लड़का डाक्टर
है, अच्छा ही है ये पढ़ाई में तेज़ है, पर बी.ए. कर ले, बहुत
है, बी.एससी. है ही कहाँ यहाँ, कौन लेकर जाएगा इसे रोज़-रोज़
कॉलेज तक 20 किलोमीटर। अब भई इतनी मेहनत लड़कों के साथ चलो की
भी जा सकती है, समझा करिए, बड़ी दिक्कत वाली बात है। दीवारें
ऊँची लगने लगी थीं उसी दिन से, पर कितनी खुश हुई थी मैं जब
अपने यहाँ भी बी.एससी. शुरू हो गया था, उसी साल। मिश्रा जी ने
सबसे पहले पिता जी को ही बताया था, और मैं कहती थी ना कि पिता
जी मान जाएँगे उन्होंने एडमीशन भी तो करवा दिया था।
अभी सोच रहे होंगे, कि मैंने बी.एससी. पूरा क्यों नही किया।
मुझे तो कोई ज़रूरत ही नहीं थी, क्या करती और अभी भी क्या कर
रही हूँ बी.ए. का भी। हँसो और कहो डाक्टरनी हो ना मज़े से बैठी
ही तो रहती होगी। घर की दीवारों में आँखें भी तो थीं, बड़ी-बड़ी
तेज़ आँखें, आँखें दीवारों की तरह एक जगह रुकी हुई कहाँ थीं,
घूमती रहती थीं, मेरे आगे पीछे, ऐसी ही किसी आँख ने क्लास के
बाद, वो एक मुसलमान लड़का था ना, मुझे तो नाम भी याद नहीं अब,
उससे बात करते देख लिया था। उस दिन के बाद दीवारों ने मुझे बस
बी.ए. की परीक्षाओं के लिए ही निकलने दिया, और फिर यहाँ के लिए
इनके साथ कार में, तुम्हारे घर भी तो कितना कम आने लगी थी। तुम
क्या जानो तुम तो परदेसी ठहरे, आते ही कितना कम थे, कितनी पढ़ाई
थी। उस दिन वो आँखें पिता जी की आँखों में समा गई थीं, जब
उन्होंने पहली और आज तक आख़िरी बार मुझे थप्पड़ मारा था, पत्थर
की आँखें, पथरीली, लाल ईटें होती हैं ना वैसी. . .
तुमने पूछा था काम, काम यहाँ
है ही नहीं, मैं तो कहती हूँ माँ जी से कि कुछ नौकर कम कर
दीजिए पर मेरी सुनती ही नहीं। मुझे बस खाना परोसना है, बाकी हर
काम तो बाकी लोग ही करते हैं। मज़े करो, यही कह रहे होंगे, हँस
भी रहे होंगे। सुधा के लिए ये कभी-कभी पत्रिकाएँ ले आते हैं,
पर अब तो मन भी नहीं होता कुछ पढ़ने का, और मैं खुद कभी कहती भी
नहीं इनसे। मुझसे अच्छा तो मिट्ठू है, अरे वही हरियल कम से कम
मन कि बात तो कह सकता है, भले ही पंख फड़फड़ा कर कहे। सोचती हूँ
किसी दिन पिंजरा खोल दूँ, उड़ा ही दूँ इसे। पर मेरे घर की
दीवारें तो ऊँची हैं कोई पंछी ही बाहर उड़ कर जा सकता है, मेरे
और हाँ तुम्हारे जैसे भी. . .इंसान कहाँ से इतनी ताक़त
लाएँगे, कि उड़ने की सोच भी सकें. . .
