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घर में कैसे होंगे सब? चाची के जोड़ों का दर्द अभी भी वैसा ही है या फ़ायदा हुआ उस दवा से जो चाचा जी लाए थे जब मैं आई थी, देखा था मैंने। बेचारे कितने मन से लाए थे और चाची भी बस, सुन ही नहीं रही थीं। चाचा जी तो ठीक ही होंगे। अच्छा, उनकी वैचारिक गोष्ठियाँ नहीं होतीं क्या अब? वो क्या नाम था, "फक्कड़ सभा", अभी तक एक-एक गोष्ठी याद है मुझे तो, छुप-छुप कर सुनते थे हम। नारी मुक्ति, दलित विमर्श और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सबसे आगे हिंदी की समस्या। ख़ैर मुझे तो हँसी भी आई थी यही बात याद करके जब तुम्हें चाचा जी ने इंग्लिश स्कूल भेजा था पढ़ने के लिए, 12 के बाद, हॉस्टल में रहने। जाने कितनी बातें हैं बस बोलने और सुनने में अच्छी और आसान-सी लगती हैं, हाँ करने में उतनी ही अजीब और मुश्किल. . .।

अच्छा उन गोष्ठियों की एक-एक बात समझाने में मुझे कितना समय लगता थ, और तुम कैसे चढ़ाते थे मुझे, दुष्ट कहीं के। याद है, कैसे हिमांशु जी ने वो कविता सुनाई थी, और फिर कहा था, "देश मे प्रेम सर्वाधिक प्राचीन और हाँ साथ ही सर्वाधिक उपेक्षित विषय है, घर-बाहर कितना अंतर आ जाता है, इसके बारे में सोचने में, पढ़ तो सकते हैं, पर कर नहीं सकते, स्वीकार नहीं कर सकते, करता देख नहीं सकते। जिसने किया वो मानने से कतराता है, किसी और को देख उँगलियाँ भी उठाता है। और जाने कितने पड़े हैं जो कभी स्वीकार ही नहीं करते प्रेम, सफ़ाई में बच्चन की बातें, "प्रेम किसी से करना लेकिन करके उसे बताना क्या, झूठे, कपटी।'' उन दिनों कैसे हम परदे के पीछे से सुनते रहते थे ये बातें, बाहर कौन जाए बाप रे, चाचा जी के ग़ुस्से से तो अब भी डर ही लगता है। मेरे बाबू उनके इतने जिगरी दोस्त न होते तो मेरी ही क्या मजाल की मैं तुम्हारे घर आ भी सकती, और तुम भी इतने घर घुस्सू कहीं के, कि कहीं जाते क्यों नही थे। फिर चले गए हॉस्टल अपनी पढ़ाई करने, और अब. . .अब तो।

पता नहीं, अभी भी उनकी वो कविता मंडली वैसी ही है या अब कम हो गई? कितनी कविताएँ सुनी हैं हमने वहाँ। पराग जी, हिमांशु जी, अजय भैया सब अपने में मस्त ही होंगे? उनकी कविताओं की याद अभी भी आती है, कितनी बार इन लोगों की कविताएँ सुन कर बस मन में नए-नए अर्थ दुहराती, नई-नई कल्पनाएँ जोड़ती घर लौटती थी। अब लगता है वो सिर्फ़ अर्थ नहीं थे, इंद्रधनुष के कुछ बिखरे टुकड़े थे, जिनसे पूरा आसमान नापना चाहती थी। एक किनारे खड़े तुम और दूसरा किनारा मेरा, इस इंद्रधनुष के सहारे दूसरे किनारे पर, जैसे चिल्लाकर बोलती, "इतने किलोमीटर सुमित,'' तुम सुनने के बाद भी कान पर हाथ रख कर कहते "क्याSSSSSSSS?"

