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इसके बाद उन्होंने मेरी हालत देखकर किताबें और कॉपियाँ दीं, मुफ़्त में ट्यूशन दिए, चूतड़ों पर फटे पैंट तथा पेट झाँकते शर्ट को सिलाने के पैसे दिए तथा खाली पैर को कई बार अपनी पुरानी चप्पलें दीं। इन सबसे बढ़कर एक बड़ी चीज़ भी उन्होंने दी और वह था संरक्षण...उन दबंग, शरारती और ज़ालिम लड़कों तथा पक्षपाती-जातिवादी शिक्षकों से जो मुझे चिढ़ाते थे और नीचा दिखाते थे। मैंने उसी समय समझ लिया था कि दुनिया में रितुवरन बाबू जैसे कुछ आला इंसान हमेशा होते हैं जो किसी भी खेमा और सीमा से ऊपर होते हैं।

उनकी यह सदाशयता भला टुच्चे लोगों को कहाँ रास आ सकती थी! उनके कद को छोटा करने के लिए एक शरारतपूर्ण चर्चा फैला दी गई कि रितुवरन बाबू ने कुबेरवा को अपना लौंडा बना लिया है। यह दुष्प्रचार एक तेज़ बदबू की तरह फैलते हुए मेरे गाँव में बाउजी तक पहुँच गया। इसमें निहित जातीय पेंच वे समझ गए और बहुत दुखी हुए। उन्होंने मुझे एक पंक्ति की हिदायत दे दी कि इस बदनामी के कीचड़ से निकलने का उपाय यही है कि मन पर पत्थर रखकर मास्टर जी से एक दूरी बना लो। संभवत: उन्होंने रितुवरन बाबू से खुद भी मुलाकात कर ली थी और उनसे हाथ जोड़ लिया था कि मेरे बेटे को इस बदनामी से बख्श दीजिए। कैसी विडंबना थी कि एक बाप किसी कृपालु मास्टर से अपने बेटे को उनकी छत्रछाया में रखने की विनती करने की जगह उनसे अलग रहने का आग्रह कर रहा था। मेरा अंतस एकदम लहूलुहान हो गया। मास्टर जी अपने स्टाफ़ में और मैं अपनी कक्षा में बिल्कुल अलग-थलग और बहिष्कृत-सा हो गया था।

मैंने यहीं से एक बागी भ्रूण अपने दिमाग़ में प्रवेश करते पाया। वह भ्रूण पूरी दास्तान लिखने के लिए मुझे बेचैन करने लगा। चूँकि यह ऐसा प्रसंग था कि मैं किसी से कह भी नहीं सकता था। फिर इस सारे प्रकरण को मैंने रो-रोकर काग़ज़ पर उतारा था, जिस पर स्याही की लकीरें कम थीं और आँसुओं के धब्बे ज़्यादा थे।

मैं अपने उस जाति संक्रमित विद्यालय से मैट्रिक में शामिल डेढ़ सौ छात्रों में अकेला प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था। रितुवरन सर अपनी खुशी व्यक्त करने से खुद को रोक न सके थे और किसी की मार्फ़त मेरे घर पेड़े से भरी एक बड़ी खोचड़ी भिजवा दी थी। मिठाई मेरी पसंदीदा चीज़ कभी न रही, चूँकि अभावों ने मिठाई की सोहबत में जाने के मौके ही नहीं दिए। ज़्यादा क़रीबी नमक-मिर्च से ही रही। ग़रीबों के भोजन में नमक-मिर्च सबसे सुलभ और सस्ता व्यंजन होता है। फिर भी उन पेड़ों ने मुझे एक अजीब अलौकिक आस्वाद दिया था। आज भी, जब उम्र के दो हिस्से बीत चुके हैं और अब मैं गुरबत की ज़िंदगी से लगभग निकल आया हूँ, मिठाई में मेरी बहुत दिलचस्पी नहीं है, उन पेड़ों की जब मुझे याद आ जाती है तो ऐसा लगता है जैसे मैंने उन्हें अभी-अभी खाए हैं। मैं कह सकता हूँ कि वैसी स्वादिष्ट मिठाई मैंने आज तक नहीं खाई।

