ऐसे समय
में उसे भैया पर भी गुस्सा आता है। वे क्यों नहीं उबार लेते इस
अंधेरे तहखाने से? क्यों नहीं लिख देते कि अमि, तू, यहाँ चली
आ मेरे पास। बम्बई। पहली बार भैया का ख़त आया था, तब पापा का
चेहरा कैसा-कैसा तो भी हो उठा था। अमि को लगा था अब तो वे उसे
भी भैया की तरह पीट-पाट कर निकाल देंगे। तब वह क्या करेगी? और
उसने भीतर ही भीतर अपनी भीरूता को फलांगने की कोशिश में एक
कमज़ोर निर्णय लिया था कि यदि पापा कुछ कहेंगे, तो वह भी बहस
पर उतर आएगी और कहेगी, 'पापा ये भाई-बहन के रिश्ते हैं। आप
इसमें क्यों खाई पैदा करना चाहते हैं?' मगर, पापा कुछ नहीं
बोले थे, तो उसने ख़ुद रह कर ही भैया को लिख दिया था कि आगे से
ख़त वे उसके स्कूल के पते पर ही लिखा करें। और ख़त स्कूल से अब
कॉलेज के पते पर आने लगे थे। स्कूल से कॉलेज तक की यात्रा के
बीच भैया अपने ख़तों में वैसे ही थे। मगर, पापा बदल गए थे। अमि
ने भैया को इस बदलाव का संकेत लिख भेजा था। मगर, भैया ने कोई
भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। गोया उन्हें पहले से ही इस
सारी परिणति का पता हो।
अमि सोचते-सोचते घुटने लगी, तो खिड़की पर खड़ी हो गई।
बाहर रोज़ की तरह धुँएली शाम
उतर आई थी। लॉन में कुर्सी डाले पापा व लोकेश बैठे बतिया रहे
थे। अमि जब भी पापा व लोकेश को बातें करते देखती है, तो उसे
लगता है, जैसे दोनों कोई भयंकर षड्यंत्र रचने में लगे हैं।
लोकेश मिसेज नरूला के भाई का लड़का है। पिछले कुछ महीनों से
यहीं है और अमि को घूर-घूर कर देखा करता है। अमि ने देखा,
मिसेज नरूला भी लॉन में आकर एक खाली कुर्सी पर पसर गई हैं।
खिड़की में खड़े उसे देखा, तो मिसेज नरूला ने अमि को आवाज़ लगा
ली, ''अमिया, नीचे आओ न!'' अमि बहुत अरुचि से नीचे पहुँच गई।
अमि को यह मार्क करके बहुत खीझ होती है कि ए मिसेज नरूला हमेशा
ही पापा की ओर कैसे-कैसे तो भी देखा करती हैं! हँसती भी तो
कैसी-कैसी हैं! मिसेज नरूला को हँसते हुए देखकर उसे हमेशा लगता
है, जैसे प्रकृति किसी से जन्म के साथ ही कुछ चीज़ें निर्ममता
से छीन लेती है। और, प्रकृति ने मिसेज नरूला से, जो चीज़ छीनी
है, वह है, हँसी की निश्छलता। और पापा भी मिसेज नरूला की
उपस्थिति में एकदम अजनबी व अनपहचाने-से लगते हैं। वह तअज्जुब
से घिर जाती है कि क्या पापा का मूँछोंवाला चेहरा इतना
कोमल-कोमल व प्यारा भी लग सकता है?
