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                    दूसरी बाकायदा एक बेकायदा डायरी 
                    थी। बेकायदा इसलिए कि रोज़ नहीं लिखा और बीच-बीच में घर की साग 
                    सब्ज़ी का हिसाब तक कर मारा उस बूढ़े ने। बाकी पढ़ कर शायद आपको 
                    भी लगे कि जनाब, ट्रेडिशनल हिंदी लिटरेचर पढ़ेले मालूम होते 
                    हैं, और पत्नी कविता तक करती थीं किसी ज़माने में। मुझे तो 
                    पूरा शक है कि इसे छपवाने की फिराक में भी रहे होगे भाई जी, पर 
                    मैंने कहीं पढ़ी नही, तो आपकी खिदमत में ये पन्ने हाज़िर हैं। 
                    सारे कापीराईट ताक पर...पहले-पहल तो बेहद अलग-सी लगीं दोनों डायरियाँ पर जीवन है तो हर 
                    कहीं एक ही जैसा, और कहीं चाहे अनचाहे सूत्र कहीं मिल जाएँ, तो 
                    कोई संयोग नहीं, बेहद सामान्य-सी बात है। ये पन्ने समानांतर 
                    हैं, एक ही समय पर पुल के दो किनारों की नदी पर अपने-अपने ढंग 
                    से समानांतर प्रतिक्रियाएँ करते हुए।
 
                    पहली डायरी मैं ज्योना। पूरा नाम 
                    ज्योत्स्ना, नवीं में पढ़ती हूँ। यहीं पास ही मेरा स्कूल है और 
                    हमारे सारे टीचर बहुत ही अच्छे हैं। मैं भी पूरा मन लगा कर 
                    पढ़ती हूँ। पापा कहते हैं पढ़ लिख कर ही हम बड़े बन सकते हैं। 
                    पापा ऑटो चलाते हैं, मम्मी ज़्यादातर घर में ही रहती हैं। हाँ 
                    सुबह और शाम ये, जो हमारे घर के सामने ऊँची-ऊँची इमारतें हैं 
                    ना, इनमें कुछ घरों में काम करने, खाना बनाने जाती हैं। हमारे 
                    बड़े होने और आगे बढ़ने की कोशिश मेरे पापा ने, बहुत पहले से 
                    शुरू कर दी थी। ठीक उसी दिन से जब वो और मम्मी अपना गाँव छोड़ 
                    कर बहुत दूर इस शहर में आ गए थे। कई बार वो कहानी, कभी पापा 
                    से, कभी मम्मी से सुनी है। कैसे घर वालों, गाँव वालों सभी ने 
                    मना किया, कैसे सबको समझाने की कोशिश की और फिर कैसे कहाँ-कहाँ 
                    से पैसे आए और फिर हम यहाँ दिल्ली में आकर रहने लगे।"हियाँ ते ज़्यादा नहीं तो ६०० किलोमीटर होई", पापा अब भी सुबह 
                    शाम एक ना एक बार कह ज़रूर देते हैं।
 हज़ारों कहानियाँ हैं, मम्मी के पास, पापा के पास, बस गाँव ही 
                    गाँव। बड़ा बनना इतना ज़रूरी है?
 डायरी लिखने के लिए तो स्कूल में कहा गया था पर अब मुझे भी 
                    अच्छा लगने लगा है। अपनी हर बात जब चाहो कह दो इससे। मेरी तो 
                    सहेली बन गई है मेरी डायरी। अब रोज़ ही लिखूँगी...
