मतीन जैसे भरा
बैठा था। इतनी मामूली-सी अपनापे की बोली सुनकर फफक कर रो पड़ा।
सबीना भी अपने आँसू नहीं रोक पाई। करीब आधे घंटे तक
प्यार-दुलार चलता रहा। फिर करीब एक घंटे तक मुँह-हाथ धोने और
चायपानी का सिलसिला चला। इसके बाद फौरन असली मुद्दे पर बातचीत
शुरू हो गई। सबीना ने दिन भर के सारे अप्वॉइंटमेंट रद्द कर
दिए। बात चलती रही, लगातार। खूब जिरह हुई। लेकिन सबीना पर मतीन
के तर्कों का कोई असर नहीं हुआ।
मतीन कह रहा था - ''मैं अपने
इतिहास को इतना छोटा नहीं कर सकता। हम भले ही मुसलमान हो गए
लेकिन अपना इतिहास तो काटकर नहीं फेंक सकते। क्या मोहम्मद साहब
से पहले हमारी कोई वंशबेल नहीं थी? हम वेद, उपनिषद, महाभारत,
गीता, रामायण या बुद्ध और महावीर को कैसे नकार सकते हैं? क्या
मोहनजोदड़ो या हड़प्पा की सभ्यता से हमारा कोई वास्ता नहीं है?
क्या हम कहीं आसमान से टपक कर नीचे आ गिरे? मैं खुद को इतना
छोटा, इतना अकेला नहीं महसूस करना चाहता, न ही मैं ऐसा अब और
ज़्यादा कर सकता हूँ।''
लेकिन सबीना ने मतीन की बातों को फूँक मारकर उड़ा दिया।
- ''तुमसे किसने कह दिया कि इस्लाम धर्म में रहकर तुम छोटे और
अकेले हो जाते हो। इस्लाम किसी को उसकी विरासत से अलग नहीं
करता। अपने को दलित मानो या ब्राह्मण, इसकी आज़ादी तुम्हें है।
हम तो आदम-हौवा से अपनी शुरुआत मानते हैं। पैगंबर मोहम्मद तो
बस दूत थे, एक कड़ी थे। फिर हिंदू बनने की बात करते हो तो चले
जाओ पाकिस्तान, क्यों कि सिंधु नदी अब वहीं बहती है और सिंधु
नदी के किनारे बसने वालों को ही हिंदू कहा जाता था। वैसे, इन
बातों से अलग हटकर मेरा मानना है कि इतिहास कुछ नहीं होता।
इतिहास, खानदान या जिसे तुम वंशबेल कह रहे हो, इनकी बातें असल
में वहीं तक सही हैं, जहाँ तक इनकी याददाश्त हमारे जींस में
दर्ज़ होती है। बाकी सारा इतिहास तो सत्ता का खेल है। सत्ता के
दावेदार अपने-अपने तरीके से इतिहास की व्याख्या करते हैं।
बच्चों को वही पढ़वाते हैं, उनके दिमाग़ में वही भरवाते हैं,
जो उनके माफ़िक पड़ता है।''
सबीना ने मतीन के सिर पर हाथ
फेरते हुए बड़े प्यार से कहा - ''नन्हें मियाँ, बावले मत बनो।
इतिहास-उतिहास कुछ नहीं होता। इतिहास की टूटी कड़ियों या अतीत
की याददाश्त की बातें अपने जींस पर छोड़ दो। बाकी सब बकवास है,
दिमाग का फितूर है।''
मतीन ने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में फँसाकर चटकाईं,
दीवारों पर जहाँ-तहाँ नज़र दौड़ाई। उसे कहीं गहरे अहसास हो गया
कि बहन भी उसका साथ नहीं देनेवाली।
सबीना जिस तरह इतिहास को
खारिज कर रही थी, उससे लगता था कि इतिहास से कहीं उसको कोई
गहरा व्यक्तिगत गुरेज हो, जैसे किसी इतिहास से उसका बहुत कुछ
अपना छीन लिया हो। वह बोलती जा रही थी।
- ''मैं तो कहती हूँ कि बच्चों को तब तक इतिहास नहीं पढ़ाया
जाना चाहिए, जब तक वे समाज को देखने-समझने लायक न हो जाएँ।
बारहवीं से भले ही इतिहास को कोर्स में रख दिया जाए, लेकिन
उससे पहले बच्चों के दिमाग़ को पूर्वाग्रह भरी बातों से धुँधला
नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों को सेक्स पढ़ा दो, मगर इतिहास मत
पढ़ाओ। उन्हें आज की हकीकत से जूझना सिखाओ, ज़िंदगी का मुकाबला
करना सिखाओ, आगे की चुनौतियों से वाकिफ़ कराओ। बीती बातें
सिखाकर कमज़ोर मत बनाओ। पुरानी बातों को लेकर कोई करेगा क्या?