स्कूल से निकलने के बाद रितुवरन सर से मेरी दोबारा न कभी मुलाक़ात हुई और नाहीं कोई पत्राचार हुआ। लेकिन मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि वे मुझसे दूर हैं। मन में हमेशा उनसे एक अप्रत्यक्ष संवाद जारी रहा। आज भी लगता है कि वे आसपास ही कहीं हैं जो मुझे कदम-कदम पर निर्देशित कर रहे हैं, मेरी सफलताओं और उपलब्धियों पर प्रसन्न हो रहे हैं तथा मेरी बेवकूफ़ियों और ग़लतियों पर फटकार लगा रहे हैं। रितुवरन सर ही मेरे जीवन के पहले और आख़िरी गुरु रहे गए।

अधूरे इंटर तक यानी सिर्फ़ सत्रह साल ही रहा मैं गाँव में...लेकिन इतने ही समय में गाँव ने मुझे इतने जलवे दिखाए कि ये सत्रह साल सत्तर साल जितने अनुभव देने की प्रतीति करा गए। क्या-क्या नहीं भोगा, सहा और झेला मैंने! गाँव में चलने वाले किस मेहनत-मशक्कत और लानत-मलामत के धंधे से मेरा वास्ता न पड़ा! पिता के पाँच भाइयों वाला संयुक्त परिवार जब ईर्ष्या, द्वेष, असहयोग, अविश्वास और नीयत में खोट की ग्रंथियों के कारण बँटने लगा तो डेढ़-दो साल तक घर महाभारत का मैदान बन गया और वहाँ ज़बर्दस्त गाली-गलौज, मारपीट और थूकम-फजीहत का हार्रर दृश्य उपस्थित रहा। बाउजी सबसे बड़े थे, अत: उम्रदराज थे और दुर्बल भी। घर वे ही चलाते रहे थे, इसलिए फटेहाली और भुखमरी का उन्हें ज़िम्मेदार ठहराकर उनके छोटे भाई उन्हें अपने वहशीपन का निशाना बना लेते। बाउजी के निश्छल और बेबस आँसू मेरे भीतर एक बाग़ी तेवर और कठोर सतह सृजित करने लगे। मैंने अपनी छोटी उम्र को बड़ा कर लिया और पिता की तरफ़ से खुद को करारा जवाब बना लिया। अब उनपर किसी भी आक्षेप से मैं सीधी टक्कर लेने लगा। आज सोचकर मुझे ताज्जुब होता है कि उस छोटी उम्र में भी कैसे मैं अपने निष्ठुर चाचाओं से भिड़ जाया करता था!

घर जब बँट गया तो हिस्से में सिर्फ़ डेढ़ बीघा ज़मीन आई और आठ हज़ार का कर्ज़ लद गया। अपने खेत पर आश्रित होकर पूरा साल गुज़ारना मुश्किल था। कम से कम दो बीघा खेत हमें बँटाई के जुगाड़ करने पड़ते थे। मुझे अपनी उम्र थोड़ी और बड़ी कर लेनी पड़ी...अब मैं हल जोत रहा था...लाठा चला रहा था...बोझा ढो रहा था...कुदाल पार रहा था...मड़ुआ, मकई, धान, गेहूँ, सरसों, आलू, करेला आदि बो रहा था...काट रहा था...उन्हें घर ला रहा था...बाज़ार ले जा रहा था।