अमि चुपचाप रम्मी द्वारा लाए
गए एक मोढ़े पर बैठ गई। मिसेज नरूला कह रही है, ''अमिया, भई
तुम कितनी रिज़र्व्ड नेचर की हो। बिल्कुल मिस्टिक-रिक्लूज़। घर
से कॉलेज और कॉलेज से घर। चलो, आज शॉपिंग कर आओ, लोकेश के
साथ।'' मिसेज नरूला का यह वाक्य सुन कर अमि का चेहरा विकृत हो
आया। भीतर से इच्छा हुई कि कह दे, 'भला आप मेरे लिए इतनी
चिंतित क्यों हैं? मुझे नहीं जाना शॉपिंग के लिए।' क्या करूँगी
कुछ ख़रीद कर। सब कुछ तो भरा है, मेरी अल्मारियों में। और
दरअसल, जिस चीज़ की मुझे ज़रूरत है, उसके लिए शापिंग नहीं
होती।'
अमि ने पापा की ओर देखा।
पापा की विस्फारित आँखों में
लिखा पाया, एक सख्त़ आदेश कि हो आओ और वह कपड़े बदल कर लोकेश
के साथ चली गई। सारी शाम लोकेश की बदबूदार पसीने से लथपथ पीठ
से सटी स्कूटर पर घूमती रही। लोकेश ने कुछ सामान दिलवाया, तो
अरुचि से पैक करवा लिया। बोली एक भी शब्द नहीं। भीतर ही भीतर
उसका मौन तराशता रहा, उसके लिए कुछ शब्द, जिन्हें वह संकट की
स्थिति में शस्त्र की तरह इस्तेमाल कर लेगी। शब्द भी शस्त्र
होते हैं और उनके ज़रिए ही खींची जाती है। लक्ष्मण रेखाएँ।
पूरे समय अलगाव की तीव्र यातना भोग कर लौटी, तो पापा रसोई में
थे। पापा का चेहरा अतिरिक्त प्रसन्न था। वे ख़ुद रम्मी के पास
खड़े होकर गरम-गरम पकौड़े उतरवा रहे थे। अमि को देखते ही बोले,
''अमि तुम्हें ये खूब पसंद हैं न! आज मैंने तुम्हारे लिए ख़ुद
खड़े रह कर बनवाए हैं। खाओगी न!'' अमि क्षण भर को, यह दृश्य,
पापा का यह वाक्य, यह आग्रह, देखकर स्तंभित रह गई। अमि की समझ
में ही न आया कि इन क्षणों में वह क्या करे? खूब ज़ोरों से
हँसना शुरू कर दे या कमरे में जाकर फूट-फूट कर रोना। उसे लगा, लेबोरेटरी का वह सख़्त फ्लास्क आज अचानक टूट गया है और वह उसकी
ममताली तरलता में सराबोर हो उठी है। अमि ने ख़ुद को कोसा कि
भला वह कितनी मूर्ख है, जो पापा से जानबूझ कर डरी-डरी व दूर
रही। उनका इतना प्यार न पा सकी। पापा कितने प्यारे हैं ! अमि
के आनन्द का यह एक अकल्पित चरम बिन्दु था। उसका मन होने लगा,
शहर के सबसे ऊँचे मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से खिल
खिलाकर हँसे। हाँ, खूब ज़ोर से। आकाश की ओर मुँह करके।
मगर, जब डाइनिंग टेबुल पर
बैठे, तो पापा ने रम्मी से कह कर लोकेश व मिसेज नरूला को बुला
लिया। अमि को लगा, जैसे अचानक गर्म काँच पर किसी ने पानी की
बूँदें छींट दी हैं। कुछ क्षणों पहले पापा के विषय में उपजे
ख़याल टूट कर छार-छार हो गए। उसे पापा के चेहरे पर रिसती
आत्मीयता मात्र एक वहम लगी। एक स्पष्ट धोखा। पापा वही हैं।
एकदम वही। अमि से अनकंसर्ड, अनलिंक्ड और षड्यंत्रकारी। अमि
वापस ख़ुद की पहली स्थिति में लौट आई। लोकेश व मिसेज नरूला
ठहाकों के साथ पकौड़े खाते रहे। अमि को लगता रहा, यह सब अमि के
लिए नहीं था, इनके लिए था। लोकेश व मिसेज नरूला के लिए। वह
सोचने लगी, क्या उसके तमाम सुख ऐसे ही होते हैं कि उनके आख़िरी
सिरे से लटकता रहता है कोई न कोई अचीन्हा दु:ख?
