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बरसात के शुरुआती दिन थे। सुबह के तक़रीबन सात बजे का समय होगा। इस वक्त तक पूर्व के पहाड़ों के पीछे से सूरज की किरणों की उजास गाँव पर सुनहरी चादर बिछा देती थी। पर आज उन पर काले बादलों का डेरा था। पहाड़ आसमान का हिस्सा लग रहे थे। उत्तरी छोर के पर्वतों के ऊपर बादलों की कुछ डरावनी आकृतियाँ थी। हवा के साथ पूर्व के बादल कभी छितराते तो भोर की लालिमा ऐसे दिखती मानो भयंकर आग में बादल जल रहे हों। इसी बीच कई धमाके हुए और आँगन में खड़े सभी लोग चौंक गए। समझ नहीं आया कि यह बिजली चमकी है या कुछ और है। कई घरों की खिड़कियों के शीशे टूट गए थे। गोशाला से पशुओं और भेड़ बकरियों के रंभाने-मिमियाने की आवाज़ें आने लगी थीं।
टीकम कुछ सहज होकर सभी को बता रहा था।

'मैं रोज़ की तरह नदी किनारे घराट में पहुँचा। गेहूँ-फफरा की बोरी एक किनारे उतार कर रख दी और चक्की चलाने को कूहल फेरने चला गया। लेकिन उसमें पानी नहीं था। मैंने सोचा कूहल कहीं से टूट गई होगी। मैं नदी की तरफ़ हो लिया। वहाँ पहुँचा तो हतप्रभ रह गया। कुछ समझ नहीं आया कि जिस नदी का पानी कभी सूखा ही नहीं वह रात-रात में कैसे सूख गई। कुछ देर मैं ऐसे ही खड़ा रहा। कई बार आँखे मली कि धोखा तो नहीं हो रहा है। लेकिन नहीं पिता, नहीं दादा, वह धोखा नहीं था। नदी सचमुच ग़ायब हो गई है। उसका पानी सूख गया है।'
टीकम की बातें सुन कर सभी सक़ते में आ गए थे। उसकी माँ उसके पास आकर उसे समझाने लगी थी,
'देख टीकू! तू न रात को बहुत देर तक जागता रहा है। कितनी बार बोला कि टेलीविजन मत इतनी देर देखा कर। तेरी नींद पूरी नहीं हुई है न। फिर मैंने तेरे को तड़के-तड़के अधनींदे जगा दिया था। ज़रूर कुछ धोखा हुआ होगा।'

इसी बीच देवता का पुजारी भी आ पहुँचा था। उसे टीकम की बातों पर कुछ विश्वास होने लगा। उसने सभी को समझाया कि यहाँ आँगन में बहसबाजी करने से क्या लाभ? सभी चल कर अपनी आँखों से देख लेते हैं कि क्या बात है। पुजारी की बात मान कर सभी नदी की ओर चल पड़े।
थोड़ी देर में सभी नदी के किनारे पहुँच गए। टीकम की बात सच निकली। नदी खाली थी। मानो किसी ने पूरे का पूरा पानी रात को चुरा दिया हो। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि क्या करें। इसी बीच नीचे की ओर से भी लोग ऊपर को आते दिखे। वे भी इसी उधेड़ बुन में थे कि नदी का पानी आख़िर कहाँ गया?

लोग नदी के किनारे-किनारे से पहाड़ की ओर चढ़ने लगे। वहाँ से नदी नीचे बहती थी। नदी छोटी थी लेकिन आज तक कभी उसका पानी नहीं सूखा था। कितनी गर्मी क्यों न पड़े, उसका पानी बढ़ता रहता। वह जिन ऊँचे पर्वतों के पास से निकलती थी वे हमेशा बर्फ़ के ग्लेशियरों से ढके रहते थे। उन पहाड़ों पर कई ऐसे हिमखंड थे जो सदियों पुराने थे। इस छोटी-सी नदी से कई गाँवों की रोज़ी-रोटी चलती थी। इसी के किनारे किसानों के क्यार थे, जिसमें वे धान, गेहूँ बीजते और सब्ज़ियाँ उगाते। अभी भी पहाड़ों के इन गाँवों में कोई पानी की योजना नहीं थी, इसलिए लोगों ने ज़रूरत के मुताबिक़ गाँवों को छोटी-छोटी कूहलों से पानी लाया था। लेकिन आज तो जैसे उन पर पहाड़ ही टूट गया हो।

