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मुन्नालाल बोले, ''जनतंत्र ख़तरे में है! सरकार भी बार-बार चिल्ला रही है, जनतंत्र सुदृढ़ करना है! और तुम सवाल कल पर टाल रहे हो! ..नहीं, एक पल गंवाना भी अब ठीक नहीं है। वैसे भी दिल्ली में शरीफ आदमी रात के समय ही दूसरों के दरवाजे खटखटाते हैं। बाल-बच्चों को थ्री-व्हीलर में बैठाकर घर रवाना करो और मेरे घर चलो।''
दादा से जान छुटाना मुश्किल था। उनकी दरियादिली को कोसते हुए हमने अपना रेवड़ तिपहिए में बैठा कर घर की तरफ रवाना किया और दोनों चल दिए लाल बुझक्कड़ के घर की तरफ। दरवाजा खटखटाने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। दरवाजे पर टँगा टाटनुमा लत्ता उठाया और दोनों घुस गए अपने प्रिय दार्शनिक के घर। टूटी खटिया पर विश्राम की मुद्रा में लाल बुझक्कड़ भट्टे की चिमनी की तरह मुंह के रास्ते धुआँ उगलने में मशगूल थे। हम दोनों भी पालने-नुमा उनकी खाट पर पसर गए। मुन्नालाल ने अपना मंतव्य लाल बुझक्कड़ के सामने रखा।
मुन्नालाल की बात सुन लाल बुझक्कड़ ने रामजी की तरफ मुंह उठाया और जबड़ों में फंसा धुआँ उगला। फिर चिकनी चांद पर खुरदरा हाथ फेरते हुए दार्शनिक मुद्रा में बोले, ''बरखुरदार! सवाल बुनियादी भी है और गंभीर भी। इसे हल करना है, तो मौके का निरीक्षण करना जरूरी है।''
मुन्नालाल ने घड़ा-सा सिर हिला अपनी सहमति जाहिर की। लाल बुझक्कड़ ने लुंगी लपेटी और विजय अभियान की मुद्रा में दोनों खफ्ती घर से राजपथ-जनपथ चौराहे की तरफ निकल पड़े। मुसीबत के मारे हम भी टांग घसीटते-घसीटते उनके पीछे-पीछे हो लिए।
चौराहे पर पहुंच मुन्नालाल ने लाल बुझक्कड़ को समझाया, ''दादा, यह इंडिया गेट की तरफ से घुसा राजपथ और सरकार के बीच से गुजरता जा पहुंच गया राष्ट्रपति भवन। इधर कनाट प्लेस के हृदय-स्थल से चला जनपथ और निकल गया अकबर रोड की तरफ। यह रहा चौराहा।''
लाल बुझक्कड़ ने सेमीनारी-बुद्धिजीवी के लहजे में कहा, ''हूं! एक बात तो है, बरखुरदार लंबाई तो जनपथ की ही ज्यादा दीखती है!''
मुन्नालाल बोला, ''मगर इससे क्या होता है! सवाल तो यह है कि दबदबा किसका है?'
लाल बुझक्कड़ ने फिर हुंकार भरी और निरीक्षण की मंशा से चौराहे के चक्कर काटने शुरू कर किए। तभी बादलों के बीच बिजली-सी गरजती एक आवाज आई, ''जहां हो वहीं रुक जाओ। वरना गोली मार दूंगा।''
इसी के साथ जनतंत्र के पहरेदारों ने तीनों को चारों ओर से घेर लिया। एक ने पूछा, ''सालों! रात के एक बजे क्या कर रहे हो।'' दूसरे ने जुबान पवित्र करते हुए कहा, ''जनाब! पूछना क्या? जरूर आतंकवादी होंगे, बम रखने की फिराक में हैं! बिठाओ जिप्सी में!'' धक्के मार-मार कर तीनों को जनतंत्र की गाड़ी में बैठा दिया और इसी के साथ गाड़ी चल दी थाने की ओर।
उजड़े-उजड़े से तीन लोगों को जिप्सी में बैठा देख थाना सतर्क हो गया। मगर जनतंत्र का अलम्बरदार सो रहा था। जगाया गया। मामला उसके कानों में उड़ेला गया।
अलम्बरदार ने ऊँघते-ऊँघते कहा, ''हवालात में डाल दो सालों को सुबह देखेंगे। काहे नशा खराब करता है!'' तीनों बंद कर दिए गए। हम आने वाली मुसीबत के बारे में सोच-सोच पगला रहे थे। मगर मुन्नालाल और लाल बुझक्कड़ आमने-सामने चौपड़ सी बिछाकर बतियाने बैठ गए। दरअसल वे 'दोनों' जनतंत्र के पहरे में अपने आपको कुछ ज्यादा ही सुरक्षित महसूस कर रहे थे।
लाल बुझक्कड़ ने हवालात में कहीं से कोयले का एक टुकड़ा खोजा और फर्श पर लकीरें खींचना शुरू कर दिया। हम अपनी किस्मत पर रो रहे थे और वे दोनों जनतंत्र के सवाल को रेखागणित के सिद्धांत से खोजने में जुटे थे।
लाल बुझक्कड़ ने एक लकीर खींची और बोला, ''देखो मुन्नालाल! यह रहा जनपथ!'' ऊपर से दूसरी लकीर उकेरते हुए फिर बोला, ''यह हुआ तुम्हारा राजपथ! अब दोनों यहां आकर मिले। यह बन गया चौराहा!''
लाल बुझक्कड़ का हाथ रोकते हुए मुन्नालाल बोला, ''सुनो दादा! इस तरह तो जनपथ का निर्माण पहले हुआ और राजपथ का बाद में। फिर तो हो गया सवाल हल, राजपथ ही जनपथ के ऊपर से गुजर रहा है!''
लाल बुझक्कड़ ने मुन्नालाल को झिड़का, ''अबे चोंच बंद कर पिल्ले की औलाद! ..यह चौराहा कहां जाएगा? बड़ा आया सवाल हल करने वाला। सवाल जनतंत्र का है। तेरे जैसे आम लोग इस मायाजाल को समझ बैठे तो खिचड़ लिया जनतंत्र का छकड़ा!''
लाल बुझक्कड़ ने बीड़ी सुलगाई और लंबे-लंबे चार-पांच कश खींचे। फिर खोपड़ी पर हाथ फेरा और चिल्लाया, ''ले निकल आया हल!'' मुन्नालाल ने पूछा, ''कैसे दादा?'' लाल बुझक्कड़ बोला, ''अक्ल के अंधे, यह रहा जनपथ और यह रहा राजपथ।'' मुन्नालाल ने हामी भरी। लाल बुझक्कड़ ने बात आगे बढ़ाई, ''देख यहां दोनों मिले और दोनों के बीच आ गया चौराहा। यहां खड़ा हो गया सिपाही! बस फिर क्या निकल आया सवाल!''
''मगर कैसे?'' मुन्नालाल ने उत्सुकता के लहजे में कहा। लाल बुझक्कड़ बोला, ''देख, कोई किसी के ऊपर से नहीं गुजर रहा है! दोनों ही अपनी-अपनी राह चल रहे हैं! मगर यह चौराहा और उस पर खड़ा यह सिपाही देख रहा है, ना तू। यह है 'हाईफन' समझ में आया कुछ! ..अबे! नहीं समझा! अरे सीधी-सी बात है, जनतंत्र की उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही है जन और तंत्र के बीच 'हाईफन' आता जा रहा है। मरम्मत के नाम पर जैसे-जैसे जनतंत्र की समीक्षा होगी, 'हाईफन' का आकार बड़ा होता चला जाएगा!''
मुन्नालाल के दिमाग में बात फिर भी नहीं घुसी। घुटनों के बल बैठता हुआ वह बोला, ''मगर दादा जन और तंत्र तो आज भी एक ही सिरे से बंधे हैं। तभी तो 'जनतंत्र' बना। 'हाईफन' मुझे तो कहीं दिखलाई नहीं दे रहा है।''
अब हमसे नहीं रहा गया। हमने कहा, ''भइया, छोड़ो बेकार की बातें! जन और तंत्र के मध्य यह 'हाईफन' तो राजा-महाराजाओं के समय से ही चिपका पड़ा है! मुगल काल में भी था और अंग्रेजी राज में भी! रही बात आजादी के बाद की, कुछ सिरफिरों ने जन-तंत्र की बीच लगा 'हाईफन' हटाने की कोशिश की थी, मगर सफल नहीं हो पाए!''
हमने अपनी बात आगे बढ़ाई, ''भइया, अभी शाम ही की तो बात है, जब तुम पिटे थे तंत्र के हाथों! अब हम तीनों बंद हैं ही तंत्र की इस आरामगाह में! फिर तुम्ही बताओ जन और तंत्र एक साथ कहां मिले? चचा लाल बुझक्कड़ ठीक कहते हैं जन-तंत्र के बीच 'हाईफन' लगा हुआ है!''