अमि दो-चार पकौड़े उगल-निगल कर उठ गई।
अमि सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर आ गई।
कमरा खोला तो अंधेरा उससे ऐसे
लिपट गया, जैसे वह उससे लिपटने के लिए बहु-प्रतीक्षित हो। वह
कमरे में बत्ती जलाए बिना खड़ी रही, जैसे अंधेरे को अनुमति दे
रही हो कि वह उससे जितना लिपटना चाहे लिपट ले। वह चाहे तो उसकी
देह के रन्ध्र-रन्ध्र में उतर कर उसकी आत्मा को भी लील जाए।
बाद इसके बिस्तरे पर पड़ी-पड़ी पता नहीं कब तक रोती रही। काफी
देर बाद उठ कर देखा, तो लॉन में ड्राइंग-रूम में जलती बत्ती के
प्रकाश का हाशिया चुपचाप घास पर उसी तरह लेटा था। और अब केवल आ
रही थीं, कुछ आवाज़ें, जिनमें शब्द थे, ध्वनि थी, मगर अर्थ
नहीं थे। अमि को लगा, उसकी संवेदनाओं की गीली ज़मीन पर कोई
भयंकर तीखी चीज़ घसीट रहा है। फिर पता नहीं, अमि कब सो गई। अब
सिर्फ़ सन्नाटे को गाते झींगुर भर जाग रहे थे।
आँख खुली, तब सुबह हो चुकी
थी। धूप चढ़ने लगी व चढ़ती चली गई। मगर अमि नहीं उठी। रम्मी
ऊपर आकर आवाज़ देने लगा। उसके जी में आया कि वह जवाब ही न दे
और न ही दरवाज़ा खोले। आख़िर उठना ही पड़ा। झुंझलाहट में भरकर
सिटकनी हटाई। पापा खड़े थे। अमि घबरा-सी गई। यह पहला मौका था,
जब पापा ने उसे ख़ुद उठाया था, ''अमि, क्यों क्या बात है,
तबीयत तो ठीक है?'' पापा ने अतिरिक्त रुचि ली। अमि और भी अधिक
असहज हो उठी। लड़खड़ाते हुए बोली, ''जी, नहीं, पापा जी, ...जी
ठीक है।'' पापा लौट गए। वह आगे कुछ बोले इसके लिए जगह ही नहीं
बनने दी, उन्होंने। अमि सोचती रही। पहले तो पापा ने कभी नहीं
पूछा कि अमि क्या करती है? कैसी है? अब ए आरोपित चिंताएँ,
आरोपित आत्मीयता क्यों? आख़िर क्यों? यह अतिरिक्त परवाह और
प्यार क्यों?
अमि बेमन से नहाई। तैयार हुई
और कॉलेज चली गई। यह वही महीना था, जब हवा ख़ुद ठिठुरती तथा
ठिठुराती हुई घूमने लगती है। चारों तरफ। ऊपर-नीचे। बाहर-भीतर।
लड़कियों की गुलाबी एड़ियों को दरकाती हुई। कॉलेज की लैब्स में
शुरू हो जाती हैं, प्रैक्टिकल एक्ज़ाम की तैयारियाँ। कैम्पस
में चारों ओर यूकेलिप्टस के पत्ते शाखों और टहनियों से अलग
होकर उड़ने लगते हैं।
कॉलेज में कैमिस्ट्री व
फिजिक्स के तो पीरियड्स भी अटैंड नहीं किए। देर तक लायब्रेरी
की अलमारियों और शेल्फों में कहानियों की किताबें उलटती-पलटती
रही- फिर लेबोरेट्री में बैठ कर रिकार्ड बुक्स में डायग्राम्स
बनाती रही। घर के लिए कॉलेज से ही देर से निकली। पापा, लोकेश व
मिसेज नरूला रोज़ की तरह लॉन की अंतिम व दम तोड़ती धूप में
बैठे बतिया रहे थे। रम्मी पौधों को पानी दे रहा था। वह उनकी
उपस्थिति की उपेक्षा करती हुई अपने कमरे की ओर जाने लगी। पापा
ने आवाज़ दी। पापा की आवाज़ अमि को हमेशा आदेश लगती है। आदेश
भी नहीं सिर्फ़ कॉशन। अमि चुपचाप उन लोगों के पास पहुँच गई।
मिसेज नरूला पूछ बैठी,
''अमिया, लोकेश और हम अंग्रेज़ी-पिक्चर देखने जाने की सोच रहे
हैं, तुम भी चलोगी न! गर्ल ऑन मोटर साइकिल।''
अमि न कर गई। पापा के चेहरे की ओर देखा। पापा का चेहरा एकदम
सख़्त व आँखों में वर्जना की लाल रेखाएँ खिंच उठी थीं-जैसे,
कहना चाहते हों कि वह ख़ुद के विषय में निर्णय लेने वाली ख़ुद
कौन? अमि अपने नकारात्मक उत्तर को लेकर भयभीत-सी हो उठी। हाय!