विडंबना थी कि उन दिनों मेरे गाँव में बँटाई की खेती भी आसानी से उपलब्ध नहीं थी। जिनके खेत थे उनके सौ नखरे उठाने होते थे। गाँव के हज़ारों बीघा ज़मीन एक ही आदमी पूर्व ज़मींदार रऊफ मियाँ के पास थी। इनसे बहुत थोड़ी ही बची ज़मीन गाँव के लोगों में दस-दस, पाँच-पाँच बीघों में बँटी थीं। इसलिए दो-चार को छोड़कर गाँव में ज़्यादातर लोग बँटाईदार थे। रऊफ बाबू अपना ज़्यादातर खेत बराहिल-मुंशी और नौकर-चाकर रखकर खुद ही आबाद करवाते थे तथा रौब एवं धाक बनाए रखने के लिए सौ-दो सौ बीघा बँटाई या मोकर्रिर पर मेहरबानी करने की मुद्रा में बाँट देते थे। इन मेहरबानी की ज़मीनों को हासिल करने के लिए गाँव में होड़ और मारामारी मची रहती थी। मुंशी का भाव बढ़ा रहता था...रऊफ बाबू की जी-हुजूरी एवं चिरौरी में लोग खुद को बिछा देते थे। ज़मींदारी जाने के बाद से रऊफ खुद रांची में रहने लगे थे। साल में सिर्फ़ दो बार गाँव आते थे, एक तो रमजान में पूरे एक महीने के लिए और दूसरा कभी भी अपनी सहूलियत देखकर।

रऊफ बाबू के आने-जाने और ठहरने में ऐसी नफ़ासत और शानो-शौकत समाई होती थी कि तंगी-फटेहाली में रहनेवाले, दुनिया की रईसी और ठाट-बाटवाले जीवन से अपरिचित मुझ जैसे गंवई लड़के उन्हें दूर से कौतूहलपूर्वक देखते और उनके भाग्य पर बहुत ईर्ष्या करते रहते। रऊफ साहब बहुत मोटे-थुलथुले थे। मोटा आदमी उन दिनों मुझे बहुत अच्छा लगता था। मैं सोचता था कि मोटा आदमी होना एक गौरव की बात है जो बहुत पौष्टिक, महँगा और बढ़िया भोजन करने से ही मुमकिन होता होगा। मुझे अपने इस दुर्भाग्य पर कोफ्त होती थी कि हमें ज़्यादातर मडुआ-खेसाड़ी जैसे मोटे और सारहीन अनाज खाने होते हैं, अत: ऐसा मोटा होने का सौभाग्य हमें कभी नहीं मिल सकता। रऊफ बाबू को कई नौकर-चाकर मिलकर कार से उतारते और चढ़ाते थे। वे अपने इस्टेट के भव्य दालान में गलीचोंवाली एक आलीशान आरामकुर्सी पर बिठाए जाते थे। बाबर्चीखाने में कई खानसामों की सक्रियता बढ़ जाती थी। पूरा गाँव घी, मसाले और सालन की तेज़ गंध से गमगमा जाता था। किसी के लिए यह खुशबू साबित होती थी तो किसी के लिए बदबू।

गाँव के प्राय: लोग हिंदू-मुसलमान सभी उन्हें सलाम करने जाते थे। ख़ासकर वे जिन्हें मुकर्रिर या बँटाई पर खेत चाहिए होते थे। वहाँ हरेक को अपना दुखड़ा रोकर फरियाद करना पड़ता था, जैसे कोई खैरात माँगने आए हों। मुंशी की जिसे तरफ़दारी मिल जाती थी उस पर रऊफ बाबू पसीज जाते थे।

