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ऐसा नहीं है कि उसे अपने हिंदुस्तानी होने पर नाज़ नहीं है। वह आँखें बंद कर के देखता तो उसके शरीर में छत्तीसगढ़ के पठार, झारखंड के जंगल, उत्तराखंड की पर्वत शृंखलाएँ और पश्चिम बंगाल का सुंदरवन लहराते लगता, उसकी धमनियों में वेस्टर्न घाट के झरने बहते लगते। मगर, आँखें खोलने पर वह खुद को एकदम रीता, ठन-ठन गोपाल महसूस करता। यह उसके अंदर की सतत बेचैनी थी, जिसे लेकर वह उधेड़बुन में लगा रहता, उसी तरह जैसे मध्यकाल में या उससे पहले कोई योगी या संत अपने स्व को, अहम को लेकर परेशान रहा करता होगा।

लेकिन उसे झटका तब लगा, जब वह लंदन से तीन महीने की छुट्टी लेकर घर आ रहा था। उसके फ्लाइट पकड़ने के दो दिन पहले ग्लासगो में धमाके हो गए और उसकी चमड़ी का रंग, उसके चेहरे की दाढ़ी और उसका मुस्लिम नाम उसके लिए मुसीबत का सबब बन गया। मतीन को हीथ्रो एयरपोर्ट पर चेक-इन से पहले ही ब्रिटिश पुलिस ने शक के आधार पर हिरासत में ले लिया। फिर तो हर तरफ़ ख़बर चल गई कि मतीन मोहम्मद शेख कट्टर आतंकवादी है।

उधर, कोलकाता में माँ परेशान थी, बाप परेशान था। मदरसे के मौलवी परेशान थे। कॉलेज के गुरु परेशान थे। पड़ोसी और दोस्त भी हैरान थे कि शांत, मितभाषी, पढ़ाकू और औसत से काफ़ी तेज़ दिमाग़ वाला मतीन आंतकवादी कैसे हो सकता है। वह सदाचार, शिष्टाचार और जीवन में नैतिकता का कायल था, लेकिन, मौलवी साहब भी बताते हैं कि, वह कट्टर धार्मिक कभी नहीं रहा, बल्कि वह तो जब से साइंस और गणित की पढ़ाई कर रहा था, तभी से धार्मिक मान्यताओं पर सवाल उठाता रहा था। फिर, जब वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया, तब तो उसने हर दिन नमाज़ पढ़ना भी छोड़ दिया। बस, मन किया तो जुमे के दिन खानापूरी कर दी, वरना वो भी नहीं।

लंदन में हुआ यह कि ब्रिटिश पुलिस ने मतीन मोहम्मद शेख का पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया। तेरह दिन तक पूछताछ की। आख़िरकार उसकी कंपनी और भारतीय उच्चायोग की ढेर सारी गुज़ारिशों और सफ़ाइयों के बाद उसे छोड़ा गया। लेकिन भारत में कदम रखने पर भी मतीन की मुश्किलें कम नहीं हुईं। मुंबई एयरपोर्ट से बाहर निकला तो यहाँ भी उसकी दाढ़ी उसके लिए नई सांसत लेकर आ गई। टैक्सीवाले से ज़रा-सी कहा-सुनी हो रही थी कि पुलिस ने उसे धर दबोचा। दादर थाने ले गई। दस बजे से लेकर शाम चार बजे तक हवालात में बंद रखा। वो तो दिल्ली से अब्बू के मिनिस्टर दोस्त का फ़ोन आया, तब जाकर उसे छोड़ा गया। नहीं तो वह मुंबई के एंटी टेररिस्ट स्क्वैड के लिए लोकल ट्रेन में धमाकों का एक और अभियुक्त बन ही चुका था।