तुमने तो साइंस पढ़ा है। दिमाग में न्यूरॉन्स मरते रहते हैं,
नए नहीं बनते। स्टेम कोशिकाएँ वही रहती हैं, लेकिन इंसान का
बाहरी जिस्म, उसकी शरीर की सारी कोशिकाएँ चौबीस घंटे में एकदम
नई हो जाती हैं। तो...मन को नया करो, उसे अतीत की कंदराओं में
निर्वासित कर देने का, गुम कर देने का क्या फायदा!''
- ''मगर चमड़ी का रंग-रूप तो आपके इतिहास-भूगोल और खानदान से
तय होता है। फिर... इंसान कोई तनहा अलग-थलग रहनेवाला जानवर
नहीं है। उसका तो वजूद ही सामाजिक है। वह समाज से कटकर अकेला
रह सकता है। समाज भी उसकी अनदेखी कर दे, लेकिन जो समाज उसके
अंदर घुसा रहता है, वह उसे कभी नहीं छोड़ता। इंसान अपने दिमाग़
का क्या करे। वह तो सामाजिक सोच से बनता है। और...इंसान का आज
तो गुज़र गए कल की बुनियाद पर ही खड़ा होता है।''
- ''ये तुम जो सामाजिक सोच और कल की बुनियाद की बात कर रहे हो,
इसी की शिनाख्त में तो लोचा है। इसे तय करते हैं सत्ता के लिए
लगातार लड़ रहे सामाजिक समूह। यहाँ कुछ भी अंतिम नहीं होता। आज
गांधी सभी के माफ़िक पड़ते हैं तो सब उनकी वाह-वाह करते हैं।
यहाँ तक कि हिंदुस्तान के बँटवारे के लिए गांधी को दोषी ठहराने
वाले संघ परिवार ने भी सत्ता में आने के लिए गांधीवादी समाजवाद
का सहारा लिया था। लेकिन हो सकता है कि देश में किसी दिन ऐसे
लोगों की सरकार आ जाए जो दलाली के दलदल मे धँसी आज की राजनीति
के लिए सीधे-सीधे गांधी नाम के उस महात्मा को ज़िम्मेदार ठहरा
दे और हर गली-मोहल्ले, यहाँ तक कि संसद से गांधी की मूर्तियों
को हटवा दे। क्या चीन और रूस में ऐसा नहीं हुआ कि माओ की
तस्वीरें हटा दी गईं, लेकिन की कब्र को तोड़ दिया गया।''
सबीना ने महात्मा शब्द को
थोड़ा जोर देकर कहा था। मतीन समझ नहीं पाया कि वह गांधी की
तरफ़दार है या निंदक। उसने पेज-थ्री की सेलेब्रिटीज में शामिल
हो चुकी अपनी बड़ी बहन की बातों को ख़ास तवज्जो नहीं दी। वह तो
अपने में ही खोया हुआ था।
बोला – ''आपा, मुझे इससे मतलब नहीं है कि कल क्या होगा, या
क्या हो सकता है। मुझे तो अपनी परवाह है। आज मुझे नींद में भी
डर लगता है कि कोई मुझे दाढ़ी पकड़कर घसीटता हुआ ले जाकर
हवालात में बंद कर देगा। फिर अनाप-शनाप धाराएँ लगाकर मुझे
आतंकवादी ठहरा देगा। सड़क पर घूमते हुए मुझे लगता है कि हर कोई
मुझे ही घूर रहा है। मौका मिलते ही सादी वर्दी में टहल रहा कोई
सरकारी एजेंट मुझे दबोच लेगा। और, इसके लिए मैं अपने नाम मतीन
मोहम्मद शेख, अपने मजहब इस्लाम और अपने खानदान से मिली पहचान
को गुनहगार मानता हूँ। मैं अभी तक बेधड़क जीनेवाला शख्स था,
किसी से भी डरता नहीं था। लेकिन आज हर वक्त अनजाने डर के साये
में जीता हूँ। आपा, मैं पूरी शिद्दत से ऊपर वाले की दी हुई ये
खूबसूरत ज़िंदगी बेखौफ़ जीना चाहता हूँ, बेवजह मरना नहीं
चाहता।''
- ''नन्हें मियाँ, इतनी बेमतलब और खोखली बातें मत करो। मियाँ,
तुम होते कौन हो, उस मज़हब और खानदान पर तोहमत लगानेवाले,