जाने तुम्हारी बड़ी दीदी, मेरी प्यारी, मिताली दीदी भी कहाँ होंगी आज कल? उनकी कितनी याद आती है। अब, ये मत पूछने लगना कि इतनी सारी यादों के बीच तुम्हारी नहीं आती क्या? तुम हो ही ऐसे रास्ते के रोड़े जैसे, जब भी निकलती हूँ इधर से, कभी अनजाने और हाँ ज़्यादातर जान बूझकर तुमसे चोट खाकर गिरना आदत-सा बन गया है, और कितनी बार गिराओगे अभी? खेलते-खेलते धक्का देकर गिराना तो आदत थी ही तुम्हारी, पर फिर भागते क्यों थे, भगोड़े, डरपोक, अभी भी गुस्सा ही आता है तुम्हारे ऊपर, मेरी कितनी नई फ्राकें गंदी कीं तुमने, खेलना कभी आया नहीं तुम्हें बस लड़ाई करना आता था। पर लड़ाई करने की आदत यों भूल कैसे गए तुम, एक बार और लड़ नहीं सकते थे, जैसे मैं लड़ रही हूँ। दीवारों से लड़ाई अपने टूटे हाथों, पंखों के बाद भी, किसी खिड़की के खुलने की आशा में नही, बस एक ठंडे हवा के झोंके के इंतज़ार में, नए पक्षियों के लिए आशा का दीप जलाती, कहीं भूल ही ना जाएँ ये नए पक्षी युद्ध लड़ना. . .

सुना था मिताली दीदी की शादी हो रही है, पर मैं जा नहीं पाई। इन्हें बहुत काम रहता है। मुझे? मुझे तो कोई ख़ास काम नहीं घर में, पर माता जी को देखने वाला कोई तो चाहिए। अब ये मत कहना की सेठानी बनी बैठी रहती हूँ, ख़ैर बैठी तो रहती ही हूँ पर सेठानी नहीं डाक्टरनी बनी। दाँत निकालो और कहो फिर तो दिन रात बीमार ही बनी रहती होगी।

यहाँ पर भी सब अच्छे हैं। सुधा, इनकी छोटी बहन, का इस बार बी.एड. है, माता जी की पूजा में मैं भी बैठने लगी हूँ, अब ये मत कहना की पुरी भक्तिन ना बन जाना, तुम ये हर बात से नई बात क्यों गढ़ने लगते थे। नया घर अच्छी जगह लिया है इन्होंने, आस-पास अच्छे लोग हैं। ये तो ख़ैर इन्होंने ही बताया, मैं तो कहीं नहीं जा पाती। पता नहीं क्यों पर मुझे लगता है, जैसे इस घर की दीवारें बहुत ऊँची हैं, ठीक जैसे पुराने घर की थीं, जैसे मेरे घर की थीं, जैसे तुमने कभी कहा नहीं पर तुम्हारे घर की थीं, तुम भागते क्यों रहे सच से हमेशा। सुधा से भी मैंने पूछा एक दिन की क्या ये दीवारें हमेशा से ही ऐसी ही ऊँची रही हैं, उस पुराने घर में मैं तो नई ही थी, उसने भी वही कहा जो मुझे अपने घर के बारे में लगता था, सच क्या है कौन जाने? इतने मुखौटों के बीच असली चेहरे कहाँ है, कौन जाने? वो भी मेरी तरह जान ही नहीं पाई की दीवारें रातों-रात इतनी ऊँची हुईं कब, कैसे? मज़बूत हैं. . .इतना आभास तो उसे भी रहा बचपन से, मेरी तरह, सड़क तक पार करने में बाबू की छंगुनिया के रूप मे, शाम कभी देर से आने पर माँ की डाँट बन, और जाने कहाँ-कहाँ।