पता नहीं तुम भूल गए या
तुम्हें याद है, जब तुम आने वाले थे छुट्टियों मे। कितने दिनों
बाद तुम्हें देखने वाली थी, ट्रेन का टाइम 12 बजे था और मैं घर
से मिताली दीदी को मिलने का बहाना बना कर 10 बजे से ही बैठी थी
तुम्हारे यहाँ। बहाना इसलिए क्यों कि दीवारों की ऊँचाई का
कुछ-कुछ अंदाज़ा लगा चुकी थी तब तक, और आई इसलिए थी क्यों कि
पंख बाकी थे तब तक। शायद पिंजरा भी नहीं मिल सका था दीवारों को
अभी मेरे लिए। दीवारें तो तुम्हारे घर में भी थीं, आँखों वाली,
चाची जी की आँखों में, पर मुझे तो रुकना ही था।
आज भी जब इनकी छोटी बहन, मेरी
ननद सुधा बार-बार माधुरी से मिलने जाती है, मुझे वही दिन याद
आता है, जब मैंने 2 घंटे उन काँटेदार आँखों वाली दीवारों के
सामने बिताए थे। मिताली दीदी के कमरे में थी पर जाने कितनी बार
चाची जी आकर माँ, पिता जी और दादी का हाल पूछ गई थीं। मुझे तो
रुकना ही था, तुम्हें देखना जो था इतने दिनों बाद, पंख भी तो
बचे ही थे मेरे तब तक। और फिर तुम आए भी नही. . .पर आज जब सुधा
जाती है, मैं मन ही मन यही सोचती हूँ कि मदन आ गया हो,
तुम्हारी तरह वो भी बस फ़ोन ना करे, कि आ नहीं सकता अभी कुछ
काम बचा है, बड़े आए काम वाले। हमेशा ही लेट-लतीफ़ रहे हो।
कभी-कभी लगता है कि ग़लत कर
रही हूँ सुधा को रोकना चाहिए। उसे भी पता चलना चाहिए कि
दीवारें ऊँची हैं, सपनों की दुनिया में ना रहे। ऊँची हैं और
पत्थर की बनी हैं, कोई सिरफिरा ही तोड़ना चाहेगा, जैसा तुमने
चाहा था, मैंने भी, पर मुझे शायद अंदाज़ा था कुछ-कुछ ऊँचाई और
मज़बूती का। तुम तो घर इतना कम रहे हो, शायद ना जानते हो, मैं
भी तो बहुत दिनों बाद जान पाई थी। पर तुम इतने सिरफिरे क्यों
बन गए सुमित, ये क्यों किया. . .?
सुधा जब भी खुश-खुश लौटती है,
होंठों पर एक दबी हँसी और थोड़ी-सी मीठी खीझ लिए हुए, जब भी
पढ़ते-पढ़ते एकदम से हँस पड़ती है, बालों में उँगलियाँ फिराती
है या घर भर में नाचती फिरती है, कभी ज़ोर से कभी मन ही मन खुश
होते गाने गाती है, भले ही माता जी उसे कुछ भी कहती रहें, जैसे
मेरी माँ कहा करती थी, मैं भीतर से काँप जाती हूँ एक अनजानी-सी
खुशी की चमक के साथ डर की बिजलियाँ भी कड़कती हैं, और फिर
अँधेरा, काली रात। फिर भी ना जाने क्यों एक संतोष है, पंछी अभी
भी चौपाए नहीं बने, ज़मीन पर चलना उन्हें समय ही सिखाएगा अब भी,
जैसे मैंने सीखा, कितनी समझदार निकली मैं, नहीं? पर तुम हर
कविता का मतलब मुझे समझाने वाले. . .इस छोटे से मेरे तुम्हारे
जीवन की कविता का कोई मतलब नहीं, नहीं हो सकता, समझ क्यों नहीं
पाए. . .इतने नासमझ कैसे हो गए?
रात बहुत हो गई है, अब बंद
करती हूँ, अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है। देखना अभी टयूब लाइट
जलाऊँगी और ये सारा अंधेरा तो नहीं कम से कम मेरे आस-पास का तो
चला ही जाएगा। पर कभी-कभी जब बिजली चली जाती है, अँधेरे मैं
बहुत डरती हूँ तब। पर हाँ तब कोई दिया जलाती हूँ, डर कैसा भाग
जाता है मानो दिये से डरकर भागा हो, ये सारी तुम्हें लिखी गई
चिट्ठियाँ भी शायद इसीलिए लिखती हूँ। अँधेरे के दिये की तरह
तुम्हें लिखी ये चिट्ठियाँ मेरा संबल हैं, पतवार हैं, हथियार
हैं, शक्ति हैं मेरी, इन दीवारों के खिलाफ मेरी लड़ाई में,
जिसकी शुरुआत तो तुमने की पर मैं साथ न दे सकी. . .
