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हमारे घर के ठीक सामने से एक कच्ची सड़क गुज़रती है। घर से सटी हुई यह सड़क बजरी के कारण लाल रंग की है। सड़क पार घर के ठीक सामने एक कम्यून है। लोग इस कम्यून को आश्रम कहते हैं। कम्यून के चारों ओर बहुत-सी ज़मीन है। कम्यून की चारदीवारी दूर-दूर तक फैलकर इस पूरी ज़मीन को घेरती है। चारदीवारी के अंदर सुपारी, नीली गुलमोहर, अशोक और कचनार के कई पेड़ लगे हैं। कम्यून के मुख्य द्वार से भीतर तक एक सड़क है, जिसके दोनों ओर गुलदावदी और एस्टर के मौसमी फूल लहराते रहते हैं। चारदीवारी में इतने पेड़-पौधे लगे हैं कि कम्यून का छोटा सफ़ेद भवन उनसे ढँककर छिप जाता है।

संकरी और तंग गलियों वाले इस मुहल्ले में यह कम्यून अजीब से सुकून और विस्तार के साथ है। मुहल्ले के चारों ओर की बेचारगियाँ और संकरापन इस कम्यून पर आकर खत्म होता है। मोहल्ले के तंगपन से बिल्कुल उलट एक पूरी खुली जगह, शोर शराबे के बीच एक बिल्कुल स्वाभाविक-सी चुप्पी, हज़ारों कदमों की चहलक़दमी के बीच एक जगह जहाँ शायद बरसों से कोई नहीं गया, रोज़मर्रा के दृश्यों से उलट एक ऐसा दृश्य जिसमें कोई आदमी तक नहीं दिखता है, मुहल्ले के खुलेपन और एक तरह के नंगपने के बीच ढँके छुपे कई-कई रहस्यों वाली एक जगह...। जैसे किसी रंगबिरंगी चादर को कोई चूहा कुतर जाए और कुतरन पर एक से रंग का बड़ा-सा थिगड़ा लगा दिया गया हो। कम्यून मुहल्ले की किसी कुतरन पर नहीं था, पर वह ऐसा ही लगता था। लोगों ने कभी भी उसे मोहल्ले का हिस्सा नहीं माना। यह रहा मोहल्ला बीरजी के घर से तलमले किराना स्टोर होते हुए, मुनिस्पालिटी के ऑफ़िस नंबर तीन तक जाती सर्पाकार सड़क और उस पर जगह-जगह कटने वाले चौराहों से भीतर उतरती संकरी गलियाँ और इन सबको झूमकर ठसाठस घेरे बेतरतीब हज़ारों हज़ार मकान जो बस चले तो सड़क और गलियों को भी खा जाएँ...। पूरा का पूरा एक मुहल्ला, एक नाम तिलंगा मोहल्ला वार्ड नं.७ नेता जी सुभाष वार्ड...। और जो कम्यून है, हमारे घर के सामने बजरी वाली सड़क के पार, वह जैसे इस मोहल्ले में होने की औपचारिकता भर है।

उन दिनों मैं छह साल का था। उस दिन दत्ता अंकल और पिता जी की बातें मैं सुन रहा था। मुझे मरने का मतलब पता था। मैं जानता था कि मरने से क्या होता है। यद्यपि उन दिनों मरने का मतलब आज के मतलब से काफी अलग था। उन दिनों मरने की बात से डर लगता था और इस डर से बचने के लिए मैं माँ की साड़ी से चिपक जाता था। पर सिर्फ़ डर ही नहीं था, कुछ रहस्य भी थे। उन रहस्यों को बंद किए कुछ प्रश्न भी थे। फिर प्रश्न हल होते गए। रहस्य खुलने लगा। फिर वह रहस्य नहीं रहा और इस तरह आज मरने के मायने बदल गए हैं। अब मरने की बात से डर नहीं लगता। डर की जगह अकेलापन आ गया है। मरना याने एक अंतहीन अकेलापन...जो दूसरे अकेलेपन की तरह कभी ना कभी समाप्त भी नहीं होता है। एक बेइलाज शाश्वत अकेलापन जिसका नाम मरना है।