 दूसरी डायरी उसे याद करते-करते 
                    बस जी रहे हैं हम दोनों। जीवन जैसे रुका हुआ-सा है। एक मोड़ पर 
                    जहाँ वो हमें लाकर बस अकेला, एकदम अकेला छोड़ जाता है, खुद चला 
                    जाता है, हर साल, दो बार। फिर अगले चार महीनों के लिए हम उसी 
                    मोड़ को देखते रहते हैं। एक इंतज़ार कि हमारी रुकी घड़ी में चाभी 
                    भरने आएगा। मैंने नीता को जाने कितनी बार समझाया है, रुकना 
                    नहीं चलते रहना ही नियति है जीवन की। सच तो ये कि, कभी-कभी तो 
                    उसने भी समझाया है मुझे। पर क्या समझ पाए हैं हम कुछ भी? क्या 
                    समझना चाहते हैं हम? लगता है ये बातें बस मशीनी-सी हो गई हैं, 
                    कभी जो नीता कहती है, मैं दोहराता पाता हूँ अपने आप। एक दूसरे 
                    को दिलासा देते हुए भी हम कितने अकेले हैं खुद से झूठ बोलते 
                    हुए, एक साथ अलग-अलग। उसने पिछली बार जाते हुए हाथ 
                    हिलाया था। नीता ने घर से चलते हुए टीका लगाया, हर बार लगाती 
                    है। प्यार से सर पर हाथ फेरा, "बेटा, खुश रहना"। वो हँस देता 
                    है, इस बात पर ही नहीं, हमारी ज़्यादातर बातों पर। मानो हमने 
                    कोई एकदम फ़ालतू बात कही हो, एकदम ग़ैर-जरूरी। "क्या माँ, आप 
                    भी।'' भाग दौड़ ही बचती है जब भी वो आता है। और फिर चुपके से 
                    जैसे चेहरा दिखा, छिप-सा जाता है, कहीं। बचपन की शैतानियों के 
                    बाद उसका छिप जाना, कहीं अलमारी के पीछे तो कभी बिस्तर के 
                    नीचे, कुछ-कुछ ऐसा ही तो था। आज २९ दिसंबर ,नया साल आने 
                    वाला है। नीता भी कभी-कभी लिखती है, कविता, उसकी नए साल की 
                    कविता सुनूँगा कभी, अभी याद भी नहीं। अभी बच्चन की बात याद आ 
                    रही है-नव उमंग
 नव तरंग
 जीवन का नव प्रसंग
 नवल चाहनवल राह
 जीवन का नव प्रवाह
 प्रवाह...हमारे जीवन का 
                    प्रवाह तो बस रुका-सा है। और नवल चाह...अब उसका क्या कहूँ? ................... पहली डायरी "नया साल आने वाला है, नया 
                    साल नई खुशियाँ लाता है", क्लास में जब सुना तो विश्वास नहीं 
                    हुआ। अब तक कितने न्यू इयर आए हैं, और क्या, कितनी बार मैंने 
                    खुद देखा है, सामने लोगों को नाचते हुए, उन्हीं ऊँची इमारतों 
                    में। घर से कुछ लोगों के घर के बड़े-बड़े रंगीन टी.वी. भी एकदम 
                    साफ़ दिखते हैं, उनमें भी तो देखा है। पर इनमें से सारे के सारे 
                    लोग कहीं सबकी तरह कारों में चले न जाएँ नए साल के दिन। अरे और 
                    नहीं तो क्या एकदम सन्नाटा हो जाता है, पिछले साल यही तो हुआ 
                    था। सब लोग चले जाते हैं, पापा भी काफ़ी रात से आते हैं उस रात, 
                    जो लोग कारों से नहीं जाते होंगे उन्हें ऑटो की ज़रूरत तो 
                    पड़ेगी ना। पर साल बदलेगा तो खुशियाँ कहाँ से आ जाएँगी?  