घर बँटने के बाद मजबूरन बाउजी भी पहली बार सलाम करने गए थे। मुंशी ने पता नहीं किस खुंदक की वजह से पक्ष लेने की जगह लंघी मार दी थी। कहा था, ''इससे खेती नहीं होगी हुजूर, देह में ताकत कहाँ है इसके पास। देखिए न कैसा सुखंडी लगता है।''
बाउजी ने घिघियाते हुए कहा था, ''मेरा बेटा है सरकार...वह सब काम कर लेता है।''
मुंशी ने भेड़िए और मेंमने की कहावत चरितार्थ करते हुए फिर लंगड़ी लगा दी थी, ''इसका बेटा तो अभी बहुत छोटा है हुजूर। ऐसे भी यह आदमी ठीक नहीं है। इसका बैल पिछले महीने हमारे एक कट्ठा गेहूँ चर गया था।``
रऊफ ने बाउजी को खा जानेवाली नज़रों से घूरते हुए हिकारत से कहा था, ''क्यों बे मरदूद, बैल को बाँधकर रखने में क्या तेरे हाथ की मेंहदी छूटती है? आइंदा ऐसी शिकायत मिली तो हाथ-पैर तुड़वाकर रख दूँगा....जा भाग हरामी यहाँ से।''

बाउजी बहुत अपमानित और उदास होकर घर लौटे थे और बड़े भारी मन से मुंशी की मक्कारी का बयान करते हुए कहा था, ''चलो हम तो इसी में संतुष्ट हैं कि बाबू साहेब ने हमें ज़्यादा जलील नहीं किया।''
बाउजी की सरलता और मासूमियत पर मैं अचंभित रह गया था...भला वह दुष्ट और क्या ज़लील करता! यों मुझे पता था कि रऊफ मियाँ खुद को गाँव का भाग्य-विधाता समझता है और अभी भी हुक्मरान वाले रौब में जीता है। किसी के खिलाफ़ अगर उसके पास चोरी, बेईमानी या छिछोरेपन की शिकायत मिल जाती, ख़ासकर अपने बँटाईदारों अथवा जन-मजूरों की, तो वह उन्हें बँधवाकर जूते एवं कोड़े तक लगवा देता था। मैं अपने हमउम्र लड़कों के साथ सहमा-डरा दूर से वह हौलनाक नज़ारा देखता रहता था। मुझे उसकी वह कार्रवाई बहुत बर्बरतापूर्ण और नृशंस लगती थी। बाउजी के साथ उसने जो बर्ताव किया था, उसके बाद तो उससे मुझे सख़्त घृणा हो गई थी।

उसी रोज़ रात की निस्तब्धता में उसकी कार के सामनेवाले शीशे पर किसी ने एक ज़ोरदार पत्थर दे मारा था। शीशा टूटने की झन्न की आवाज़ सुनते ही उसके अर्दलियों और बराहिलों ने काफ़ी भाग-दौड़ शुरू कर दी थी, पर कोई पकड़ा न जा सका था। सुबह गाँव के मुख्य-मुख्य लोगों को बुलाकर रऊफ मियाँ ने खूब गाली-गलौज की थी और भरपूर लथाड़ लगाई थी। गर्दन झुकाकर सब सुनते रहे थे। इस अनर्गल फजीहत के खिलाफ़ किसी को होंठ तक फड़फड़ाने की हिम्मत नहीं हुई थी।

पत्थर किसने चलाया, किसी को ज्ञात न हो सका। आज तक वह राज़ ही रह गया। आज मैं उस राज़ को उज़ागर कर रहा हूँ कि कार पर पत्थर मैंने चलाया था। किसी जुल्म के खिलाफ़ यह मेरा पहला प्रतिरोध था, जिसकी कहानी काग़ज़ पर नहीं वायुमंडल में उसी समय दर्ज़ हो गई थी। आज वायुमंडल से निकालकर मैं उसे काग़ज़ पर लिख रहा हूँ।

बुढ़ापे और बीमारी के चलते जब रऊफ मियाँ की अशक्तता बढ़ती गई तो हर चीज़ पर उनकी पकड़ ढीली होती गई। उनके भाई-भतीजे आपाधापी करके लूट-खसोट मचाने लगे और ज़मीनों पर कब्ज़ा जमा करके उन्हें औने-पौने बेचने भी लगे। गाँव में जो ख़रीदने लायक था उसकी चाँदी हो गई।