शाम को जब पिता जी और दत्ता अंकल बगीचे में चर्चा में मशगूल रहते तब मैं और विभु स्टापू खेल रहे होते थे। रोज़ ही माँ हमें फटकार लगातीं, कि क्या ये लड़कियों वाले खेल खेलते हो? बाहर जाकर खेलो। ...माँ की फटकार एक रुटीन थी। लड़कियों वाला अंतर तब तक नहीं पता था। सब एक लगता था। क्या लड़का और क्या लड़की। क्या लड़कों का खेल और क्या लड़कियों का। हम अलग नहीं कर पाये थे। शायद इसी लिए माँ की उस फटकार में हमें फटकार पता नहीं चलती थी। वह रोज की बात थी। वे बस शब्द होते थे। एक क्रम से जमे, रोज के एक से शब्द....और हम स्टापू खेलते रहते।
'कल ही रवींद्र से बात हुई। वही बता रहा था, कि बाम्बे में........।'
'हाँ वे बीमार थे। दो एक महीने पहले मैंने सुना था, वे अस्पताल में भर्ती थे।याद नहीं आ रहा पर किसी ने बताया था।'
'बीमार.....।'
'यही पता चला था।'
स्टापू के खेल में कई समुद्र होते हैं।सात समुद्र से भी ज़्यादा और हम दोनों उन समुद्रों को पार कर रहे थे, अपने-अपने तरीके से।पर मेरा मन कुछ उचट गया था।क्या पता पिता जी और दत्ता अंकल सही कह रहे हों।वे जो बातें करते हैं, वे अक्सर सही ही होती हैं। क्या वास्तव में स्वामीजी मर गए?
'क्या बीमारी थी?'
'मालूम नहीं।'
'ये सब महात्मा के भक्त....। पता नहीं कहाँ-कहाँ के युवा लड़के-लड़कियाँ इस आश्रम में आते थे। मैंने तो सुना है, महात्मा जी बडे रंगीले मिजाज थे। कोई सैक्सुअल डिसीज था उनको... और पता है.....।'
दत्ता अंकल ने मुस्कुराते हुए कहा। पिता जी ने उनको धीरे बात करने का इशारा किया। दत्ता अंकल मुँह बिचकाते हुए मेरी तरफ देखने लगे।मुझे समझ नहीं आया। मैं भोंदू सा उन्हें देखने लगा। भीतर एक 'क्यों' बन गया। फिर पिता जी और दत्ता अंकल धीरे-धीरे खुसुर-पुसुर करने लगे। कभी दत्ता अंकल पिता जी के कान के पास अपना मुँह ले जाते, तो कभी पिता जी अपना कान उनके मुँह के पास कर देते। पर थोड़ी देर बाद फिर से दोनों तेज आवाज में बात करने लगे।
'इन सालों को भी यहीं अपना आश्रम खोलना था।'
'हुँह हो गया। अब कहानी खत्म.....।'
'हाँ लगता तो यही है।'
'क्यों अब क्या होगा? मर गया इनका स्वामी। वही तो था, सब करता-धरता। अब तो यह कम्यून बंद ही हो जायेगा। स्वामी मर गया। यह सबसे ठीक रहा।'
'जैसी करनी वैसी भरनी।'
'अच्छा हुआ पिंड कटा।'
'सही हुआ जो मर गया।'
'ऊपर वाला सब देखता है। उससे कोई नहीं बच सकता।'
यह सब सुनकर और कहकर पिता जी के चेहरे पर एक निश्चिंतता तैर गई। जब यह कम्यून खुला था, पिता जी उसी समय से इसके विरोधी रहे थे। पिता जी चाहते थे कि कम्यून ना खुल पाए। फिर जब खुल गया तब वे उसे बंद करवाना चाहते थे। माँ भी उनकी बात का समर्थन करती थीं। कुछ मोहल्ले के लोग भी जो ज़्यादातर पिता जी और दत्ता अंकल के परिचित थे, पिता जी की इस बात का समर्थन करते थे। पिता जी ने इस कम्यून को बंद करवाने की बहुत कोशिश की थी। मुनिस्पालिटी से लेकर नेताओं तक हर किसी को अर्ज़ियाँ दी थीं। मुहल्ले के कुछ लोगों को घेर घारकर नेताजी के पास भी ले गए थे। नेता जी ने पिता जी और मुहल्ले के लोगों की बातें सुनीं और कुछ अधिकारियों को फ़ोन भी किया। पर कुछ नहीं हुआ। मोहल्ले के कुछ लोगों को पिता जी की नेता जी वाली छवि खूब जमी, सो वे मोहल्ले से पार्षदी का चुनाव लड़ बैठे और हार गए। पर कम्यून वहीं रहा। उसका कुछ नहीं हुआ।