इस तरह होते-हवाते वह कोलकाता पहुँचा तो हफ्ते दस दिन तक सदमें में रहा। बस, खाता-पीता और आई-पॉड पर गाने सुनता। शहर से बाहर गारुलिया कस्बे के पास भागीरथी नदी से किनारे उसकी तीन मंज़िला पुश्तैनी कोठी थी। उसने कोठी के सबसे ऊपर के कमरे में खुद को कैद कर लिया। कभी-कभी देर रात तक खुली छत पर टहलता रहता। अम्मी बड़ी परेशान हो गईं तो उसने उन्हें समझा दिया कि अब सब ठीक हो चुका है। नौकरी की थकान बची है, वह भी उतर जाएगी। लेकिन सदमें से निकलते ही उस पर हिंदू बनने का भूत सवार हो गया और एक दिन वह इसी मसले को लेकर अपने अब्बू से भिड़ गया।
मतीन की आवाज़ में तल्खी थी और उलाहना भी।
- ''अब्बू, आप ही बताओ। आठ पीढ़ियाँ पहले हम क्या थे? एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण, जिनके भाई-बंधु अब भी कन्नौज के किसी इलाके में जहाँ-तहाँ बिखरे हुए हैं। जाने क्या हादसा हुआ होगा, जाने किस बात पर तकरार बढ़ी होगी कि हमारे पुरखों ने खून का रिश्ता तोड़ दिया होगा। कैसी बेपनाह नफ़रत या मजबूरी रही होगी कि घर ही नहीं, धर्म तक बाँट लिया। ज़रा सोचिए, मन का तूफ़ान थमने के बाद वो अपनों से जुदा होने पर, खून के रिश्तों के टूटने पर कितना कलपे होंगे। सालोंसाल तक एक टीस उन्हें सालती रही होगी। फिर, धीरे-धीरे वो वक्त आ गया कि अगली पीढ़ियाँ सब भूल गईं। जो कभी अपने थे, वे पराये होते-होते एक दिन काफ़िर बन गए। अब्बू, भाइयों का बँटवारा एक बात होती है। लेकिन जेहन बँट जाना, मज़हब बँट जाना बेइंतिहा तकलीफ़देह होता है।''
- ''मतीन बेटा, खून के रिश्तों में वक्त के साथ फ़ासलों का आना, बेगानापन आना बेहद आम बात है। फिर, सदियों पुरानी इन बातों को आज उधेड़ने से क्या फ़ायदा?''
- ''बात इतनी पुरानी भी नहीं है अब्बू। ज़रा याद करो, दादीजान कैसे अपनी कोठी से सटे पीपल के पेड़ में छत पर जाकर जल दिया करती थीं। हालाँकि इस बहाने कि छत पर दातून करना उन्हें अच्छा लगता है। फिर बाल्टी से लोटे में साफ़ पानी निकाल कर छत से सटी पीपल की डाल पर गिरा दिया करती थीं, वह भी बिला नागा। ऊपर आसमान की तरफ़ देखतीं, शायद सूरज से ज़िंदगी का उजाला माँगा करती थीं।''
मतीन बोलता जा रहा था। उस्ताद अली मोहम्मद शेख अभी तक चुप थे। लेकिन एक खीझ उनके अंदर उभरने लगी। पारा चढ़ने लगा। भौंहें तनने लगीं। मतीन इससे बेख़बर अपनी रौ में डूबता-डूबता बचपन में जा पहुँचा।
- ''और, वह पीपल का पेड़ भी कैसा था। कभी नीचे ज़मीन से जामुन और पीपल के पौधे एक साथ बढ़ना शुरू हुए होंगे। लेकिन बढ़ते-बढ़ते वे एक-दूजे में ऐसे समा गए कि तने आपस में गुँथ गए। कहाँ से पीपल की शाख निकलती थी और कहाँ से जामुन की, पता ही नहीं चलता था। पीपल के पत्तों के बीच जामुन के पत्ते। जामुन के पत्तों के बीच पीपल के पत्ते...''

मतीन छोटा था तो अपने दोनों हाथों और पैरों को किसी योगमुद्रा के अंदाज़ में लपेट कर कहता - ''देखो, मैं दादीजान का पेड़ बन गया।''
उस्ताद का गुस्सा अब फट पड़ने को हो आया। लेकिन उन्होंने काबू रखते हुए कहा - ''बेटे, तुमको अंदाज़ा नहीं है कि हमारे पुरखों ने किस तरह की जिल्लत, किस तरह की तंगदिली से आज़िज़ आकर नए मजहब को अपनाया था। उस समय इस्लाम सबसे ज़्यादा इंसानी तहज़ीब और मोहब्बत का धर्म था। हमारे पुरखों का फ़ैसला इंसानियत को आगे बढ़ाने का फ़ैसला था। तुम्हें तो इस पर फ़ख़्र होना चाहिए। अगर तुम आज अपने मज़हब को पाखंड मानने लगे हो तो एक पाखंड को छोड़कर सनातन पाखंड का दामन थामना कहाँ तक वाजिब है?''
- ''तो क्या आप चाहते हैं कि मैं उस मज़हब में पड़ा रहूँ, जो आज सारी दुनिया में आतंकवाद का दूसरा नाम बन गया है, जेहाद के नाम पर खून-खराबे का मज़हब बन गया है। आपके खुदा और मोहम्मद साहब से बहुत दूर चला गया है इस्लाम। मैं ऐसे इस्लाम का लबादा ओढ़कर नहीं रहना चाहता जहाँ लोग आपको हमेशा शक की निगाह से देखते हैं। क्या लेना-देना है मेरा अल-कायदा या लश्कर-ए-तैयबा से। लेकिन पराए मुल्क में ही नहीं, अपने मुल्क में भी मेरे साथ ऐसा सुलूक किया गया जैसे मैंने ही धमाके किए हों या धमाका करनेवालों को शेल्टर दिया हो।''
यहीं पर फट गया उस्ताद का गुस्सा। बोले - ''खुदा का कुफ्र टूटे तुझ पर। काफ़िरों के बहकावे में तेरा दिमाग़ फिर गया है। अभी इसी वक्त मेरी नज़रों से दूर हो जा, वरना मेरा हाथ उठ जाएगा।''