अभी तक़रीबन एक किलोमीटर ही सब लोग ऊपर पहुँचे थे कि तभी इलाके का प्रधान पगडंडी से नीचे उतरते दिखाई दिया। उसके साथ कुछ अनजाने लोग थे जो पहाड़ी नहीं लगते थे। लोगों ने उसे देखा तो कुछ आसरा बँधा। वही तो उनके इलाके का माई-बाप हैं। इतने लोगों को साथ देखकर वह पल भर के लिए चौंक गया। फिर पुजारी से ही पूछ लिया,
'पुजारी जी! सुबह-सुबह कहाँ धावा बोल रहे हो। ख़ैरियत तो है न।'
पुजारी के साथ लोगों ने जब प्रधान को देखा तो थोड़ी जान में जान आई। पुजारी कहने लगा,
'प्रधान साहब! अच्छा हो गया कि आप यहीं मिल गए। क्या बताएँ आपको? देखो न हमारी नदी का पानी ही सूख गया। पता नहीं कहीं देवता हमसे नाराज़ तो नहीं हो गया है?'

पुजारी के कहते ही प्रधान की हँसी फूट पड़ी थी। उसके साथ जो अजनबी थे वे भी हँस पड़े। किसी और को उनकी हँसी में कुछ न लगा हो पर टीकम को हँसी अच्छी नहीं लगी। उसमें ज़रूर कुछ ऐसा था जो उसको भीतर तक चुभ गया। वैसे भी वह इक्कीस बरस का जवान मैट्रिक पढ़ा था और पुलिस में नौकरी के लिए हाथ-पाँव मार रहा था। ग़रीब परिवार से था इसलिए पढ़ने कॉलेज शहर नहीं जा सका। पर घर रह कर ही पत्राचार से बी.ए. की पढ़ाई कर रहा था। वैसे भी गाँव के लोग उसे प्रधान ही कहा करते क्यों कि वह हर समय लोगों के लिए कुछ न कुछ करता रहता। कभी किसी की अर्ज़ी-चिट्ठी लिख देता। कभी किसी का कोई काम कर देता। लोगों को उनके अधिकारों के बारे में बताता रहता। बोल-चाल में भी उसका कोई मुक़ाबला नहीं था। लोग तो उसे इलाके के भावी प्रधान के रूप में देखने लगे थे, परंतु उसका इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं था। उसे पता नहीं क्यों पुलिस की नौकरी का शौक था।
प्रधान ने जेब से सिगरेट निकाली और लाइटर से सुलगा कर पुजारी से बतियाने लगा,
'बई पुजारी जी, सुबह-सुबह इतने परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारी नदी कहीं नहीं गई। अब वह बिजली बन गई है। इलाके में बिजली बन कर चमकेगी। तुम्हारे लिए नए-नए काम लाएगी। गाँव के लोग मेरे को हमेशा बोलते थे न कि प्रधान ने कुछ नहीं किया। आज हर घर से एक आदमी को कंपनी काम दे रही है। मैं तो इसलिए ही तुम्हारे पास आ रहा था।'
'मतलब...।'
टीकम ने बीच में ही प्रधान को टोक लिया। प्रधान हल्का-सा सकपकाया। उसे टीकम कभी फूटी आँख नहीं सुहाया था। सुहाता भी क्यों, पढ़ा लिखा समझदार था। प्रधान के लिए ख़तरे की घंटी कभी भी बजा सकता था।
'मतलब यह बचुआ कि तू तो पढ़ा लिखा है रे। अख़बार नहीं पढ़ता क्या? सपने तो ठाणेदार बणने के देखता है। बई पुजारी जी! पहाड़ के साथ जो दूसरा जिला लगता है न उसकी सीमा पर पिछले दिनों हमारे मुख्यमंत्री ने बिजली की नई योजना का उद्घाटन किया है। तुम्हारी वह नदी एक सुरंग से वहीं चली गई है। वहाँ उसकी ज़रूरत है। वह वहाँ बिजली तैयार करेगी।'
'पर हमारा क्या होगा प्रधान जी। इतने गाँवों के खेत-क्यार सूख जाएँगे। घराट बंद हो जाएँगे।'
'पानी रहेगा पुजारी जी। रहेगा। बरसात का पानी इसी में रहेगा। बई वह पहाड़ पर तो नहीं चढ़ेगा न। फिर अब घराट-घरूट कौन चलाता है। बिजली से चक्कियाँ चलेंगी। क्यों रे टीकम, क्यों नहीं लगाता एक दो चक्कियाँ। सरकार लोन दे रही है। काहे को पुलिस की नौकरी के चक्कर में पड़ा है।'
इतना कह कर प्रधान ने वहाँ से खिसकना ही ठीक समझा। टीकम भले ही सारी बातें समझ गया हो पर लोगों की समझ में कुछ नहीं आया था। टीकम ने ही सभी को समझाया था कि इस पहाड़ी नदी को एक सुरंग से दूसरी तरफ़ ले जाया गया है और अब वह यहाँ लौटेगी नहीं। उधर उसके पानी से बिजली पैदा होगी।