कम्यून ने मोहल्ले के लोगों के जीवन में कुछ बदलाव भी किया। हम लोगों को हिदायत दी गई थी कि हम कम्यून की तरफ़ कभी भी नहीं जाएँ। मोहल्ले के ज़्यादातर लोग कम्यून से दूर ही रहते थे। लोग वहाँ नहीं जाते थे, इसलिए उस कम्यून के बारे में बहुत कम लोगों को पता था। लोगों को नहीं पता था कि कम्यून में कौन-कौन रहता है? वहाँ क्या-क्या होता है? क्या वे लोग पूजा भी करते है? वे लोग कहाँ से आए है?...तरह-तरह की बातें और उनको लेकर उत्सुकताएँ। मध्यम-वर्गीय उत्सुकताएँ, जिन में कुछ भी गहरा नही होता, बस रोज़मर्रा की चीज़ें जानने की सतही-सी इच्छा होती है। रोज़ जो घट रहा है। जिसे हमेशा जाना है। बस उन्हीं चीज़ों को लेकर उपजी उत्सुकता। उन उत्सुकताओं में कोई विशेष बात नहीं थी। पर वे हर किसी की बात में थीं। हर कोई उत्सुक था। तुच्छ-सी बातों को लेकर उत्सुक था। वे उत्सुकताएँ इतनी साधारण थीं कि उन उत्सुकताओं का समाधान हो जाने पर भी कुछ नहीं होना था। किसी साधारण उत्सुकता का क्या तो होना और क्या उसका समाधान होना। पर लोगों ने बार-बार उनके बारे में बात करके उन उत्सुकताओं को अहम बना दिया था। वे उत्सुकताएँ हमारे लिए साधारण नहीं थीं। हमारे लिए याने मेरे विभु और संतोष के लिए। संतोष उम्र में मेरे बराबर था, पर विभु छोटा था। हमारे लिए संसार की तुच्छ चीज़ें भी अहम थीं। जैसा कि दूसरे बच्चों के लिए भी होती है। कम्यून की बातें हमें कौतूहल में डालती थीं। इस उम्र में जब तुच्छतम चीज़ों को लेकर भी कौतूहल होता है, तब लोगों की वे उत्सुकताएँ जो मात्र साधारण लगती है, उन दिनों हमें बड़ी महत्त्वपूर्ण लगती थीं। लगता था पता नहीं उस कम्यून में क्या है? लोग इतने उत्सुक क्यों रहते हैं? ज़रूर कोई बात है।

यह कौतूहल इतना बढ़ा कि एक दिन हम तीनों चुपके से उस कम्यून में घुस गए। चुपके से, यानी मोहल्ले वालों से बचकर। हमें सख्त हिदायत जो थी कि हम उस तरफ़ फटकें भी नहीं। पर हम यों ही नहीं गए थे। अक्सर जब हम खेलते कम्यून वाले स्वामी जी हमें कम्यून के अंदर से देखते। फिर एक दिन वे हमारे पास आए और हमें कम्यून आने को कह गए। स्वामी जी ने फिर हमें कई बार कम्यून आने को कहा। वे यह चाहते थे कि कम्यून के ठीक बाहर के मैदान में लगे सेमल के पेड़ों के नीचे खेलने वाले ये तीन बच्चे किसी दिन उनके कम्यून में आ जाएँ। उस रोज़ के बाद फिर हम कई बार चोरी छिपे कम्यून जाने लगे। यों धीरे-धीरे हमें कम्यून की बातें पता चलने लगीं। उस कम्यून की कुछ बाते हमें पता थीं। हमने उसे देखा जो था। चुपके से कई बार हम वहाँ गए थे। कालोनी के तीन एकमात्र छोटे प्राणी जो उस कम्यून गए थे। हमें लोगों के कई प्रश्नों के जवाब भी मालूम थे। पर हम उन्हें बता नहीं सकते थे। क्यों कि चोरी पकड़ी जाती। सो हम चुप रहे।