जिसने तुम्हें तुम्हारी पहचान दी है। इनके बग़ैर तुम आज जो कुछ
भी हो, वो कतई नहीं होते। रही, खौफ़, बहादुरी और जज्बे की बात
तो एक बात जान लो कि इसे पीछे तुम्हारे शरीर का बिगड़ा हुआ
हार्मोनल बैलेंस है। तुम्हारा गुबार, तुम्हारी घबराहट, सारी
जेहनी उठापटक और तुम्हारा अकेलापन, इस सारी सेंटीमेंटल चीज़ों
को तय करते हैं तुम्हारे शरीर के हार्मोन्स।''
मतीन पर जैसे घड़ों पानी पड़
गया। उसे लगा जैसे सरेआम चौराहे पर उसके सारे कपड़े उतार दिए
गए हों। लगा, जैसे पाँच फुट ग्यारह इंच का कद मोम की तरह
पिघलकर सड़क किनारे गिरे हुए पत्तों के ढेर में गुम हो गया। वह
सोचने लगा कि अगर ऐसा ही है तो उसका वजूद क्या है, उसके होने
का मतलब क्या है। सब कुछ हारमोन्स ही तय करते है तो क्या वह
कुदरत के हाथ की महज कठपुतली है? मतीन चाहकर भी इन बातों को
हवा में नहीं उड़ा सका। ये बातें क्यों कि सबीना ने कही थीं,
इसलिए इनकी अहमियत उसके लिए काफ़ी ज़्यादा थी।
असल में सबीना मतीन से बारह साल तीन महीने बड़ी है। वह अब्बू
और अम्मी की पहली संतान है, जबकि मतीन को पेट-पोंछन कहा जाता
था क्यों कि वह अपने माँ-बाप की पाँचवीं और अंतिम संतान है।
अम्मी और सबीना दोनों ही उसे छुटपन से बेहद प्यार करती थीं।
लेकिन सबीना ने बकइयाँ-बकइयाँ चलने से लेकर उसे अपने पैरों पर
दौड़ना तक सिखाया है। ककहरा सिखाया, दुनिया-जहान का ज्ञान
कराया। अब्बू को अपने संगीत कार्यक्रमों, देश-विदेश के दौरों
और रियाज़ से कभी फ़ुरसत ही नहीं मिली कि नन्हें (मतीन) के सिर
पर हाथ फेरते। यहीं से कुछ ऐसी अमिट दूरी बन गई कि मतीन अब्बू
की बातों को सिर्फ़ चुपचाप सुनता था, लेकिन हमेशा उनकी बातों
का ठीक उल्टा करता था। संगीत न सीखना इसकी एक छोटी-सी मिसाल
है। अब्बू कहते रहे, लेकिन उसने कभी भी संगीत की तरफ़ हल्का-सा
भी रुझान नहीं दिखाया। दूसरी तरफ़ अम्मी और सबीना की हर बात का
पलटकर जवाब देना मतीन की जैसे आदत बन गई। लेकिन आज सबीना की
बात का उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। इसलिए उसने मुद्दे से
हटे बग़ैर बात को हल्का करने की कोशिश की।
- ''एक खुदा से मेरी साँस
घुटती है। न उसकी कोई सूरत है, न कोई मूरत। लेकिन यहाँ तो कहीं
श्रीकृष्ण है, कहीं शंकर तो कहीं गदाधारी हनुमान। पूरे तैंतीस
करोड़ देवता हैं। जिसको मन चाहे, अपना हमनवाँ बना लो, सहारा
बना लो। ऊपर से चाहो तो और देवता भी गढ़ सकते हो।''
- ''बरखुरदार, तुम भगवान का सहारा खोजने निकले हो या फैशन
स्ट्रीट या मॉल में शर्ट ख़रीदने। खुद को और अपने सवालों को
समझने की कोशिश करो। तुम्हारी समस्याएँ नई हैं। इनका समाधान
पीछे की सोच या दर्शन में कैसे हो सकता है। अगर राह चलते
तुम्हारी कोई चीज़ खो गई तो तुम उसे पीछे लौटकर ढूँढ़ सकते हो।
लेकिन तुम्हारा तो कुछ भी खोया नहीं है, बल्कि तुमने बहुत कुछ
नया देखा और पाया है। तुम्हें नई उलझनों के तार सुलझाने हैं।
आखिर क्यों पुराने रास्ते पर लौटकर इन्हें और उलझाना चाहते
हो?''
