''यह ई मेल और फ़ैक्स मुफ्त में नहीं होते मम्मी और
न ही फोकट में रिश्ते तय होते हैं। ये जितने एस.एम.एस और ज्योतिषियों से बात चीत
होती है इसका बहुत पैसा लगता है। पाँच छ: गुणा। यह मत समझ लेना कि ज्योतिषी यों ही
तुम्हारी कुडलियाँ बाँचने के लिए बैठे हैं। उनका असली उद्देश्य फोन करने वाले को
लंबी-लंबी बातों में उलझा कर रखना होता है। जितनी देर बात होती है फोन का बिल
बढ़ता जाता है। जिसमें उनका कमीशन भी होता है। यों ही बेकार में टी.वी. और समाचार
पत्रों द्वारा दर्शकों और पाठकों को निरन्तर किसी न किसी बहाने से एस.एम.एस करने
अथवा फोन करने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता। यह भी एक प्रकार की ठगी है जिसे
प्रत्यक्ष रूप से ठगी नहीं कहा जाता।'' रतन ने माँ और बहन की बातों में अनायास
हस्तक्षेप करते हुए कहा।
''और वह जो तुम अपने फोन फ्रेंड्स से लंबी-लंबी बातें करते हो वे क्या फ्री में
होती हैं। मैं जानती हूँ फोन पर मीठी-मीठी और अश्लील बातें करके फोन पर बातें करने
वाली बालाएँ भी तुम्हें भरमा कर अपना कमीशन कमाती हैं। देर रात तक तुम अपने
सहपाठियों से परीक्षा के प्रश्न पत्रों की बातें नहीं करते बल्कि अखबारों में छपे
ऐसे नंबरों पर उत्तेजक बातें करते हो'' रेणू ने नहले पर दहला जड़ते हुए कहा। बहन
की साफ़गोई सुन कर रतन इधर उधर बगलें झाँकने लगा और उसने मौन रहने में ही अपनी
भलाई समझी।
तभी घर में मिस्टर सचदेवा ने प्रवेश किया। बोले,
''क्या गुफ्तगू हो रही है। लगता है किसी विषय पर गहन विचार विमर्श हो रहा है।''
''आप कब आए। हमें तो पता ही नहीं लगा। आपने घंटी भी नहीं बजाई।''
मिसेज़ सचदेवा ने
पूछा।
''सोचा सभी लोग अपने अपने कमरों में फोनों पर व्यस्त होंगे। मैं भी मोबाइल पर बात
कर रहा था इसलिए अपनी चाबी से दरवाज़ा खोल कर भीतर आ गया। दरवाजा खोलने के लिए तुम
लोगों को डिसटर्ब करना ठीक नहीं लगा मुझे। वैसे भी आप लोगों को दिन भर कुरियर वाले
तंग करते ही रहते हैं।'' थोड़ा रुक कर बोले, ''अरे हाँ, मेरा कोई कुरियर तो नहीं
आया। एक बैंक जबरदस्ती क्रेडिट कार्ड देने के लिए पीछे पड़ गया था। मैंने हाँ कह
दिया। शायद आज कल में वह लोग कार्ड भिजवाते होंगे।''
''पहले ही हम सबके पास क्रेडिट कार्डों की क्या कमी है। अब तो यह भी याद नहीं है कि
कितने कार्ड हैं और किस किस के कार्ड हैं। किस का भुगतान कर दिया है और किस का बाकी
है। किस की बी.टी. किस बैलेंस ट्रांसफर का भुगतान करने के लिए ली गई है। किसी की लिमिट
पूरी हो गई है किस की बाकी है।''
''इसीलिए तो ये लोग एक के बाद एक क्रेडिट कार्ड
भिजवाते रहते हैं। बिना ब्याज के बी.टी. करते हैं ताकि कहीं चूक हो और मोटा पैसा
वसूल लिया जाए। ऊपर से देखने पर यह बात जितनी मासूमियत से भरी दिखाई देती है उतनी
है नहीं। ये लोग हमें एक प्रकार से उपभोक्तावादी संस्कृति का गुलाम बना रहे हैं। यह
एक ऐसा नशा है जो धीरे-धीरे व्यक्ति पर चढ़ने लगता है और वह इसका आदी हो जाता है।
बाद में दूसरे नशों की तरह ही यह छूटते नहीं बनता।'' रतन ने कहा।
''कह तो रतन ठीक ही रहा है। हम सब जानते हैं कि हम क्रेडिट कार्डों के मकड़जाल में
फँसते जा रहे हैं परन्तु इन्हें उसी प्रकार से छोड़ नहीं पाते जैसे शराबी शराब की