                    हम लोग तो ऐसे ही इतने खुश हैं। मम्मी, पापा हैं, छोटा-सा मेरा 
                    भाई प्रिन्स है। जिस दिन वो हुआ, पापा ने मुझे बताया, "ज्योना, 
                    तेरा भाई है, 'प्रिन्स'।" पर प्रिन्स तो राजकुमार को कहते हैं, 
                    उसका नाम प्रिन्स क्यों रखा है? '' पापा हँसे थे, क्यों भला? दूसरी डायरी आज का दिन कुछ अलग-सा था, 
                    बाकी दिनों कि तरह थका हुआ नहीं। आज नीता से कहा, "अपनी कविता 
                    सुनाओ वो नए साल वाली, कितने दिन हुए कुछ लिखा भी नहीं 
                    तुमने।'' बाकी दिनों की तरह थकी हुई-सी नहीं थी नीता। फुदक-सी 
                    रही थी, जाने क्यों, कभी-कभी ऐसा होता है, हम अकारण खुश से हो 
                    जाते हैं। ये अकारण खुशी, एकदम वैसी ही होती है, जैसा बस एकदम 
                    बेबात दुखी हो जाना। बच्चों कि तरह उछल कर आकर बैठ गई सामने। 
                    आवाज़ भी अब अटक-सी जाती है उसकी, और इन सर्दियों में तो सर्दी 
                    ही लगी रहती है उसे। फिर भी कानों में मिश्री से घोलती आवाज़ 
                    में सुनाया उसने। गाती नहीं पढ़ती है कविता, पर ऐसे कि जैसे 
                    झूम-झूम गा रही हो... आओ नए दिन भोर के तारे नए आओ अधखिली अलसी उनींदी रात भर 
                    जागीकैसे पुकारे सहम सिमटी नव वधू कोंपल।
 लाओ मधुर नूतन सजीले स्वप्न ले आओ
 आओ नए दिन भोर के तारे नए आओ।
 रात भर छुप कर कहाँ बैठी रही, 
                    सोती रहीअब गमकती मस्त अल्हड़ पवन मतवाली
 मद भ्रमित बहकी सुवासित मुदित कटि पर
 आओ नए शृंगार विगलित छंद लिख जाओ।
 रात्रि प्रहरी चंद्र की अवसान 
                    बेलाअरुण ने अभी ही भानु रथ वल्गा गही है
 कुछ घड़ी ही सही आओ तरसती कुमुदिनी बोली
 रुनझुन जगाओ बद्ध यौवन पायलों की तुम
 आओ ललकती हर्ष विस्मित बाँह गह जाओ
 आओ नए दिन भोर के तारे नए आओ
                     ...नीता कभी इतनी खुश नहीं 
                    दिखी, जितनी आज, अभी थी। संगीत जगाता तो है ही, जोड़ता भी है, 
                    जीवन की एक आवश्यक-सी अकारण-सी शर्त सी बन गया है संगीत, यही 
                    कुछ दिन होते हैं, जब सुबह नीता संगीत मन में ले उठती है। 
                    सोचने पर है, पर ऐसा नहीं होता क्या कि रोज़ हम कुछ ना कुछ मन 
                    में लेकर उठते हैं, और दिन भर, वही कुछ, चीन्हा-अनचीन्हा-सा बस 
                    साथ लगा रहता है। कविता पूरी हो गई पर अभी भी गुनगुना रही है। 
                    ऐसा गान जो श्रोता की वाह-वाह की बाट नहीं जोहता। स्वयं-पूर्ण, 
                    स्वयं-सिद्ध, किसी ठप्पे, किसी बड़ाई का मोहताज नहीं। "ये 
                    सवेरा तुम्हारा भोर का तारा, ये कोई कैसानोवा है क्या, इसके 
                    उसके सबके लिए एक ही काफ़ी, सबकी सब उसी को बुला रही हैं।", वो 
                    रूठ-सी जाती है, अपनी ही मस्ती में उठ कर चल देती है। कुछ भी 
                    कहना कब सीखा है इसने? बात बदल कर मैं पूछता हूँ- "ये उदय होने वाला था उसी दिन लिखी थी ना?"
 हल्का-सा "हाँ", और चल देती है वो।
 "घर में काम ना भी हो पर आप व्यस्त ही रहना पसंद करती हैं।''
 उधर से उपेक्षा भरा मीठा, "हाँ तो", आता है, और गालों पर फूल 
                    दिखते हैं, छोटे-छोटे, पंखुड़ियाँ एकदम लाल सुर्ख लाल। कल साल 
                    का आखिरी दिन, भोर का तारा नया होगा क्या? इन फूलों से आगे और 
                    क्या होगा? हो सकता है क्या?
