगह रुके पानी की बदबू, लकड़ी और
कोयले जलने से धुएँ
की घुटन भरी थी। कोई भी गंध किसी से अलग नहीं की जा सकती थी।
कई तरह की बातें और आवाज़े बाहर
तक सुनाई दे रही थीं। मौसम के खराब होने व अंधेरा हो जाने के
कारण बाहर कोई नहीं दिख रहा था।
कोई बच्चा ज़ोर-ज़ोर
से पहाड़े रट रहा था। बरतन घिसती उसकी माँ
गर्व से उसे देख रही थी।
किसी घर से बच्चे की पिटाई के साथ भीगा स्वर बाहर आया,
''नहीं ला सकता तेरे लिए
किताब। मास्टर को कहना खुद ला दे। क्लास की किताब के बाद कौन सी
किताब?''
किसी घर में किसी से दिन भर में बेचे गए
भुट्टों, गुटकों, बीड़ी, चॉकलेट का हिसाब पूछा जा रहा था।
हिसाब पूछने वाली मिले हुए पैसे से
संतुष्ट न थी।
कहीं
से दुधमुँहे बच्चे के रोने की आवाज़ के
साथ घंटी की टुनटुन और भजन का गान सुनकर उसने अधखुले दरवाज़े
में झाँका कोई वृद्धा दीया लगाकर भजन
करते हुए बच्चे को चुप कर रही थी।
एक घर में कोई महिला आश्चर्य से पूछ रही थी,
''आज मिठाई कैसे ले आए?''
जवाब आया, ''पंडित ने मंदिर साफ़
करने भेजा था कोई अफ़सर पूजा करने के
लिए आने वाला है वहाँ एक बड़ी महँगी
छतरी पड़ी मिली हम क्या करते उसका। मैंने
बेच दी।''
कुछ दूरी पर दूसरे घर में प्रियंवदा ने देखा एक औरत अपनी साड़ी
छुड़ा रही थी, ''छोड़ मुझे रंडी समझ रखा
है क्या? चूल्हे की आग बुझ गई तो और लकड़ी
नहीं है मेरे पास जिस पर रोटियाँ सेंक
लूँ।''
एक धूसर-सा मकान जहाँ गली खत्म होती थी
वहाँ अंदर कोई शराबी कह रहा था,
''थोड़ा पानी ही पिला दे।''
औरत दाँत पीसते हुए
बोली, ''तेरी औरत नहीं
हूँ जो तेरे नखरे उठाऊँ,
अब यहाँ से फूट ले। तेरी आग को पानी की ज़रूरत
नहीं है। मुझे पैसे चाहिए
कल के लिए।''
वहीं पर एक बुड्ढा ठिठुर रहा था। वह
प्रियंवदा से बोला, ''बेटी थोड़ा
सहारा दे कर सामने वाली झोंपड़ी तक पहुँचा
दो। छतरी तो हवा में उड़
गई ठीक से पकड़ नहीं सका।''
जिस तरह गली की कोई भी गंध पृथक नहीं
की जा सकती थी उसी तरह कोई आवाज़
भी पृथक नहीं की जा सकती थी।
जब वह गली से बाहर आई तब घाटी, प्रकृति का सम्मोहन और
गली का अनुभव दोनों जीवन का प्रवाह बन कर उसके नसों में दौड़
रहे थे।
संयोजन, विस्तार, प्रभाव सोन मछली
बिना किसी के बारे में सोचे केनवास के
पास खड़ी आकलन कर रही थी।
दो तेरह चौदह साल के
लड़के बातें करते हुए
उपर आ रहे थे, ''कीरत, वो साहब अच्छा
था। जब मैंने
उसके कमरे में खाने की थाली छोड़ी उसको
कहा कि साहब अगर खाना बच जाए तो थाली
में हाथ मत धोना। बचा खाना मैं खा लूँगा।
मैं जब थाली लेने गया तब देखा उसने
मेरे लिए खाना निकाल कर खाना खाया
था।''
''अच्छा हुआ मालू। नहीं तो तु सबकी दाल
सब्ज़ी चखता रहता...''
कीरत ने ठहाका मारा।
दोनों प्रियंवदा को देखकर ठिठक गए और कौतुक
से उसके पास रुक गए।
''आप वही मेम हैं न जो धोती वाले गोरे
साहब के साथ घूम रही थी। अंगूठा और उँगली
को गोल करके तालाब देख रही थी।''
''अरे मालू नीचे की गली ऊँची टेकरी से
कितनी अच्छी दिख रही है।'' कीरत ने केनवास को देखा और फिर पहाड़ी
से नीचे की ओर देखा।' 'हमने तो कभी यहाँ
से उस तरफ़ देखा ही नहीं।''
तभी मालू ने कीरत को कहा, ''देख यहाँ
से दिख रहा है कि मेरे घर आज खाना नहीं
है।''
प्रियंवदा ने आश्चर्य से पूछा, ''कैसे
मालूम तुझे?''
मालू ने प्रियंवदा की तरह उँगली
और अंगूठे को गोल कर रखा था। उसमें से
देखते हुए बोला,
''वो लाल रंग का मकान है एकदम कोने वाला न उसमें धुआँ
नहीं उठ रहा।'' फिर वो केनवास की तरफ़
मुड़ा और संतुष्टि से बोला,
''तुमने सही बनाया है।''
कीरत ने कहा, ''तालाब पर ही तो आपने हमसे हाथ भर लंबा भुट्टा
खरीदा था। आपने बीड़ी
भी तो खरीदी थी। हमको बड़ा
अचरज हुआ था। आपके बालों और कपड़ों से
हम आपको लड़का समझे थे।''
उसके बाएँ
हाथ पर बने गहरे नीले से ज़ख्म को
देखकर प्रियंवदा ने सहानुभूतिपूर्वक
पूछा, ''तेरा हाथ भुट्टा
सेंकते हुए जल गया?''
''नेइ उसमें
तो कभी नहीं जला।
उस दिन बारिश बहुत हो रही थी मेरी माँ
बेचे हुए सामान से मिले पैसे से वैसे
ही नाखुश थी जब देखा कि मेरे पास छतरी भी नहीं
है तो उसने गुस्से से चिमटा खींच कर दे मारा वो गरम था।
छतरी मैंने रगडू को दे दी थी।
बूढ़ा बेचारा काँप
रहा था। पर उससे छतरी उड़ गई।
वो ध्यान से कीरत को देखने लगी। चेहरे के कैनवस पर दो कान, दो
आँखें, बीच में नाक, ओंठ।
संयोजन, विस्तार, प्रभाव। सब कुछ पर सबसे बढ़कर
कीरत के चेहरे पर मानवता, दया, करुणा,
दर्द। चेहरे पर सौंदर्य, आँखों में
सौंदर्य, आवाज़ में सौंदर्य,
'प्रकृति का ऐश्वर्य'।
प्रोफेसर रसेल उसकी पेंटिग ''नीचे
वाली गली'' को देखते ही उसमें खो गए।
वे मंत्रमुग्ध बोले, ''यह पेंटिग पुरस्कार ले जाएगी। तुमने जानना सीख लिया।''
''हाँ'' वह बोली, ''जानने के लिए छतरी को भूलना पड़ता है। 'कलाकृति
का सौंदर्य संरचना में नहीं
खामोशी में होता है।''
|