पापा के सामने वह ऐसा कैसे कह गई। अमि ने अत्यन्त दयनीय मुद्रा
में, अपराधी-मन से सफ़ाई पेश करना चाही कि उसके कॉलेज में आज
फंक्शन था। सो काफी थक गई है। मगर, पापा ने उसका वाक्य भी पूरा
कहाँ होने दिया। बीच में ही बोले, ''रहने दीजिए, मिसेज नरूला,
इसके लिए तो इसके कमरे से बढ़ कर दुनिया में कोई भी चीज़ बेहतर
नहीं है। चलिए हम चलते हैं।'' और इन शब्दों के साथ पापा उठ कर
अंदर कपड़े बदलने चले गए। तेज़ कदमों से। उनके कदम, कदम नहीं
लग रहे थे, बल्कि जैसे मोर्चे की तरफ़ लपकता कोई बंदूकधारी
हो।
अमि का मन डूब-सा गया। हाय, अब वह क्या करे। पापा को कहे कि
नहीं, वह जाने को तैयार है या रोने लग जाए। पता नहीं, वह वाक्य
कहते समय पापा का चेहरा कैसा विकृत व क्रूर रहा होगा। अमि केवल
गर्दन नीचे किए लॉन की घास देखती रही और सामने की कुर्सियों पर
बैठे लोकेश व मिसेज नरूला के अस्तित्व का तीखा व व्यंग्यात्मक
एहसास करती रही। जूतों की आहट लौट आई। पापा तैयार होकर लौट आए
थे। तीनों हँसते हुए गेट की ओर बढ़ गए। अमि भीतर की तिलमिलाहट
दबाए वहीं उसी मोढ़े में धँसी रही।
कार की भरभराहट...
गेट छूटा... और तीनों दूर हो
गए।
अमि चुपचाप थके कदमों से,
आँखों का गीलापन लिए ऊपर अपने कमरे में आ गई। कमरे में लौटना
उसे अपने में लौटना लगता है। वह पलंग से सटी दीवार से पीठ टिका
कर, काफी देर तक निर्विकार-सी बैठी रही। उसके दिमाग में दीवार
के उस पार का कमरा घूमता रहा, जो कभी माँ का था और जिसमें माँ
की किताबें और कपड़ों की अलमारियाँ थीं-जिन्हें वह आज तक नहीं
देख पाई। उसे माँ की याद आई और आने लगी उसी के साथ ऊपर उठती
हुई एक अदीप्त व्यथा, जिसको उसने कच्ची उम्र से ही अंतस के
अछोर अंधेरे में रख छोड़ा था। सामने की खिड़की से अंधेरा और
हवा का झोंका एक साथ दाखिल हो रहा था, जिसमें दीवार पर लटका
कैलेंडर हिल रहा था- उसकी निगाह २८ फरवरी पर रुक गई, जिसे
उसने स्याही से लाल घेरे में क़ैद कर दिया था। यह माँ की
मृत्यु की तिथि थी- पापा, इस दिन प्रतिवर्ष मोमबत्ती जलाते
हैं। उसने माँ के प्रति आर्द्रता के साथ सोचा, 'काश माँ ने २९
फरवरी को आत्महत्या की होती तो उसकी पुण्यतिथि चार साल बाद
आती। पापा, को चार साल तक मोमबत्तियाँ जलाने से मुक्ति मिली
रहती।'
एक तेज़ भरभराहट। गाड़ी
गैराज़ में रखी जा रही है। टिक-टिक, मिसेज नरूला के हाई-हील के
सैंडल और इसी स्वर के साथ रिटायर्ड आई.पी.एस. अफसर के जूतों का
ठंडा मार्चिंग स्टेपवाला स्वर। शायद लोकेश नहीं है। फिल्म से
लौट आए हैं। रात काफी बीत चुकी है।
अमि की आँख अभी तक नहीं लगी। फिर काफी देर तक ड्राइंग-रूम से
बातचीत के अस्पष्ट-स्वर रात की ठंडी और बेआवाज़ हवा में फैलते
रहे। अमि के भीतर एक अज़ीब-सा सी.आई.डी. उभर आया। एकबारगी तो
इच्छा हुई कि दबे-पाँव जीने में जाकर सुने कि आख़िर ये लोग
क्या बातें करते हैं? मगर, यह सिर्फ़ सोच ही पाई। उस स्थिति