नदी ग़ायब होने के साथ उनके गाँव पर एक और संकट खड़ा हो गया था। उनका गाँव ऐसे पर्वतों की तलहट्टी में था जहाँ ग्लेशियरों के गिरने का ख़तरा हमेशा बना रहता था। अब रोज़ डायनामाइटों के धमाकों से टनों के हिसाब से उस नदी में चट्टाने गिरनी शुरू हो गई थीं और नदी के किनारे जो घराट थे वे तो पूरी तरह नष्ट हो गए थे। जिस नदी में नीला साफ़ पानी बहता रहता उसमें मिट्टी पत्थर भरने लगे थे। सबसे ज़्यादा ख़तरा टीकम के गाँव को ही था। लोग जानते थे कि धमाकों के शोर से पहाड़ पर सदियों से सोया ग्लेशियर जाग गया तो उनके गाँव को लील लेगा। इसलिए उन्हें कुछ करना होगा। इस योजना का जितना काम हो गया वह ठीक है पर इससे आगे होने से रोकना होगा।

टीकम ने गाँव के लोगों की एक समिति का गठन किया था और एक आवेदन पत्र बना कर उस पर सभी के हस्ताक्षर करवाए थे। उसका मानना था कि प्रधान के पास जाने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। उन्हें विधायक और मुख्यमंत्री से मिलना होगा। इसलिए सबसे पहले दस-बीस लोग टीकम की अगवाई में पहले विधायक को मिले। लेकिन विधायक ने बजाय उनकी तकलीफ़ सुनने के उलटा विकास का लंबा-चौड़ा भाषण दे दिया था। जब वहाँ बात न बनी तो वे लोग जैसे-तैसे मुख्यमंत्री के पास गए और अपना दुखड़ा रोया। लेकिन वहाँ से भी खाली हाथ लौटना पड़ा था।
निराश-हताश वे लौटकर गाँव चले आए थे। बिजली योजना का काम ज़ोरों पर था। अब तो गाँव के नीचे से एक सड़क भी निकल रही थी जिसकी खुदाई और ब्लास्टों से उनके गाँव के नीचे की पहाड़ी धँसने लगी थी। कई बीघे ज़मीन तो धँस गई थी। अब इस काम को रोकना उनकी प्राथमिकता थी।

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