सच, ऊँची दीवारों में रहती हूँ ये मुझे अपने घर में कहाँ पता था। उन दिनों जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, और तुम शहर के होस्टल वाले स्कूल में, दिखती नहीं थी शायद ऊँचाई, रही ज़रूर होगी, मेरे बिना जाने तो कभी कुछ वहाँ बनवाया भी नहीं गया। पता नहीं शायद मैं सो रही होऊँ और रातों-रात दीवारें ऊँची हो गई हों। हँसो मत, मुसकाते तो ज़रूर रहे होंगे तुम, सुधर नहीं सकते तुम, कहीं भी रहो। सच कह रही हूँ, कभी जाना ही नहीं, कब मैं बढ़ती गई और वो दीवारें भी तो बढ़ ही रही थीं साथ-साथ ही। मेरा बढ़ना कुछ पसंद-सा नहीं आया इन दीवारों को शायद, पर जाने जो अपनी-सी लगती रहीं, जिन पर मैंने खुद पेंटिग्स बना-बना कर सजावट की, झाड़ू मार-मार कर सफ़ाई की, सजाया, जो मुझे धूप से, ठंड से बचाती रहीं, वही दीवारें धीरे-धीरे मेरे बिना जाने यों इतनी ऊँची, कैसे, क्यों होती गईं. . .

कई दिनों से देख रही हूँ ये मिट्ठू बहुत परेशान-सा है। अब ये मत पूछ्ने लगना कि ये मिट्ठू कौन, नहीं तो समझ लो. . ., अरे वो हरियल जो मिताली दीदी ने दिया था मुझे, हरियल को यहाँ साथ ही लाई थी, बताया भी तो था तुमको, और तुम ग़ुस्से में चले गए थे बाहर। भूल गए भुलक्कड़. . .हाँ इन्हें कुछ हरियल नाम पसंद नहीं आया। इन्होंने कहा, तो मुझे भी लगने लगा कि हरियल कुछ गँवार-सा नाम है, शहर का नाम, मिट्ठू, अच्छा है ना। पर फिर लगता है कि, नाम बदल गया ये उसे क्या पता, लगता है कि उसे इससे भी कोई फ़र्क नही पड़ता कि उसका कोई नाम भी है। गाँव में रहे तो हरियल शहर में रहे तो मिट्ठू, पर रहेगा तो पिंजरे के ही भीतर, जो हम खाने को देंगे वही तो खाएगा ना। और उड़ना चाहे तो उड़ेगा कैसे, पिंजरा जो है। इसे आज कल जाने क्या हो गया है, इतने पंख फड़फड़ाता है, जैसे लड़ रहा हो किसी से, चाहे जो खाने को दो सुनता ही नहीं कुछ, इसका पिंजरा छोटा है शायद। अभी कुछ दिन पहले छत पर लेकर चली गई थी इसे शायद आसमान देख लिए इसने भी, अब रह नही पा रहा है, इसकी ऊँची-ऊँची, पिंजरे की दीवारें छोटी पड़ रही हैं शायद, काटने को दौड़ती हैं जैसे इसे, बस खुशी इस बात की है, खुद लड़ना भूला नहीं, रोता नहीं अपनी कैद पर, हार नहीं मानी इसने। अब कैसे पूछूँ इससे इसकी भाषा भी तो नहीं आती। तुम्हें आती है? तुम्हें क्या आती होगी, आती होती तो. . .

जाने आज क्यों वो सब याद आ रहा है, हमारा घर, उससे बस 3 गलियाँ दूर तुम्हारा घर, मिताली दीदी, तुम, चाचा जी, चाची, माँ, पिता जी, बुआ और भी बाकी सारे भी। और हाँ वो मैथ के सर क्या नाम था. . .हाँ, मिश्रा जी, वो जाने कैसे होंगे। सच पूछो तो ऐसे कितने लोग हैं जिनकी याद आनी चाहिए पर नहीं आती। मिश्रा सर का वो चेहरा तो अभी तक याद है, जब कितनी खुशी से वो पिता जी को बता रहे थे कि मैं मैथ्स में बहुत तेज़ हो गई हूँ और मुझे बी.एस.सी. करनी ही चाहिए, पर पिता जी का कहना था क्या करेगी, इसकी तो शादी की बात भी चल ही रही है।

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