मतीन बैठकखाने से उठा और सीधे छत पर अपने कमरे में चला गया। उसे लगा कि अपने दो ख़ास दोस्तों - इम्तियाज़ मिश्रा और शांतनु हुसैन के बारे में अब्बू को बताकर उसने ठीक नहीं किया। वैसे, वह खुद भी नहीं जानता था कि ये दोनों हिंदू हैं या मुसलमान। कभी पूछने की जरूरत ही नहीं समझी कि उनके माँ-बाप में से कौन हिंदू था और कौन मुसलमान। ख़ैर, मतीन को पूरा यकीन था कि अपने भावुक तर्कों और बुद्धिसंगत बातों से अब्बू को आसानी से मना लेगा। लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ। और, उसने हमेशा की तरह ठीक अब्बू के कहे का उल्टा करने का निश्चय कर लिया। एक आर्यसमाज मंदिर में जाकर हिंदू धर्म की दीक्षा ली। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेज़ी अख़बारों में नोटिस छपवाई और एक हफ्ते के भीतर मतीन मोहम्मद शेख से जतिन गांधी बन गया।

उधर नोटिस छपते ही ये ख़बर अख़बारों की सुर्खियाँ बन गई। उस्ताद के पास फ़ोन पर फ़ोन आने लगे। रिश्तेदारों से लेकर नेताओं और संगीतकार बिरादरी तक में कुतूहल फैल गया। पूरा तहलका मच गया। उस्ताद ने आख़िरी कोशिश की और मतीन की अम्मी को उसे बुलाकर लाने को कहा।

आपको बता दें कि अम्मी का नाम कभी मेहरुन्निशा खातून हुआ करता था। लेकिन शादी के बीते चालीस सालों में उनका नाम मतीन की अम्मी, असलम की बुआ और सईद की खाला ही बनकर रह गया है। उस्ताद किसी ज़माने में उन्हें बेगम कहकर बुलाते थे। लेकिन मतीन के जन्म, यानी पिछले तेइस सालों से मतीन की अम्मी ही कहते रहे हैं। मेहरुन्निशा का कद यही कोई पाँच फुट एक इंच था, उस्ताद से पूरे एक फुट छोटी। दूसरी बंगाली औरतों की तरह उस नन्हीं जान ने कभी पान नहीं खाया। हाँ, उस्ताद के लिए पनडब्बा ज़रूर रखती थी। बच्चों के अलावा किसी ने बग़ैर पल्लू के उनका चेहरा नहीं देखा। हमेशा उस्ताद के हुक्म की बांदी थी। लेकिन आज मतीन के पास वे उस्ताद के हुक्म से ज़्यादा अपनी ममता से खिंची चली गईं।