सबीना उस दिन सुबह से लेकर
देर रात तक मतीन को तरह-तरह से समझाती रही। कभी प्यार से तो
कभी गुस्से से। हालाँकि उसका गुस्सा ज़्यादातर बनावटी था।
आख़िर में उसने दो-टूक फैसला सुना दिया।
- ''तुम जाकर अब सो जाओ। कल भोर में मैं बाहर जा रही हूँ। मतीन
शेख बनकर रहे तो लौटकर आने पर मिलूँगी और जतिन गांधी बनने की
ज़िद पर कायम रहे तो खुदा-हाफिज़। बस, उसके बाद समझना कि सारे
रिश्ते ख़त्म। फिर मिलने भी कभी मत आना।''
मतीन के सीने से एक हूक निकलकर गले से बाहर निकलने को हुई।
आँखों के आँसू पलकों में पसीज आए। सबीना उठकर चली गई। लेकिन
मतीन वहीं होंठ भींचकर भीतर ही भीतर कई घंटों तक बिलखता रहा।
मन में तरह-तरह के भाव,
तरह-तरह की इमोशन का रंदा चल रहा था। मतीन कहीं अंदर से टूटने
लगा।
- 'मेरी बहन तक मुझे नहीं समझ रही। जिसने मुझे गोंदी में
खिलाया, उँगली पकड़कर चलना सिखाया, जिसकी बातों और किताबों ने
मेरा नज़रिया बनाया, वही बहन आज मुझसे कभी न मिलने की बात कह
रही है। सिर्फ़ इसलिए कि मैंने उसके मज़हब को छोड़कर अलग मज़हब
अपनाने का फ़ैसला कर लिया? क्या सचमुच खून के रिश्ते कच्चे
इतने होते हैं, उनमें इतना बेगानापन छिपा होता है? लेकिन पहले
तो ऐसा नहीं था।'
मतीन को याद आया, तकरीबन पाँच
साल पहले का वो दिन, जब वह लंदन से रातोंरात फ्लाइट पकड़कर
दिल्ली पहुँचा था। दोस्त का फ़ोन आया था कि बहन अस्तपाल में
उसका हाथ पकड़कर रोई थी कि किसी तरह नन्हें को बुला दो, मैं अब
बचूँगी नहीं। उस समय सबीना को शादी के कई सालों बाद पहला बच्चा
होनेवाला था। मतीन की नौकरी को अभी पंद्रह दिन भी नहीं हुए थे,
लेकिन वह बग़ैर अपने करिअर की परवाह किए सचमुच उड़कर बहन के
पास पहुँचा था। और, आज वही बहन खुदा-हाफिज़...