में पापा द्वारा पकड़े जाने के बाद की कल्पना ने अमि के जिस्म
में एक गहरा लिजलिजा कम्पन पैदा कर दिया। फिर कुछ देर बाद सब
कुछ चुप। सब दूर अंधेरा। अमि के मन में भय की एक वीभत्स आकृति
उभर कर बुरी तरह छाने लगी। उसकी इच्छा हुई कि बेड-स्विच ऑन कर
के ख़ुद को स्वस्थ कर ले। मगर, ऐसे में उसका अभी तक जागते रहना
उजागर हो जाएगा। अमि ने कंपकंपी रोकते हुए रज़ाई के पल्ले से कस
कर ख़ुद को सुरक्षित अनुभव करने की कोशिश की। उसे अक्सर ऐसे
त्रस्त क्षणों में भैया की याद आती है। वह आज कॉलेज में आए,
भैया के खत की पंक्तियाँ दुहराने लगी, ''अमि, तू चाहे तो एकाध
हफ़्ते के लिए यहाँ चली आ न! बम्बई देख-दाख कर लौट जाना।'' अमि
को भैया के चेहरे की आग्रह करती प्यारी-प्यारी मुद्राएँ याद
आने लगीं। वह ज़रूर जाएगी। लेकिन, क्या पापा उसके प्रस्ताव को
अनुमति दे देंगे...? यह सवाल बार-बार अमि के उत्साह पर चोट
करने लगा। ज़्यादा से ज़्यादा डाँटेंगे ही न? भैया कहा तो करते
थे, 'डाँट पापा के पाठ्यक्रम का अनिवार्य अध्याय।'
और अब अमि घर से भी कतराने लगी थी। 'घर` शब्द उसके लिए निहायत
ही त्रासद व अर्थहीन हो गया था। घर से कॉलेज के लिए निकलते
समय, क्षण भर के लिए उसे लगता कि वह घुटते दायरों में से एक
अज़नबी फैलाव के सुखद व आकारहीन अंतराल में आ गई है। मगर, कुछ
मिनटों बाद ही उसे कॉलेज भी एक तहखाना लगने लगता। धीरे-धीरे
घर और कॉलेज दोनों से ही उसकी आसक्ति टूटने लगी थी। हर समय
भैया के पास जाने का ख़याल मँडराता रहता।
और आज एक हफ्त़े बाद कॉलेज
गई। आज भी न जाती, मगर, पापा ने पता नहीं किसे 'इनवाइट' किया
था, जो सुबह से ही 'ड्राइंगरूम' को व्यवस्थित करने में लगे थे।
पापा के परिचितों के बीच अमि हमेशा हीन-भाव से भर उठती है।
पापा ने कॉलेज के लिए निकलते समय आदेश दिया कि वह ठीक समय पर
कॉलेज से लौट आए। अमि हामी में सिर हिला कर कॉलेज आ गई।
अब पीरियड में बैठे-बैठे भी बोर होने लगी, तो उठ कर लायब्रेरी
में आ गई। वहाँ भी मन न लगा, तो कॉमन रूम में आ गई। कॉमन रूम
में पहुँचते ही अमि खिल उठी। बोर्ड पर उसके नाम का ख़त था। अमि
ने बेकाबू उत्सुकता के साथ निकाल लिया। अमि के चेहरे पर फैली
इतनी असामान्य उत्सुकता को देख कर पास ही बैठे लड़कियों के
झुंड में से एक ने फब्ती कसी, ''कहो, अमि डियर, किसे उलझा रखा
है, जो ख़त पर ख़त दागता रहता है? घर के बजाय कॉलेज के पते
पर।'' अमि बिंध-सी गई। एक चुप्पी थी, एक मौन था, जिसके भीतर
कोई तीखी और धारदार चीज़ घोंप दी हो। जी में आया कि बढ़कर
तड़ाक से एक थप्पड़ जमा दे। मगर, सिर्फ़ ग्लानि-पूरित मन से
उनकी तरफ़ देखती हुई बाहर निकल आई।
बाहर आ कर उसने ख़ुद को फिर
फटकारा कि उसने उस लड़की को डाँट क्यों नहीं दिया। आख़िर, इस
प्रकार सब कुछ चुपचाप सहते जाना व एक घोंघे की ज़िंदगी में
क्या फ़र्क रह जाता है? वह, मुँह में ज़ुबान रखते हुए भी इतनी
गूँगी क्यों है? क्यों नहीं चीख पड़ती?