 
                    ............................................ पहली डायरी इतने तारे हैं, टिमटिम करते 
                    पर मेरी बात सुनेंगे क्या ये। जब बहुत छोटी थी इनसे कितनी 
                    बातें की हैं। आज भी कितना मन कर रहा है। मन है, किसी से खूब 
                    बात की जाए, सब बता डालूँ। सारी सहेलियाँ रहती तो आस पास ही 
                    हैं, पर इतनी रात में कौन मिलेगी, बातें सुनने को? कितना कुछ 
                    है बताने को। रोज़ की तरह इसे भी यहीं डायरी में ही लिख दूँगी। स्कूल से आने के बाद घर आई तो 
                    हमेशा की तरह माँ तो थी नहीं घर पर। प्रिन्स को भी साथ ले जाती 
                    हैं। "आज शाम जल्दी आऊँगा सबको तैयार रखना।", पापा ने ये क्यों 
                    कहा था सुबह मैं सोच रही थी। और फिर मम्मी आईं अपना काम करके। 
                    थक गई थीं। मैंने उनसे पूछा, ''आज हमें तैयार रहने को पापा ने 
                    क्यों कहा है?''पापा जल्दी घर आएँगे ये नई बात तो थी ही। रोज़ तो इतनी रात को 
                    आते हैं कि मैं तो सो ही जाती हूँ। सुबह भी कभी-कभी ही दिखते 
                    हैं जाते हुए, जैसे आज दिख गए थे, जब मैं सो कर उठी थी बस।
 "कहति रहायें की अजु साल...अरे न्यु इयरु है ना, तो वहै, मनु 
                    मा होई कुछो,'' मैंने कई बार देखा है माँ की आँखें खुश होने पर 
                    छोटी हो जाती हैं। फिर हमें माँ ने डाँट-डाँट कर तैयार किया। 
                    तैयार होने का मतलब पिछली दिवाली पर मेरे लिए जो नए कपड़े पापा 
                    लाए थे मैंने पहने। पापा तो कहते हैं, एकदम परी लगती हूँ मैं, 
                    पर परियाँ तो कहीं आसमान में रहती हैं, यहाँ कहाँ। मम्मी की 
                    वही लाल साड़ी, जाने कब से देखती आई हूँ। प्रिन्स तो अपनी नई 
                    ड्रेस में एकदम गुड्डे-सा लग रहा था, बहुत प्यारा, छोटा है ना। 
                    अख़िर भाई किसका है? हम ५ बजे एकदम तैयार थे।
 नए साल पर खुशी मनाना मेरे 
                    लिए तो नया था। इसके पहले तो कभी पापा हमें नहीं ले गए कहीं। 
                    फिर भी तैयार होने के बाद पापा का इंतज़ार शुरू हुआ। अब हम 
                    नहीं जानते थे कि पापा के जल्दी आने का मतलब रात के ९ बजे था।पर आज पापा पैदल नहीं आए थे और मैं तो जान ही नहीं पाई कि पापा 
                    आए हैं। हमने सोचा ही नहीं था कि पापा कार से आएँगे, हाँ सच 
                    कार से आए थे।
 "यह कहकी लाए हओ", मम्मी तो बस कुछ भी पूछ देती हैं। अरे किसी 
                    की भी हो, लाए तो पापा हैं, उन्हीं की है अब, हमारी ही है अब। 
                    कार को देख कर पीछे देखा तो पापा मम्मी कि ओर देख कर हँस से 
                    रहे थे,
 "अस्थाना साब ने अपनी कार के लिए रख लिया है, अब औटो-वाटो 
                    नहीं, अच्छा ज़्यादा बतलावै मा समै न ख़राब करो, चलो टाईम नहीं 
                    है ज़्यादा, उई सब जने बहेर गे हैं, लरिकवा आवा है अमेरिका ते, 
                    तब तक हमरओ सालु नवा हुई जाई।"
 मैंने देखा था दोनों हँस रहे थे, बिना आवाज़ के। बात समझ नहीं 
                    पाई पर मैं भी हँस दी थी। बड़ी हूँ ना, मम्मी कहती हैं ना घर की 
                    बातें समझनी चाहिए, प्रिन्स क्या समझेगा, अभी तो बहुत छोटा है।
 
					
                    मेरी सहेलियाँ, आस-पास के सब 
                    छोटे और मेरे साथ के बड़े बच्चे घेर कर खड़े थे, हमारी कार। और 
                    क्या अब तो कार हमारी ही थी। मैंने सबको दूर किया था, अरे सबके 