मतीन खुद को रोक न सका और फफक
कर रो पड़ा। रात भी बाहर रो रही थी। घड़ी की सुइयाँ बिना
रुके-टिके टिक-टिक कर नियत गति से घूमती रहीं। सबीना भोर में
एयरपोर्ट के लिए निकली तो उसने घर के ख़ास नौकर नदीम को हिदायत
दी कि नन्हें जब तक घर में रहे, उसका पूरा ख़याल रखना। लेकिन
नदीम ने बताया कि भैया तो करीब एक घंटे पहले ही अपना सामान
लेकर चले गए। सबीना ने पलटकर नदीम की तरफ़ नहीं देखा। गाढ़े
रंग का चश्मा लगाया और सीधे जाकर कार में बैठ गई, एयरपोर्ट चली
गई।
मतीन बंगले के बाहर एक बड़े
पेड़ की छाया में खड़ा था। सबीना की कार निकल गई तो वह भी निकल
गया। पहुँच गया नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास पहाड़गंज के एक
गुमनाम से होटल में। न कुछ खाया, न पिया। बस बिस्तर पर
लेटे-लेटे खुद को समझाने में कोशिश में लगा रहा कि ज़िंदगी है,
सब चलता है। अभी तो न जाने क्या-क्या होना बाकी है। इसलिए मन
को इतना कमज़ोर करने की रत्ती भर भी ज़रूरत नहीं है। लेकिन
सबीना की बातों ने उसके अकेलेपन के अहसास को बेहद नाज़ुक मोड़
तक, ब्रेक डाउन तक पहुँचा दिया था। यह एक ऐसा अहसास था जो पराए
मुल्क में रहते हुए पहली बार उसके जेहन में आया था। थेम्स नदी
के किनारे बैठे हुए उसे भोर का उगता सूरज भी पराया लगता था।
यहाँ तक कि कांव-कांव करते कौए भी उसे अंग्रेज़ी बोलते दिख रहे
थे। ऐसा लगा था कि इन कौओं और अपने भारत के कौओं की प्रजाति
अलहदा है।
आज जतिन गांधी बन चुके मतीन
शेख को फिर बड़ी शिद्दत से लगने लगा कि समाज में सभी की
अपनी-अपनी गोलबंदियाँ हैं। सभी अपने-अपने गोल, अपने-अपने झुंड
में मस्त हैं। कहीं कौए मस्त हैं तो कहीं हंस मोती चुग रहे
हैं। लेकिन वह किसी गोल में नहीं खप पा रहा। सच कहें तो वह न
अभी न पूरा हिंदू बना है, न ही मुसलमान रह गया है। बहुत
ज़्यादा कामयाब नहीं है, लेकिन खस्ताहाल भी नहीं है। फिलहाल
हालत ये है कि न तो वह कौओं की ज़मात में शुमार है और न ही
हंसों के झुंड का हिस्सा बन पा रहा है। ये भी तो नहीं कि उसके
बारे में कहा जा सके कि सुखिया सब संसार है खावै और सोवै,
दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै। फिर वह आख़िर चाहता क्या है?
जतिन गांधी ने बाहर जाकर
सैलून में दाढ़ी-मूछ साफ करवाई। अपना चेहरा आईने में देखकर
मुँह इधर-उधर टेढ़ा करके थोड़े मज़े लिए। नहाया-धोया।
खाया-पिया और बिस्तर पर आकर लेट गया। लेकिन उसके तमाम सवाल अब
भी अनुत्तरित थे। वह सोचने लगा कि आख़िर उसके भारत में पैदा
होने का मतलब क्या है? अगर इसका ताल्लुक महज़ पासपोर्ट से है
तो चंद पन्नों के इस गुटके को पाँच-दस साल बिताकर दुनिया के
किसी भी देश से हासिल किया जा सकता है। अगर ये महज़ एक भावना
है, इमोशन है तो बड़बोले लालू का भारत, चिंदबरम का भारत
निर्माण और मनमोहन सिंह की इंडिया ग्रोथ स्टोरी उसे अपनी क्यों
नहीं लगती? मुलायम के समाजवादी स्वांग, अमर सिंह के फ़रेब,
तोगड़िया-आडवाणी या नरेंद्र मोदी के मुस्लिम विरोध का वह
भागीदार कैसे बन सकता है? उसे तो भारत के नाम पर अपने
अब्बू-अम्मी और सबीना नज़र आती हैं। अपने दोस्त दिखते हैं।
अब्बा का सितार दिखता है। घर से सटा पीपल-जामुन का पेड़ दिखता
है।
मगर, उसने खुद से सवाल पूछा कि क्या देश अपने अवाम और भूगोल का