सबसे ज़्यादा ज़मीन जगदीश गोप ने ख़रीद ली और देखते ही देखते गाँव का वह एक बड़ा काश्तकार बन गया। अब गाँव पर रौब और हैकड़ी गाँठने का उसने खुद को एक अधिकृत सरगना बना लिया। वह अपनी धाक इस तरह फैलाता गया कि लोग उसे रऊफ मियाँ से भी खूंखार और बहशी समझने लगे। गाँव में कोई भी ज़मीन ख़रीदता या नया घर बनाता, उसकी छाती दुखने लगती। गाँव में वह एकछत्र बड़ा आदमी बनकर रहना चाहता था। कोई एक कोठरी भी उठाए तो यथासंभव टाँग अड़ाने का वह कोई न कोई बहाना ढूंढ लेता था।

घर बँटने के बाद बाउजी भी जैसे-तैसे दो कोठरी उठाने की जुगत में लग गए थे। जगदीश के पेट की मरोड़ शुरू हो गई थी। वह दसियों बार कोई न कोई नुक्स निकालकर लफड़ा खड़ा किए रहा और इस प्रकार हमें दो कोठरी उठाने में दो बरस से भी ज़्यादा वक्त लग गया। हम दोनों बाप-बेटे तंग-तंग हो गए। मैं उससे बेइंतहा नफ़रत करने लगा था, लेकिन अफ़सोस कि मैं उसका कुछ भी बिगाड़ने के लायक नहीं था। मैं क्या पूरे गाँव में आज तक कोई उसका कुछ न कर सका। जबकि शायद ही कोई छाती छूटी हो जिस पर उसने मूँग न दली हो। क्रूरता और तानाशाही वरतने में वह रऊफ मियाँ से कई गुना आगे निकल आया।

अपने घर में ही एक पट्टीदार चाचा के दो लड़कों को उसने गायब करवा दिया ताकि घर-खेत में उन्हें हिस्सा-बखरा न देना पड़े। उसके एक अन्य चाचा के जो दो-एक लड़के किसी तरह बच गए, उन्हें भी मार-पीट और लांछित-प्रताड़ित करते हुए विभिन्न मुकदमों में फँसवाकर उसने पस्त करवा दिया और फिर ख़ैरात देने की तरह टांड़-टिकुल में कुछ ज़मीन दे दीं।

खेत कब्जाने का तो जैसे उस पर नशा छा गया था। जैतुनियाँ मसोमात की बारह कट्ठा ज़मीन पर उसने ज़बर्दस्ती हल चढ़ा दिया। बेचारी को वह ज़मीन रऊफ मियाँ के एक दामाद ने उसकी बीमार बेगम की घनघोर तीमारदारी करने के एवज़ में उसे बतौर बख़्शीश दी थी।

रऊफ के हल जोतनेवाले कुछ हरिजन मजूरों ने उनकी दो बीघा ज़मीन पर अपनी विनम्र दावेदारी रोप दी थी कि ज़िंदगी भर उन लोगों ने उनकी चाकरी की...अब जब सारा कुछ बिक रहा है तो वे कहाँ जाएँगे और कैसे गुज़ारा करेंगे? रऊफ मियाँ के बेटों और कतिपय रिश्तेदारों की इस कार्रवाई पर मूक सहमति थी...चलो, जाने दो, दो बीघा की तो बात है, सब दिन गुलामी की है बेचारों ने, सिर छुपाने की झोपड़ी तो कम से कम बना लेंगे।

जगदीश को भला कहाँ हज़म होनेवाली थी यह उदारता! उसने इस सहानुभूतिपूर्ण दावेदारी पर भी अपना अतिक्रमण जाल बिछा दिया। रऊफ के एक बहनोई को पटाकर उसने उसका दस्तखत ख़रीद लिया, जबकि बहनोई का इस पर कोई हक नहीं था। मगर उसे तो बस एक पेंच चाहिए था। लड़ाई बहुत दिनों तक चलती रही। कभी उस ज़मीन पर लगी फसल हरिजन काट लेते...कभी भाड़े के गुर्गे की मदद से जगदीश काट लेता। अंतत: जगदीश ने मामला अदालत में पहुँचा दिया। सुनवाई चल रही है...वर्षों गुज़र गए सुनवाई अब भी पूरी नहीं हुई।