बुराइयों को जानने के बावजूद उसे छोड़ नहीं पाता। शराब पीने वाले सब जानते हैं कि
शराब पीना ठीक नहीं है फिर भी पीते हैं। इसी प्रकार हम जानते हैं कि क्रेडिट कार्ड
की संस्कृति एक दिन हमें ले डूबेगी फिर भी इसके चंगुल से बच नहीं पाते। बहुत
सुविधाजनक लगता है न सब कुछ। एक बार तो ऐसे लगता है जैसे सब कुछ मुफ्त में मिल रहा
है। बाद में भुगतान तो करना ही पड़ता है। मज़े में आ कर हम मौत को भूल जाते हैं
जैसे। हम न चाहते हुए भी उस भोगवादी संस्कृति का भाग बन जाते हैं जिससे हम नफ़रत
करते हैं। उदाहरण के रूप में ये स्टेटमेंट देख लो। कितने ही जुर्माने लगे हुए हैं।
समय पर पेमेंट करना तो आप को याद रहता ही नहीं। बेकार ही पनेल्टी भरती रहती हो,''
मिस्टर सचदेवा ने अपना सारा ध्यान अपनी पत्नी पर केंद्रित करते हुए कहा।
''और जो बिना ब्याज का पैसा मिलता है उसका क्या,'' लता ने तीखे स्वर में उत्तर
दिया।
''कौन देता है बिना ब्याज के। सब वसूल करते हैं हमसे ही। कभी पनेल्टी के नाम पर और
कभी फाइल खोलने के नाम पर। कभी यह चार्ज तो कभी वह चार्ज। ऐसे ही तो नहीं दिन भर
फोन करते रहते वे लोग। कहाँ से वेतन देते होगें अपने कर्मचारियों को। हमसे ही तो
वसूल करके न । हम से ही ठगते हैं। यह भी एक प्रकार का शोषण है।'' मिस्टर सचदेवा ने
कहा।
''और वह जो आप नाइजीरिया वाले ई मेल के चक्कर में लाखों रुपयों का चूना लगवा कर
बैठे हो उसका क्या। करोड़ों रुपए हाथ लगने की बात करते थे। हाथ क्या लगा ठेंगा।''
मिसेज़ सचदेवा ने ठेंगा दिखाते हुए ताना कसा।
''अब तुम उस दुखती रग को न ही छेड़ो तो अच्छा है। रोज़ ही तो ई मेल आते थे कि
करोड़ों रुपए बिना किसी वाली वारिस के पड़े हैं। मुझे लगा शायद किस्मत कोई गुल खिला
दे। फिर तुम्हारे ज्योतिषी भी तो बार-बार यही बता रहे थे कि अचानक कहीं से बहुत
बड़ी रकम हाथ लगने वाली है।'' मिस्टर सचदेवा ने जवाब दिया।
''हाँ हाँ यहाँ भी मेरा ही दोष है। अरे मेरे लिए तो दो चार सौ की दान दक्षिणा ही
पर्याप्त है। और कुछ न भी हो तो पुण्य तो मिलता ही है। किसी गरीब का पेट ही भरता
है। आपने तो हद ही कर दी। जीवन भर की सारी जमा पूँजी भेज दी नाइजीरिया।'' लता ने
दुख भरे स्वर में कहा।
''ठीक है- जो हुआ सो हुआ। अभी मुझे बहुत से ई मेल करने हैं। मैं अपने कमरे में हूँ।
वहीं एक कप गरमा गरम चाय दे जाना। सारा दिन ईमेल करते करते दिमाग फट गया है। न जाने
कहाँ से कैसे कैसे लोग क्या क्या ईमेल भेजते रहते हैं।` मिस्टर सचदेवा इतना कह कर
अपने कमरे में कम्प्यूटर खोलने के लिए चल दिए।
तभी फिर दरवाज़े की घंटी घनघनाई। दरवाज़ा खोलने पर
देखा कि कूरियर वाला खड़ा था। उसके हाथ में ढेर सारे लिफ़ाफ़े थे। हर लिफ़ाफ़े में
किसी न किसी फोन अथवा क्रेडिट कार्ड का बिल था।
रात्रि को डिनर टेबल पर सारे लिफ़ाफ़े खुले रखे थे। चारों इस बात का हिसाब किताब
लगा रहे थे कि कहाँ से बैलेंस ट्रांसफर करवा कर किस बिल का भुगतान किया जा सकता है।
खाना बनाने और खाने की किसी को भी फुर्सत नहीं थी। फोन से क्रेडिट कार्ड नम्बर दे
कर मँगवाया गया खाना मेज़ पर पड़ा-पड़ा ठंडा हो रहा था।
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