समुच्चय भर होता है? खुद ही जवाब भी दे डाला – कोई भी देश
संविधान, सेना, सुरक्षा तंत्र और सरकार को मिलाकर बनता है।
किसी का अमूर्त देश कुछ भी हो, लेकिन असल देश तो यही सब चीज़ें
हैं जिनसे अभी तक उसका कोई तादात्म्य नहीं बन पाया है। जतिन
गांधी ये सब सोच-सोचकर खुद को और ज़्यादा अलग-थलग महसूस करने
लगा। उसे लगा कि वह अपने वतन में रहते हुए भी निर्वासित है।
दोनों हाथों की उँगलियों से सिर के बालों को खींचकर खुद से
झल्लाकर बोला – मैं स्टेडियम में बैठकर क्रिकेट मैच देखनेवालों
में शुमार क्यों नहीं हूँ? ऐसे ही उमड़ते-घुमड़ते कई सवालों ने
नए-नए हिंदू बने जतिन गांधी का पीछा नहीं छोड़ा। उसकी हालत
पुनर्मूषको भव: वाली थी। जहां से शुरू किया था, वहीं घूम-फिर
कर वापस आ गया था।
जतिन पहाड़गंज के उस होटल में
क़रीब दस दिन तक रहा। इस दौरान कई बार उसके मन में आया कि
अम्मी के पास लौट जाए, अब्बू से माफ़ी माँग ले। ये न हो सके तो
सबीना के पास ही चला जाए। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया
क्यों कि कदम आगे बढ़ाकर इतनी जल्दी पीछे खींच लेना, किसी काम
को अंजाम पर पहुँचाए बिना छोड़ देना उसकी फ़ितरत में नहीं था।
उसके पास लंदन वापस लौटकर
पुरानी नौकरी पर डट जाने का भी विकल्प खुला था, क्यों कि अभी तो
तीन महीने में से उसकी बमुश्किल चालीस दिन की छुट्टी पूरी हुई
थी। लेकिन इस विकल्प को उसने एक सिरे से खारिज कर दिया। वह
फिलहाल अकेलेपन से निजात पाने के लिए खुद को भीड़ में खो देना
चाहता था। लिहाजा मुंबई आ गया। किस्मत का धनी था। इसीलिए खुद
को अक्सर ईश्वर का राजकुमार बताता था। मुंबई में एक इंफोकॉम
कंपनी में अच्छी-ख़ासी नौकरी मिल गई। वहीं पर एक प्यारी-सी
लड़की पहले दोस्त बनी और दो साल बाद बीवी। संयोग से उसका नाम
नुसरत जहाँ था। कुछ सालों बाद उनके घर किलकारियाँ गूँजी तो
बच्ची का नाम रखा ज़ैनब गांधी। बच्ची की पहली सालगिरह पर उसने
लंदन से अपने दो ख़ास दोस्तों इम्तियाज़ मिश्रा और शांतुन
हुसैन को भी सपरिवार बुलवाया था, आने-जाने की फ्लाइट का टिकट
भेजकर।
इस तरह मतीन मोहम्मद शेख के
जतिन गांधी बनने की कहानी एक सुखद मोड़ पर आकर ख़त्म हो गई।
लेकिन उसकी असल ज़िंदगी यहीं से शुरू हुई। धर्म उसे कोई पहचान
नहीं दे सका। पेशे और काबिलियत ने ही उसे असली पहचान दी। उसी
तरह जैसे अजीम प्रेमजी के बारे में कोई नहीं सोचता कि वह कितने
अजीम हैं और कितने प्रेमजी। जैसे कोई शाहरुख, सलमान या आमिर के
मुस्लिम होने की बात सोचता ही नहीं। सलमान राम का रोल करें तो
टीवी के आगे आरती करने में किसी को हिचक नहीं होगी। हाँ, जतिन
को जिन चीज़ों ने पहचान दी, उनमें बंगाली, उर्दू, हिंदी और
अंग्रेज़ी पर उसकी अच्छी पकड़ का भी योगदान रहा। इस दौरान वह
कोलकाता या दिल्ली भी आता-जाता रहा। अम्मी-अब्बू और सबीना से
मिला कि नहीं, ये पता नहीं है। लेकिन लगता है, मिला ही होगा।
मुस्लिम होने की बात वह काफ़ी हद तक भुला चुका है। लेकिन दंगों
की बात सोचकर कभी-कभी वह घबरा जाता है कि कहीं दंगाइयों ने
उसकी पैंट उतारकर उसके धर्म की पहचान शुरू कर दी तो उसका क्या
होगा? ख़ैर, जो होगा सो देखा जाएगा। जब ओखली में सिर दिया तो
मूसल का क्या डर? |