उस ज़मीन पर आज भी हरिजनों के कब्ज़े की और गाँव की छाती पर बैठे जगदीश जैसे असुर के संहार की मुझे प्रतीक्षा है। अगर ऐसा हुआ तो जीवन की चंद हसीन खुशियों में से यह मेरे लिए एक बड़ी हसीन खुशी होगी। उसे जब वाजिब सज़ा मिल जाएगी तभी मैं गाँव में अपनी दो कोठरी बन जाने का इत्मीनान कर पाऊँगा। अन्यथा अब भी मुझे अपना घर अधबना लगता है और गाँव में जाकर भी मुझे उसमें ठहरना अच्छा नहीं लगता। बाउजी अब रहे नहीं, वहाँ सिर्फ़ माँ रहती है, वह भी माटी के पुराने घर में। अपनी बहू से वह त्रस्त और आतंकित न होती तो माँ को मैं अपने साथ ही रखता और जगदीश की छाया तक उस पर पड़ने नहीं देता। 

जगदीश ने एक और बड़ा कहर ढाया था जो याद आकर मेरे दिमाग़ पर हथौड़े की तरह चोट करता है। गाँव में एक नौटंकी टीम थी जिसका नेतृत्व रफू मियाँ करता था। रफू मियाँ मेरी ही औक़ात का एक मामूली आदमी था, जो राजमिस्त्री का पेशा करके अपनी रोटी चलाता था। हमलोग अकसर छठ पूजा के समय तीन रात नौटंकी का आयोजन करते थे। हमारी टीम पूरे इलाके में मशहूर थी और हमारे शो देखने वालों की भारी भीड़ उमड़ पड़ती थी। रफू मियाँ हमारा डायरेक्टर था। वह एक हरफ़न मौला कलाकार था। वह नगाड़ा भी बजा लेता था, हारमोनियम भी और अभिनय भी कर लेता था। बहरेतवील, चौपाई, दौड़, दोहा, कजरी आदि कहने का ढंग हमें वही सिखाता था। नथाराम गौड़ और कृष्ण पहलवान की लिखी नौटंकी उसकी ख़ास पसंद थी। हमलोग कई बार नौटंकी खेलने दूसरे गाँवों द्वारा सट्टे पर बुलाए जाते थे। उस समय तक दाढ़ी मूँछ नहीं होने की वजह से रफू मियाँ अक्सर मुझे जनानी पाठ दे दिया करता था।

नौटंकी चूँकि रात भर चलती थी, इसलिए लोगों को बाँधे रखने के लिए बीच-बीच में प्रहसन एवं लौंडा-नाच की व्यवस्था भी रखनी पड़ती थी। रफू अगर मुख्य भूमिका में नहीं होता था तो प्रहसन (कौमिक) करने एवं लौंडे के साथ जोकरई करने की ज़िम्मेदारी उसी की होती थी। वह हँसाने-गुदगुदाने की कला में गज़ब का कमाल रखता था। गाँव की सामयिक घटनाओं पर प्रहसन के बहाने वह धारदार व्यंग्य कर लेता था। जगदीश के चरित्र और रवैये पर उसने एक प्रहसन रच लिया। इस प्रहसन में जगदीश को जगढीठ कहते हुए बताया गया कि इसने अमेरिका के राष्ट्रपति से गाँव की बगलवाली सकरी नदी को अपने नाम लिखवा लिया है। लिहाज़ा अब यह नदी इसकी व्यक्तिगत संपत्ति है। गाँव का कोई भी आदमी अब नदी में स्नान-ध्यान या दिशा-फरागत करने के लिए नहीं जा सकता।

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