                    सब गंदे हाथ से छुए डाल रहे थे, वैसे मैंने भी पहली बार कार 
                    छुई थी, पर कार तो मेरी थी तो मना भी मैं ही करूँगी ना। इतनी 
                    चिकनी इतनी बड़ी, ऑटो तो छोटा-सा, पुराना भी कितना था। 
                    मम्मी पापा बाहर आए और आज किसी 
                    से बोले ही नहीं। सब पड़ोसी, कुछ घरों के भीतर से और कुछ बाहर 
                    निकल कर देख रहे थे, हमारी कार। उसकी सीट कितनी चिकनी थी, 
                    प्रिन्स और मुझे पापा ने जैसे ही इशारा किया, खट्ट से पीछे बैठ 
                    गए, सही में बहुत मुलायम सीट थी। मम्मी भी पीछे बैठ रही थी, कि 
                    पापा बोल पड़े, "अरे हियओ सीट है, आगे आओ रानी जी।'' मम्मी शर्मा जाती हैं, 
                    पापा की ऐसी बातों से।
 कार हमारी बस्ती की कच्ची गलियों से निकली, पक्की चिकनी सड़क पर 
                    दौड़ने लगी। पर ये सड़क है बड़ी ही खतरनाक... कितनी बार देखा है 
                    एक्सीडेंट होते हुए। "अरे धीरे चलाओ", मम्मी ने पापा से धीरे 
                    से कहा था। पापा ने पीछे हम लोगों को खिड़की से झाँकते देखा, 
                    "भई ठीक ते बैठओ।", झिड़की दी हमें और मम्मी की बात दोनों को 
                    और कार और तेज़ कर दी, मम्मी को देखा मैंने, थोड़ा-सा खिड़की की 
                    तरफ़, पापा से दूर सरक गईं। फिर बहुत दूर घुमाया पापा ने। 
                    प्रिन्स तो बार-बार खिड़की पर अपने को देख रहा था, शीशे में, 
                    अपने में ही मस्त, छोटा है ना। मैं भी खिड़की पर ही आँखें लगाए 
                    थी, कभी-कभी झुक कर सामने वाले बड़े शीशे से सड़क देखती थी। एक 
                    बार मन किया था की पीछे वाले शीशे से भी देखा जाए, दूर भागती 
                    सड़क कैसी लगती होगी, देखा तो जाए? पर पापा के डर से नहीं देखा। 
                    जगह-जगह बड़ी-बड़ी तैयारियाँ, सड़कें खाली एकदम, बस कहीं-कहीं 
                    नाचने गाने की धूम। पापा ने ११ बजे वापस हमें घर ला दिया। मन 
                    भर घूमे थे आज, और वो भी बड़ी-सी कार में। दिन में तो और भी 
                    मज़ा आता होगा ना। मुझे तो अभी भी कार की गुलगुली सीट ही याद आ 
                    रही है।
 उस चमक दमक से दूर हमारी 
                    बस्ती में जिसके सामने वो ऊँची इमारतें हैं, कितनी फीकी-सी है। 
                    पर मैं तो रहती हूँ यहीं, प्रिन्स मम्मी और पापा भी। यही तो है 
                    वो जगह जहाँ से गाँव से यहाँ आए मेरे पापा के आगे बढ़ने बड़ा 
                    आदमी बनने के सपने शुरू हुए थे। चमक-दमक, कार, ये घूमना-फिरना 
                    एक दिन की खुशी है और हमारी बस्ती हमेशा साथ रहने वाली खुशी, 
                    पर हाँ ये त्योहार भी तो एक दिन की खुशी ही तो हैं। पता नहीं 
                    पूछूँगी कभी किसी से कि कौन-सी खुशी बड़ी है। मुझे तो लगता है 
                    कि खुशियाँ तो बस खुशियाँ हैं, छोटी बड़ी कैसे? पता नहीं। वो १२ 
                    बजे घर से ही देखा था अभी, कहीं पटाखे छूट रहे थे...कितनी चमक 
                    थी। जैसे कितने सारे तारे एक साथ निकल आए थे ऊपर आसमान में, 
                    गिरते हुए से, छिटक कर हर कहीं फ़ैलते हुए से।"हे दुर्गा महरानी, हर नवा साल ऐसेहे आवए", मम्मी ने पापा से 
                    जब वो फिर वापस जा रहे थे कहा था, पापा हँसे थे, जैसे कि ऐसा 
                    कहाँ, होता है। मम्मी का नाम आशा कितना सही है। बाहर पापा फिर 
                    आ गए हैं, बुला रहे हैं शायद...अभी आई...देख कर आती हूँ...