पिता जी और दत्ता अंकल बातों में मशगूल थे और मैं छत पर चला गया। छत से कम्यून बहुत साफ़ दिखता था। कम्यून के मेनगेट से भीतर तक जाती एक छोटी-सी सड़क। सड़क के दोनों ओर लगे सुन्दर फूल। पिता जी ने बताया था कि इन फूलों को एस्टर कहते है। गुलाबी और नीले रंग में वे वहाँ खिलखिलाते रहते। अर्जुन और पलाश के ऊँचे हरे-भरे पेड़ और उनके नीचे से झाँकती कम्यून की छोटी-सी इंगलिश टाइल्स वाली छत और गुलाबी सफ़ेद दीवारें...। उस शाम भी वह उसी तरह दिख रही थीं, जैसे की रोज़। शाम के सिंदूरी आलोक में भी वे ज़रा भी नहीं बदल पाती थीं। वे एक सी रहतीं।

मुझे याद आया एक दिन मैं फूलों के बीच से गुज़रने वाले उस रास्ते पर फिसल गया था। मैं चोरी से कम्यून में घुस रहा था। उस दिन मैं अकेला था। मेन गेट से भीतर आने के बाद मैंने तेज़ी से कम्यून की ओर दौड़ लगाई। ताकि जल्दी से पहुँच जाऊँ और कोई देख ना पाए। मैं गिर पड़ा। मेरा पैर छिल गया। मैं रोने लगा। स्वामी जी और वह महिला, हम उसे अंगरेज़न कहते थे। वह फिरंगी जैसी थी, कोई कहता हालैण्ड की है, तो कोई स्विटजरलैण्ड, तो कोई रूस,...पर हम उसे अंगरेज़न कहते थे। वे दोनों मुझे उठाकर अंदर ले गए। स्वामी जी ने मेरे घुटनों पर आई चोट को गर्म पानी से पोंछकर उसमें कुछ दवा लगा दी। मैं बुरी तरह से रो रहा था। फिर वे मुझे कम्यून के मेन हॉल में ले गए। उस हॉल के एक तरफ़ स्टेज बना था। उन्होंने मुझे फ़र्श पर बिछी दरी पर बैठा दिया। मैं अब भी सुबक रहा था। वे स्टेज पर चढ़ गए। उन्होंने माइक का कनेक्शन जोड़ा और बाँसुरी बजाने लगे। वे बड़ी सुन्दर बाँसुरी बजाते थे। फिर थोड़ी देर बाद वह अंगरेज़न भी आ गई। वह भी मेरे पास बैठ गई। स्वामी जी थोड़ा झूमझूमकर बाँसुरी बजा रहे थे। उनका चोगा अजीब तरीके से लहरा रहा था और उनके लंबे घुंघराले बाल जो उनके कंधों तक थे ज़ोर-ज़ोर से उछल रहे थे। स्टेज पर उनके जूते एक सुर में खट-खट की आवाज़ कर रहे थे। बाँसुरी और उस खट-खट की आवाज़ के अलावा वहाँ कोई आवाज़ नहीं थी। उन्हें ऐसा करता देख मुझे हँसी आ गई। मैं ज़ोर से हँसने लगा। अंगरेज़न ने ताली बजाई और वे बाँसुरी बजाते-बजाते स्टेज से उतर आए। फिर वे बाँसुरी बजाते हुए मेरे पास आ गए। मेरे सामने उनकी बड़ी काली आँखें, अधकचरी दाढ़ी और बाँसुरी रह गए। मुझे अभी भी हँसी आ रही थी। फिर उन्होंने अचानक बाँसुरी बंद कर दी। उन्होंने धीरे से मेरे माथे को चूम लिया। फिर अपने रूमाल से मेरे गाल पर बनी आँसुओं की लकीर पोछने लगे। फिर मुझे समझाने लगे, ''ज़रा सी तो चोट लगी है, इस में इतना क्या रोना। मैंने कहा, ''माँ मारेगी। मैं जब भी गिरता हूँ, माँ मुझे मारती है। कहती है कि मैं उधमी हूँ। इसी डर से रो रहा था।...'' मेरी बात सुनकर वे हँस दिए। फिर उन्होंने मुझे बताया कि वे मेरे लिए बाँसुरी की एक नई धुन तैयार करेंगे। उन्होंने उस धुन का नाम भी रख दिया- तुषार की धुन। फिर जब धुन बन जाएगी, तब मैं चुपके से कम्यून में घुस आऊँगा और वे मुझे सुनाएँगे। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे संतोष और विभु के लिए भी धुन बनाएँगे? उन्होंने नहीं कहते हुए अपना सिर हिलाया और मुझे बताया कि मैं उनका सबसे प्यारा व्यक्ति हूँ, सो वे सिर्फ़ मेरे लिए ही धुन बनाएँगे। कोई मेरे से उम्र में इतना बड़ा आदमी मेरे लिए धुन बनाएगा और मेरी फ़रमाइश पर मुझे सुनाएगा यह सोचकर मुझे बड़ा अच्छा लगा। मैं अपनी यह खुशी बाँटना चाहता था। पर किससे कहता। कम्यून जाने की चोरी जो पकड़ी जाती। सो मै चुप रहा।