अमि की आँखें डबडबा आईं। बहुत धीमे से भीतर खौलती वेदना को
काबू करने की कोशिश में होठों का एक कोना दाँतों के नीचे दबा
लिया और चुपचाप ख़त खोलने लगी। ख़त खोला, तो पता चला कि आठ दिन
पहले का लिखा हुआ है। भैया ने बीमार रहते हुए लिखा था। वह आ
जाए। उनकी अपनी छोटी बहन अमि से मिलने की बहुत इच्छा है। अमि
पढ़ कर विचलित-सी हो उठी। मन शंका-कुशंकाओं की लहरों पर डूबने-उतराने
लगा। वह तेज़ कदमों से टैक्सी स्टैंड पर आ गई। कॉलेज से घर के
रास्ते के बीच पूरे समय आँसुओं को रोकने की कोशिश करती रही।
ड्रायवर ने अपने सामने के मिरर में रोते देख लिया, तो अमि ने
पर्स से गॉगल्स निकाल कर आँखों पर चढ़ा लिए। अवचेतन में जमे,
भैया से जुड़े न जाने कितने ममत्व भरे संदर्भ उभरते रहे। लगा,
जैसे वे तेज़ बुखार में हैं और उसका नाम बड़बड़ा रहे हैं।
घर आते ही किराया चुका कर सीधी तेज़ कदमों से अपने कमरे में
चढ़ आई। अमि ने अंदर पहली बार पापा के सामने ख़ुद का निर्णय
सुनाने का साहस भर आया था। जल्दी से सूटकेस निकाल कर अपने
तमाम ज़रूरी कपड़े जमा लिए। आँसुओं से तरबतर आँखें ऐसी लग रही
थीं, जैसे खौलते खारे पानी में दो कच्ची कलियाँ उबल रही हों।
बार-बार ख़त में भैया के हरफ़ों से निकलकर एक आहत आग्रह आ रहा
था।
पूरा सूटकेस तैयार हो गया।
अमि ने सूटकेस बंद करके एक
गहरी सांस लेकर फेफड़ों में साहस भरने की कोशिश की। तभी उसने
नीचे से पापा की गरजती आवाज़ सुनी। वे रम्मी को पता नहीं
कौन-सी बात पर डाँट रहे थे, ''नानसेंस, तुम्हें इतना नहीं
समझता कि मेहमान आ रहे हैं, और तुमने इम्पोर्टेड ग्लास का
फ्लावर पॉट तोड़ दिया, ब्लडी रास्कल।'' फिर एक आवाज़ आई सटा क!
जैसे पुलिस के अधिकारी ने अपराधी से मनचाहा उत्तर पाने के लिए
उसके जबड़े पर जड़ दिया हो, ज़ोरदार तमाचा।
अमि भीतर ही भीतर डूबने लगी।
रम्मी को थप्पड़ मारने के बाद, अब पापा फनफनाते ऊपर आ रहे हैं।
यह सीढ़ियों पर गिरते बूटों की पदचापों से स्पष्ट हो रहा था।
अमि के भीतर क्षण भर में ढेर सारी उथल-पुथल मच गई। लो पापा आ
ही गए। आते ही अपनी उस तिक्तता से भरे, स्वर में बोले। बोले
नहीं, जैसे बस उसे आदेशित किया, ''अमि, ज़रा जल्दी से तैयार
होकर नीचे आओ, हमें लोकेश के पापा-मम्मी को लिवाने स्टेशन चलना
है।'' पापा जिस तेजी से ऊपर आए थे, ठीक उसी तेज़ी से नीचे उतर
गए। अपने बूटों की पदचापों के साथ।
अमि की समझ में ही न आया कि अब वह क्या करे? सूटकेस का एक-एक
कपड़ा निकाल कर फेंक दे या ज़ोर-ज़ोर से चीख कर रोना शुरू कर
दे या ममी की तरह दौड़ कर टैरेस से फ्लैट के पिछले पथरीले
फ़र्श पर कूद पड़े। फरवरी की एक और तारीख कैलेण्डर में फिर घिर
जाएगी, लाल स्याही से, मोमबत्ती जलाने के लिए।
अमि रोते-रोते साड़ी बदलने
लगी। साड़ी बदलते हुए, इस पल में भी उसके सामने सब कुछ
गड्डमड्ड था। यह भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं था कि साड़ी बदल कर,
जब सीढ़ियाँ उतरेगी तो वह सूटकेस को हाथ में लेकर उतरेगी कि
सूटकेस को वहीं छोड़कर। |