हमारी बात सुन लाल बुझक्कड़ उछले, ''बरखुरदार ने समझ ली हमारी थ्योरी! ..मुन्नालाल! नेता कहते हैं कि तंत्र जन के सेवार्थ है! मुझे आज की सेवा देख लग रहा है कि जन ही तंत्र की सेवा में मशगूल है!''
दोनों के प्रवचन ध्यान से सुन मुन्नालाल बड़बड़ाया, ''मगर एक बात तो बताओ यह हाइफ़न लगा क्यों?'
एक सवाल हल हुआ नहीं कि मुन्नालाल के उर्वरा दिमाग में एक नया सवाल पैदा हो गया। इसी उधेड़-बुन में सुबह हो गई। जनतंत्र के अलम्बरदार की आंखें खुलीं और उसी के साथ खुले हवालात के ताले। दरोगा ने फर्श पर लकीरें खिंची देखीं। पूछा यह क्या तमाशा है। जुआ खेल रहे थे?
मुन्नालाल ने सवाल दोहराया, दरोगा हँस दिया और बोला, ''अरे, हाकिम सिंह किन पागलों को पकड़ लाया। बाहर करो सालों को।''
हाकिम ने दरोगा का हुक्म बजाते हुए तीनों की जामा तलाशी ली। हमारे हाथ से घड़ी खुलवाई, लाल बुझक्कड़ की जेब से बीड़ी का बंडल और मुन्नालाल की जेब में निकला पाँच रुपए का सरकारी नोट। तीनों का वजन हल्का कर सिपाही ने कमर पर एक-एक जड़ी जनतंत्र की लाठी और बोला, ''सालों! फिर मत दिखलाई पड़ना आसपास भी। ..जन-तंत्र में जन पहले आता है, तंत्र बाद में, इसलिए तंत्र ही जन के ऊपर सवारी कर रहा है!''

जनतंत्र के पहरेदार ने मुन्नालाल के बुनियादी सवाल का जवाब कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों ही दृष्टिकोण से दे दिया। किंतु मुन्नालाल अभी संतुष्ट नहीं है, क्यों कि अब बुनियादी और अनुत्तरित सवाल 'हाईफन' का है! आप हल कर सकें तो कृपया बताना जन-तंत्र के बीच यह हाइफ़न क्यों? मुन्नालाल आपके जवाब की प्रतीक्षा में है।

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२१ जनवरी २००८  

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