फिर एक रोज़ मौका ताड़कर मैं कम्यून में घुस गया। अंगरेज़न ने बताया कि, स्वामी जी बीमार है। मैं धीरे-धीरे उनके कमरे तक गया। वे लेटे थे। मैं उनके बिस्तर के पास थोड़ी देर खड़ा रहा। मैंने अपनी हथेली मोड़कर उसी तरह उनका माथा छूकर देखा, जिस तरह मेरे पिता जी मेरा माथा छूते है, जब मैं बीमार रहता हूँ। मुझे ऐसा करता देख वे मुसकुरा दिए। फिर रज़ाई से उन्होंने अपने हाथ बाहर निकाले और मेरे हाथों को अपने हाथ में ले लिया। उनकी हथेली गर्म थी। उनकी गर्म हथेली में मेरे छोटे और ठंडे हाथ थे। वे बिस्तर पर लेटे लगातार छत की ओर देख रहे थे। उनकी बाँसुरी कमरे के कोने में टेबल पर रखी थी। मैं उस बाँसुरी को ले आया। वे शांत बने रहे। अक्सर वे मुसकुराते थे, पर उस दिन बहुत शांत रहे थे। उनका चेहरा कुछ पीला पड़ चुका था। आँखे कुछ बुझी-सी थीं। आँखों के चारों ओर एक अजीब-सा कालापन था। आँखें के किनारे पर एक गहरी झुर्री बन गई थी। जिससे होकर आँखों का पानी निकलता था। निकलने वाले पानी की एक लकीर बन गई थी। मैं बाँसुरी लिए बैठा रहा। वे मेरी ओर देखते रहे। उनका वह चेहरा मुझे आज भी याद है। मुझे देखकर उनकी चेहरे पर एक उम्मीद उतर आई थी। एक छह साल के बच्चे से जाने क्या उम्मीद थी, उनकी। वे बार-बार दरवाज़े की ओर देखते। अंगरेज़न बाज़ार चली गई थी और वे देख रहे थे कि अभी तक वह नहीं आई।