 दूसरी डायरी ये एक नया साल है नए दिन, ५ 
                    जनवरी, नीता का नया भोर का तार चिपका होगा आकाश के किसी कोने 
                    में, हाँ एकदम ताज़ा नया नहीं ५ दिन बूढ़ा। इतने दिन हम बस इतने 
                    व्यस्त थे, इतने खुश थे की सोच ही नहीं पाए कि कोई डायरी भी थी 
                    जो रोज़ लिखी जाती थी।  ३१ दिसंबर, दिल्ली की 
                    सर्दियों में तो, शाम के ३ कब बजे गए पता ही नहीं चला था, और 
                    आगे का समय जाने कहाँ पंख पसारे उड़ता चला गया, वो तो एकदम 
                    ख़याल ही नहीं। घर की डोर बेल बजी, नीता लेटी थी, मैंने उठ कर 
                    दरवाज़ा खोला तो, सामने क्या देखता हूँ, उदय खड़ा था। हाँ उदय 
                    आया, बिना बताए, "सरप्राइज़ पापा...सरप्राइज़।'' किसी समय 
                    एकाएक इतनी खुशी मिले तो शब्द भी साथ छोड़ देते हैं। नीता ने 
                    आवाज़ सुन ली थी, उसी से बँधी दौड़ती चली आ रही थी, बाहर आई, और 
                    हर बार की तरह मुझे भूल नीता से लिपट गया उदय। एक लड़की भी साथ 
                    थी, मैं समझ गया, आशा है। पीछे सामान खींचती-सी, चुपचाप खड़ी 
                    थी। कुछ दिनों पहले उदय ने हमें आशा के बारे में बताया था।"पापा, एक लड़की है, मेरे साथ ही पीएच.डी. कर रही है, आशा 
                    पोवेल, आशा की माँ इंडियन है, पर वो कभी आई नहीं इंडिया।'' उदय 
                    शादी करना चाहता है उससे, और शादी भी कहाँ यहीं इंडिया में। 
                    आशा की ही ज़िद है। हमारी भी बात कराई थी आशा से। नीता खुश थी, 
                    बहुत खुश। कहती है अच्छी लड़की है। नीता की आँखों में मैं अपनी 
                    माँ की आँखों में हमेशा बसा रहा, अपने मन कि बहू, खुद ना ढूँढ़ 
                    पाने का दर्द नहीं खोज पा रहा हूँ। मेरी माँ-, नीता और मेरी 
                    खोज सब मिल कर निदा फ़ज़ली कि कविता याद दिलाती हैं,
 "बीवी बेटी बहन पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी-सी सब में
 दिन भर एक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ..."