- ''नन्हकू, तू हमेशा मुझसे दूर रहा। कभी पढ़ाई के लिए तो कभी नौकरी के लिए। फिर भी दिल को तसल्ली रहती थी। लगता था कि तू पास में ही है। कभी न कभी तो आएगा। लेकिन इस बार तूने कैसा फ़ासला बना लिया कि कोई आस ही नहीं छोड़ी।''
- ''नहीं, अम्मी। बस यों ही...'' मतीन ने अम्मी का हाथ पकड़ कर कहा। लेकिन हाथ झटक दिया गया। अम्मी की आवाज़ तल्ख होकर भर आई।
- ''क्या हम इतने ज़्यादा ग़ैर हो गए कि एक झटके में खर-पतवार की तरह उखाड़ फेंका। एक बार भी नहीं सोचा कि इन तन्हा माँ पर क्या गुज़रेगी।...फिर, तू अकेला कहाँ-कहाँ भटकेगा, कैसे सहन कर पाएगा इतना सारा कुछ। ये सोचकर ही मेरा कलेजा चाक हुआ जाता है।''
ये कहते हुए मेहरुन्निशा के आँसू फफक कर फूट पड़े। अंदर का हाहाकार हरहरा कर बहने लगा। मतीन ने खुद को सँभाला, अट्ठावन साल की मेहरुन्निशा खातून को सँभाला।
- ''अम्मी, तू मेरी फिक्र छोड़ दे। सहने की ताक़त मैंने तुझी से हासिल की है। फिर, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रहा हूँ। जब चाहे बुला लेना। अम्मी यह मेरी लड़ाई है, मुझे ही लड़ने दे। मुझे कमज़ोर मत कर मेरी अम्मा।''
अम्मी ने आँसू पोंछ डालें। पल्लू सिर पर डाला और बोली - ''चलो, अब्बू से मिल लो। नीचे बुलाया है।''
मतीन नन्हें बच्चे की तरह माँ के पीछे-पीछे दूसरी मंज़िल पर अब्बू के उस कमरे में पहुँच गया, जहाँ वो सितार की तान छेड़ा करते थे, रियाज़ किया करते थे। अब्बू पिछले कई घंटे से वहीं बैठे हुए थे।
- ''तो जतिन गांधी, कल तक हमारे रहे मतीन मियाँ, सब कायदे से सोच लिया है न।''
लेकिन मतीन की जुबान पर जैसे ताले लग चुके थे।
- ''मतीन, आख़िरी मर्तबा मेरी बात समझने की कोशिश करो। तुम तहज़ीब और मज़हब में फ़र्क नहीं कर रहे। काश, तुमने मेरा कहा मानकर संगीत में मन लगाया होता तो आज इतने खोखले और कन्फ्यूज नहीं होते। तहज़ीब ही किसी मुल्क को, किसी सभ्यता को जोड़कर रखती है। वह नदी की धारा की तरह बहती है, कहीं टूटती नहीं। मज़हब तो अपने अंदर की आस्था की चीज़ है, निजी विश्वास की बात है। मुश्किल ये है कि तुम्हारे अंदर से आस्था का भाव ही ख़त्म हो गया है। न तुम्हें खुदा पर आस्था है और न ही खुद पर। मज़हब बदलने से तुम्हारी कोई मुश्किल आसान नहीं होगी। तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं मिलेगा।''
- ''अब्बू, आप जैसा भी सोचें, आपको कहने का हक है। लेकिन मेरे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है। मुझे तो लड़-भिड़ कर इसी दुनिया-जहाँ में अपनी जगह बनानी है। मैं अपनी ताक़त इस लड़ाई में लगाना चाहता हूँ। फिजूल की परेशानियों में इसे जाया नहीं करना चाहता। बस...मैं आपसे और क्या कहूँ?''

उस्ताद तैश में आ गए।
- ''तो ठीक है। कर लो अपने मन की। मुझे भी अब तुमसे कुछ और नहीं कहना है। बड़ा कर दिया, पढ़ा-लिखा दिया। काबिल बना दिया तो उड़ जाओ इस घोंसले से क्यों कि तुम्हारा यहाँ मन नहीं लगता, तुम्हारे लिए यह तंग पड़ता है। छोड़ जाओ, इस फकीर और उस तन्हा औरत को, जो सिर्फ़ तुम्हीं में अपनी जन्नत देखती रही है। कौन रोक सकता है तुम्हें...''
- ''अब्बू, इमोनशल होने की बात नहीं है। मेरी अपनी ज़िंदगी है, मुझे अपनी तरह जीने दें।''
- ''तो जी लो ना। इमोशन का तुम्हारे लिए कोई मतलब नहीं तो ये भी समझ लो कि ये तुम जो ऐशोआराम झेलते रहे हो, ये जो पुश्तैनी जायदाद है, इसमें अब तुम्हारा रत्ती भर भी हिस्सा नहीं रह जाएगा।''
- ''अब्बू, उतर आए न आप अपनी पर। आप तो गुजरात की उस रियासत से भी गए-गुज़रे निकले जिसने अपने बेटे के गे (समलैंगिक) हो जाने पर उसे सारी जायदाद से बेदखल कर दिया था। अरे, मैं कोई गुनाह करने जा रहा हूँ जो आप मुझे इस तरह की धमकी दे रहे हैं।''
अब अब्बू के बगल में बैठी अम्मी से नहीं रहा गया। वो पल्लू से आँसू पोंछते हुए तेज़ी से बाहर निकल गईं। उस्ताद के लिए थोड़ा सँभलना अब ज़रूरी हो गया।
- ''मतीन बेटा, मुझे अपनी नज़रों में इतना मत गिराओ। तुम्हें जो करना है करो। बस, मेरी ये बात याद रखना कि बाहर हर मोड़ पर शिकारी घात लगाकर बैठे हैं। वो तुम्हें अकेला पाते ही निगल जाएँगे।''