मेरे मन में आया उनसे कहूँ कि वे बाँसुरी बजाएँ। मैं उन दिनों बहुत छोटा था और समझ नहीं थी, कि वे ऐसा नहीं कर सकते। पर मैं चुप रहा। जाने क्या था मैं नही कह पाया? मैं ज़िद कर सकता था, पर लगा कि यह ठीक नहीं। वे अकेले थे। मैं दो बार वहाँ से जाने के लिए उठा, पर उन्होंने मुझसे थोड़ा और रुकने को कहा। जब मैं जाने को खड़ा होता वे मेरा हाथ पकड़ लेते और मुझसे रुकने को कहते। मैं इस तरह कभी किसी बीमार और अकेले आदमी के पास नहीं बैठा था। मुझे नहीं पता था कि इस तरह बैठे होने का कुछ मतलब होता हैं। कुछ बातें होती हैं जो लोग बीमार और अकेले आदमी के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहते हैं। मैं तो बस इसी उधेड़बुन में रहा कि कब स्वामी जी ठीक होंगे और मुझे बाँसुरी सुनाएँगे। आज सोचता हूँ कि उस दिन मुझे उनसे कुछ कहना था। कुछ कहे बिना नहीं लौटना था। एक अजीब-सी इच्छा कुलबुलाती है, काश उनसे मैंने बातें की होतीं। उनके बुझे चेहरे पर मुझे देखकर एक उम्मीद-सी दिखी थी। पता नहीं वे मेरे से क्या सुनना चाहते थे? क्या चाहते थे?...वह मेरी उनसे आखिरी मुलाक़ात थी। मैं चाहता तो आज मेरे पास कुछ शब्द होते जो उस दिन मैंने उनसे कहे होते। वे शब्द, वे बातें एक निधि के रुप में मेरे पास जमा होते, जिन्हें मैं बार-बार गिनता किसी कंजूस साहूकार की तरह। वे शब्द, वे बातें जो उस समय को जाया होने से रोक देते। उस क्षण को कोई मायने दे देते।
 

फिर रात घिरने लगी और मैं घर चला आया। अंगरेज़न तब तक वापस नहीं लौटी थी। जब मैं जाने लगा तब उन्होंने कहा कि जल्दी ही वे ठीक हो जाएँगे और मेरी वाली धुन पूरी करके सुनाएँगे। मैं खुश हुआ। मुझे खुश देखकर वे मुसकुरा दिए और मैंने पहली बार महसूस किया कि मुसकुराना भी कितना बनावटी हो सकता है।
पर फिर पता चला कि स्वामी जी को बाम्बे ले जाया गया था। उनकी तबीयत ज़्यादा खराब हो गई थी।

जब से स्वामी जी गए, तब से मैं उनका इंतज़ार करता रहा। जब भी उस कम्यून को देखता, मुझे लगता वे जल्द ही आएँगे। फिर मैं इधर-उधर से झाँककर देखने की कोशिश करता, क्या पता आ ही गए हों? मैं आश्वस्त था। वे लौटेंगे और उन्होंने मेरी वाली धुन भी तैयार कर ली होगी। रात को जब मैं सोता तो कभी-कभी लगता जैसे कम्यून का बाहर वाला बड़ा दरवाज़ा किसी ने खोला है और वहाँ कुछ हो रहा है। पर सुबह पाता कि ऐसा कुछ भी नहीं है। कम्यून का दरवाज़ा हमेशा की तरह बंद मिलता और बड़ा-सा ताला उसपर रोज़ की भाँति लटक रहा होता था। एक अजीब-सी विवशता मन में भर जाती...पता नहीं स्वामी जी कब लौटेंगे। और तभी पिता जी की बात याद आई-मर गया। ठीक रहा। अच्छा हुआ पिंड कटा।

मेरे भीतर कुछ प्रश्न उग आए। मुझे पिता जी से पूछना था। मैं अपने प्रश्न उन्हीं से पूछता था। पर दूसरे ही क्षण लगा कि यह प्रश्न मैं उनसे नहीं पूछ सकता था। क्यों कि ऐसा पूछने से कम्यून जाने की चोरी पकड़ी जाती।