 सामने खड़ी आशा माँ बेटे को 
                    ऐसे मिलते देख मुसकरा रही थी। मुझसे "हाय" किया उसने, फिर शायद 
                    उसे ही अटपटा-सा लगा और "नमस्ते" में हाथ जोड़ दिए। शुद्ध हिंदी 
                    उच्चारण, "जी में आशा हूँ"। मैं तो खुश हुआ ऐसा उच्चारण यहाँ 
                    लोगों का न हो। नीता नटनी-सी पागलों-सी दौड़-दौड़ सारी तैयारियाँ करने लगी, बेटे 
                    को क्या पसंद है क्या नहीं, सब पता है। और बेटा भी मदद करता ही 
                    रहा।
 "उदय एकाएक, सरप्राइज़ ऐसा भी क्या, बताया तो होता,''
 "पापा आशा ने कहा, न्यू इयर इंडिया में ही सेलिब्रेट करेंगे, 
                    उसकी माँ का भी मन था वो इंडिया जाए, आई कहाँ है कभी।''
 मैंने आशा को देखा, उसके गालों पर वही गोल गड्ढ़े, खुशी के।
 माँ बेटे के मेल-मिलाप के बीच 
                    आशा से बातें कीं, कहीं अपने को अकेला ना समझने लगे। नीता तो 
                    बस बेटा दिख जाए मगन हो जाती है, फिर और कुछ दिखता नहीं उसे। 
                    आशा ने मुझसे न्यू इयर सेलिब्रेशन प्लान के बारे में पूछा। मैं 
                    याद करते हुए बताता हूँ कि आज से ५ साल पहले जब मैं रिटायर हुआ 
                    था, ऑफ़िस की पार्टी मेरी भी लास्ट न्यू इयर पार्टी थी। उसके 
                    बाद हमने इलाहाबाद छोड़ दिया। यहाँ दिल्ली में आकर रहने लगे। 
                    आशा की आँखें भी हँसती हैं जब वो हँसती है। खुश थी कि मैंने 
                    यहाँ आकर रुकने की कोशिश नहीं की, बिजनेस शुरू किया, वो काम 
                    शुरू किया जो घर बैठे हो सकता था, अरे भई ऑटो चलते हैं, 
                    अस्थाना साब के।बेटे के आने की खुशी में पागल हुई जा रही नीता ने क़रीब १० 
                    सालों बाद न्यू इयर पार्टी में डान्स भी किया, बेटे के साथ, 
                    पूरे मन से। आशा और मैं दूर बैठे थे, "आशा, छोटी बच्ची नहीं लग 
                    रही तुम्हें नीता,'' कहा तो आशा एक पल को गंभीर हो "हूँ", करती 
                    है, फिर वही गाल के गढ्ढे और हँसी।
 आज उदय चला गया है। घर में सन्नाटा है, जैसे कोई कभी यहाँ रहता 
                    ही न हो। नीता जैसे इतने दिनों से सोयी ही न हो थकी सो रही है। 
                    नया साल कितनी खुशियाँ लाया है, गिनने बैठ जाएँ, तो गिनती कम 
                    हो जाए, उदय और आशा के साथ बिताया एक-एक पल... जैसे बादल-सा फट 
                    पड़ा हो हमारे ऊपर, हम बस ठगे से देखते रह गए हों, इतने लाचार, 
                    पर इस लाचारगी में भी कितनी खुशी है।
 हर किसी के लिए खुशियाँ 
                    अलग-अलग परिभाषा रखती हैं। आज खाली बैठा था, नीता भी सो रही 
                    थी, तो कार ड्राइवर प्रकाश से बात हुई, अभी थोड़ी देर पहले। 
                    काफ़ी देर बाद शरमाते हुए बताया उसने कि जब हम न्यू इयर पार्टी 
                    में थे, वो अपने परिवार को उसके शब्दों में "सहर घुमाने नए साल 
                    पर" ले गया था। उसका न्यू इयर सेलिब्रेशन। सबकी एक अलग दुनिया 
                    सबका एक छोटा-सा स्वर्ग। अपने बच्चों, क्या नाम बताया था 
                    ज्योना या ज्योती और हाँ प्रिन्स के बारे में बताता रहा।आज सोच रहा हूँ, हम जीते क्यों है, खुशी की तलाश में। 
                    छोटी-छोटी बूँद बूँद टपकती, अपनी पवित्रता, बस एक झलक से 
                    सतरंगी हो जातीं खुशियाँ...जानता हूँ बहुत बड़ी चीज़ माँग रहा 
                    हूँ पर, हे भोर के तारे हर कहीं यही बूँद बूँद ही सही पर बस 
                    खुशियाँ भर दो...
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