बाप-बेटे में बातचीत का ये आख़िरी वाक्य था। अंतिम फ़ैसला हो चुका था। मतीन को जाना ही था। विदा-विदाई की बेला आ पहुँची थी। उस दिन मतीन उर्फ जतिन गांधी अपने कमरे में पहुँचा तो रात के सवा बारह बज चुके थे। उस्ताद अली मोहम्मद शेख के परिवार में ऐसा पहली बार हुआ था कि सभी लोग इतनी रात गए तक जग रहे थे। नहीं तो दस बजते-बजते अम्मी तक बिस्तर पर चली जाया करती थी। ये भी पहली बार हुआ कि उस्ताद का सितार रात के तीसरे पहर तक किसी विछोह, किसी मान-मनुहार का राग छेड़े हुए था।

मतीन ने अपने काग़ज़-पत्तर सँभाल लिए। एक सूटकेस, हैंडबैग...बस यही वह अपने साथ लेकर जानेवाला था। बड़े जतन से ख़रीदी गई ज़्यादातर किताबें तक उसने वहीं अपने कमरे में छोड़ दीं। उसे पता था कि इस घर और इस कमरे में लौटना अब कभी नहीं होगा। फिर भी, उसने बहुत कुछ यों ही बिखरा छोड़ दिया जैसे कल ही उसे लौटकर आना हो। वैसे, उसे ये भी यकीनी तौर पर पता था कि उसके चले जाने के बाद उसके कमरे में अम्मी के सिवाय कोई और नहीं आएगा, कमरे को उसके पूरे मौजूदा विन्यास के साथ किसी गुज़र गए अपने की याद की तरह आख़िर-आख़िर तक सहेज कर रखा जाएगा।

यही कोई सुबह के चार-सवा चार बजे रहे होंगे, जब मतीन अपने कमरे से हमेशा-हमेशा के लिए नीचे उतरा। दिल्ली की गाड़ी सुबह आठ बजकर दस मिनट पर छूटती थी। लेकिन उससे घर में और ज़्यादा नहीं रुका गया। नीचे उतरा तो अब्बू से लेकर अम्मी तक के कमरे की लाइट जली हुई थी। लेकिन कमरे में कोई नहीं था। अब्बू अम्मी को साथ लेकर कहीं चले गए थे। मतीन को लगा, ये अच्छा ही हुआ। नहीं तो बेवजह का रोनाधोना होता। वह वक्त से दो घंटे पहले हावड़ा स्टेशन पहुँच गया।

पुराना सब कुछ छोड़ने से पहले वह दिल्ली जा रहा था, अपनी बहन सबीना से मिलने क्यों कि वही तो है जो उसे इस घर में सबसे ज़्यादा समझती है। सबीना राज्यसभा की सदस्य है। सरकारी बंगला मिला हुआ है। काफ़ी पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों की है। पूरा दिन और पूरी रात के सफ़र के बाद वह सुबह जब दिल्ली पहुँचा तब तक उस्ताद अली मोहम्मद शेख उसे अपनी पूरी विरासत और जायदाद से बेदखल कर चुके थे। लेकिन इतना सब कुछ बदल जाने के बावजूद मतीन का घर का नाम नन्हें ही रहा।

सबीना हमेशा की तरह मतीन से दौड़कर नहीं मिली। उसने उसे आधे घंटे से भी ज़्यादा इंतज़ार करवाया। असल में सबीना को भी सारा कुछ जानकर काफ़ी ठेस लगी थी। अब्बू और अम्मी ने इस सिलसिले में उससे कई बार बात की थी। इसलिए आज वो मिलना चाहकर भी मतीन से नहीं मिलना चाहती थी। शायद अपने दिल के जज़्बातों को सँभालने के लिए थोड़ा वक्त चाहती थी। वैसे, बंगले के अंदर से बाहर दीवानखाने में आई तो पुराने अंदाज़ में ही बोली - ''तो नन्हें मियाँ को बहन की याद आ ही गई।''

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