उन दिनों हम तीनों कम्यून के पास के सेमल के पेड़ों के नीचे दोपहर भर खेलते थे। वे दिन बहुत जल्दी बीतने वाले दिन थे। उन दिनों ख़याल ही नहीं आता था कि दिन बीत रहे हैं। उन दिनों को मैंने कभी अपनी उँगलियों पर नहीं गिना और यों सेमल के पेड़ों के नीचे खेलते-खेलते हम थक जाते थे। जब थकते तब पेड़ों की छाया में बैठ जाते। उस दिन भी हम थके हारे बैठे थे। हम तीनों स्वामी जी के मरने के बारे में बात कर रहे थे।
'मर गए मतलब...?'
विभु ने पूछा। उसे मरने का मतलब नहीं पता था।
'जब कोई मर जाता है, तो फिर वह ना तो बात करता है, ना चलता है। बस वह पत्थर जैसा हो जाता है। उसी का मतलब है मरना।'
संतोष विभु को समझा रहा था।
'जैसे रात को सोते है।'
'अरे नहीं...। सोने के बाद तो फिर जाग जाते हैं। तुम ऐसे समझो जैसे सोये और फिर कभी उठे ही नहीं।'
विभु कुछ उलझ गया। वह असमंजस में था। वह हम दोनों को टुकुरने लगा।
'पर...।'
'पर क्या...?'
'पर कोई इस तरह नहीं सो सकता। हर कोई सोने के बाद जाग जाता है। कोई ऐसे कैसे सो सकता है कि फिर उठे ही नहीं।'
'इसे तो कुछ भी नहीं पता। तेरे को तो कुछ भी नहीं मालूम।'
यह मैं था। मैं बहुत देर से विभु को सुन रहा था।
'तुम्हीं लोग गलत हो। ऐसा कभी होता है कि सोओ और फिर ना जागो।'
'अरे वो तो इसने तुझे समझाने के लिए कहा। तू ऐसे समझ, जैसे उस दिन वो चिड़िया का बच्चा था। जो पेड़ से नीचे गिर पड़ा था। फिर वह कहाँ उठा। वह मर गया था। वैसे ही हो जाते है, मरने के बाद।'
'स्वामी जी भी गिर पड़े थे।'
'अरे नहीं। कभी-कभी बीमार होकर भी मर जाते हैं। फिर कभी बुड्ढे होकर भी मरते है। मेरे पिता जी बताते है, हर कोई मरता है। सभी लोग मरते है। जब मेरी दादी मरी थी, तब पिता जी ने मुझे बताया था कि मरने का क्या मतलब है? मरने के बाद सब ख़त्म हो जाता है। संतोष ठीक कहता है विभु, मरने के बाद ना बोल पाते हैं, ना चल पाते हैं...। मरने के बाद सब ख़त्म। अब समझा...।'
विभु अब भी असमंजस में था।
'स्वामी जी अब कब आएँगे?'
विभु ने पूछा।
'अब वो नही आएँगे।'
मैंने कहा।
'क्यों!'
'मरने के बाद वापस नहीं आते है। मरने के बाद सब ख़त्म हो जाता है। जो मर जाता है, फिर से नहीं आता।'
'तुम झूठ बोलते हो।'
'नहीं यही बात है। मेरे पिता जी ने बताया।'
'कोई ऐसे कैसे जा सकता है कि फिर ना आए।'
'मरने पर ऐसा ही होता है।
'स्वामी जी आएँगे।'
'चुप रह तुझे कुछ पता भी है। पिटपिटाता रहता है।'
यह संतोष था। वह विभु पर झल्ला गया था।
'मैं दीदी से पूछूँगा।'
विभु अपने प्रश्न अपनी दीदी से पूछता था।
'तेरी दीदी भी वही कहेगी, जो मैं ओर तुषार कह रहे है।'
'तुझे क्या पता?'
'देखना यही कहेंगी।'
'नहीं कहा तो...।'
'तो तेरी दीदी भी तेरे समान पागल है। पिटपिटाती पागल।'
संतोष उसे चिढ़ाते हुए कहने लगा। विभु को संतोष पर गुस्सा आ गया। उसने उसकी दीदी को जो भला बुरा कहा था। विभु की साँस गुस्से के मारे तेज़ चलने लगी। उसने अपनी छोटी-छोटी मुट्ठियाँ भींच लीं। संतोष उसे चिढ़ाते हुए जीभ दिखा रहा था। विभु रूआँसा हो गया। उसकी सांस अब भी तेज़ थी। संतोष अब भी उसे चिढ़ा रहा था। विभु ने तेज़ी के साथ संतोष का हाथ पकड़ा और उसकी बाँह पर अपने दाँत गड़ा दिए। संतोष चीख पड़ा। विभु संतोष का हाथ छोड़कर अपने घर की तरफ़ भागा। संतोष विभु को मारने उसके पीछे दौड़ा। आगे विभु और उसके पीछे संतोष। दोनों दौड़ते हुए मेरी नज़रों से ओझल हो गए। मैं सेमल के पेड़ों की छाँव में अकेला रह गया।

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