यहाँ कहीं आस-पास होते और
मुझे पता दिया होता तो भेज भी देती इन चिट्ठियों को। पर तुम तो
अख़बार की उस कटिंग में कैद हो जहाँ तुम्हारे नाम के साथ जाने
क्यों लिखा है कि तुमने होस्टल के पंखे से लटक कर जान दे दी,
ऐसा क्यों किया? तुमसे आख़िरी बार मिलने भी नहीं आ सकी,
तुम्हें विदा करने भी नहीं आ पाई, जैसे तुम नहीं आ पाए थे मुझे
विदा करने। कहते तो थे हँस कर कि देवदास की तरह तुम्हारी डोली
में कंधा दूँगा, झूठे कहीं के। मैंने भी तो कहा था कि वो तो बस
फ़िल्म में था, शरत ने भी अपनी देवदास में बहुत सोच कर भी ये
कहाँ लिखा। उसमें तो भाग गया था देवदास, और तुमने, अपनी नहीं
मानी, मेरी मानी, शरत की मान ली।
पर मैं भागूँगी नहीं, क्यों कि
सुधा को और इस घर की दीवारों को जब भी देखती हूँ अपने घर की
दीवारें याद आती हैं, उनमें कैद, मैं खुद याद आती हूँ। मैं
तुम्हारी तरह इन दीवारों को और ऊँचा, और मज़बूत नहीं होने
दूँगी, हाँ तुम्हारी तरह दीवारों से हार कर उन्हें जीतने की
खुशी या और ऊँचा होने का एक और कारण नहीं दूँगी। अगर दीवारें
ऊँची हैं तो मैं सुधा को अपने टूटे ही सही पंख दे दूँगी, और
उड़ते देखूँगी उसे इन दीवारों के उस पार जहाँ मदन उसका इंतज़ार
कर रहा होगा, जैसे तुमने किया था, मेरा उस रात, पर मैं उड़ नहीं
पाई, और तुम चले गए. . .जाने कहाँ।
अब तुम्हारी नहीं (लड़ाई छोड़
कर भाग गए किसी कायर की नहीं हो सकती मैं. . .कभी भी नहीं)
कविता
कायदे से तो कहानी यहीं तक
पूरी हो जानी चाहिए थी। जाने कितनी पुरानी ठीक इसी के जैसी
प्रेम कहानियों की तरह, हाँ, यहाँ थोड़ा-सा और भी कुछ आगे भी
हुआ। ये तो नहीं पता कि सुधा और मदन उड़कर ऊँची उठाती दीवारों
के पार जा सके या सुधा एक और कविता ही बनी, शादी के बाद भी
प्रेमजयी काल के आगे, अपने प्रेमी को पत्र लिखती। सुधा मिट्ठू
की तरह पिंजरे में बस मन ही मन फड़फड़ाती रही या उड़ सकी, या
मदन भी पेपर की कटिंग ही बना या नहीं। हाँ, उसी रात जब ये लिखा
गया, इतना ज़रूर हुआ कि कविता ने इस चिट्ठी को भी बाकी सारी
चिट्ठियों की तरह ही पानी में थोड़ी देर भिगोया फिर जब लुगदी बन
गई, स्याही काग़ज़ का साथ छोड़ बह गई, तो कूड़े में डाल दिया, और
मिट्ठू का पिंजरा छत पर ले जाकर उसे उड़ा दिया। बाकी कविता की
ही भाषा में कहें तो, दीवारों की आँखें भी थीं इसलिए पिंजरा
फिर से उसकी ही जगह पर रख दिया, दरवाज़ा हल्का-सा खुला छोड़ कर.
. . आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही थीं. . .और मिट्ठू का आसमान
भी उसका अपना. . .।
शायद आज से एक साल पहले इन
मज़बूत दीवारों के उस पार खड़े, सुमित के साथ इनके पार न जा
पाने और सुमित के अख़बार की कटिंग बन बचे रह जाने के लिए उसका
आज का पश्चाताप इतना ही था, और अपना विरोध जताने का बस यही एक
आख़िरी तरीका। बात फिर वही, आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही
थीं. . .और मिट्ठू का, सुमित का, सुधा का, मदन का आसमान भी,
थोड़ा बहुत उसका भी अपना. . .। |