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                     यह संयोग ही था कि वे दोनों 
					पीसीओ बूथ में प्रविष्ट हो गए। वे कह रहीं थी, "आप ग़लत अर्थ 
					मत लगाइए, किसी के यहाँ जाने से पहले आजकल फ़ोन कर लेना ठीक 
					रहता है। पता नहीं वे फ़ुरसत में हैं या नहीं, या फिर उन्हे 
					कहीं बाहर जाना हो, या ये भी हो सकता है कि वे बाहर ही चले गए 
					हों। उनके साथ वाले व्यक्ति ने निरपेक्ष भाव से कहा था, "अरे मैं 
					कहाँ बुरा मान रहा हूँ। आप का कहना दुरुस्त है मैडम।"
 बूथ में फ़ोन डायल करने तक सन्नाटा रहा, फिर कुछ देर बाद आवाज़ 
					गूँजी, "हलो सिमरनपुर से! पटेल साहब हैं क्या? मैं मनीराम बोल 
					रहा हूँ। ज़रा बात कराइए उनसे।"
 "हलो पटेल साहब, मैंने कहा था न, मैं आज मिलने आ रहा हूँ। 
					उन्हें साथ ला रहा हूँ।"
 कुछ देर बाद वे लोग बाहर आए। 
					मनीराम ने जेब से चाबी निकाल कर अपनी बाइक स्टार्ट की और पीछे 
					देखने लगा। अन्नपूर्णा भाभी अपनेपन की भीतरी खुशी से मुस्कराती 
					हुई लपक के मनीराम के पीछे बैठ गई। गियर डाल के मनीराम ने 
					गाड़ी आगे बढ़ाई तो वे मनीराम पर लद-सी गईं।मैं निराश-सा वहाँ से मुड़ा और अपने बीमा ऑफ़िस की ओर चल पड़ा।
 अगले दिन मेरा मन न माना तो मैं सुबह-सुबह उनके घर जा धमका।
 उनके सरकारी क्वार्टर के बाहर, बाउंड्रीवाल पर पुरानी 
					नाम-पटि्टका की जगह पीतल की नई चमकदार नेम-प्लेट लग चुकी थी- 
					भरत वर्मा, क्षेत्रीय अधिकारी।
 दरवाज़ा वर्मा जी ने खोला, मुझे देख कर वे थोड़ा चौंके, "क्यों 
					साहब, प्रीमियम डयू हो गया क्या?"
 मैंने हमेशा बनियान-पैजामा पहने रहने वाले वर्मा जी को अच्छी 
					क्वालिटी के गाउन में सजा-धजा देखा तो काफ़ी बदलाव महसूस हुआ। 
					लेकिन ग़ौर किया तो मैंने उनके पैतालीस वर्षीय बदन को वैसा ही 
					दुबला और कमज़ोर पाया। वही गरदन के पास से झाँकती कालर बोन, 
					कपोलों पर मांस से ज़्यादा हाड़ दर्शाता सूखा-सा चेहरा और वे 
					ही खपच्चियों से लटके दुबले लंबी अँगुलियों वाले हड़ियल हाथ। 
					उन्हें आश्वस्त करता हुआ मैं बोला, "नहीं वर्मा जी, प्रीमियम 
					तो तीन महीने बाद है! मैं तो बस यों ही!"
 "कोई बात नहीं, स्वागतम! आइए न!"
 मैं प्रसन्न मन से भीतर घुसा और सोफा की सिंगल सीट पर पसर के 
					बैठ गया। वर्मा जी मेरे ऐन सामने बैठे फिर मुस्कराते हुए बोले, 
					"और सुनाइए, आपकी प्रोग्रेस कैसी है? अब तक 'डी एम क्लब' के 
					मेंबर बनें या नहीं!"
 "हाँ, वो तो मैं दो बरस पहले ही बन गया था, अपनी ब्रांच का 
					पहला करोड़पति एजेंट हूँ मैं।" बताते हुए मैं पुलकित था, पर 
					भीतर ही भीतर सोच रहा था कि पहले कभी किसी बात में रुचि न लेने 
					वाले वर्मा जी आज बड़े व्यवहारिक दिख रहे हैं। ऐसा क्यों है?
 तभी भीतर से अन्नपूर्णा भाभी 
					की 'कौन हैं जी' मीठी आवाज़ आई तो मेरा दिल उछल के हलक में आ 
					गया, मेरी निगाहें बैठक कक्ष के भीतरी दरवाज़े पर टिक गईं।सुआपंखी रंग की ज़मीन पर गहरे काले रंग की छींट वाला, सूती 
					कपड़े का ढीला-ढाला गाऊन पहने, दोनों हाथ पीछे करके जूड़ा 
					बाँधती वे जब नमूदार हुईं, तो मैं ठगा-सा उन्हें देखता ही रह 
					गया। इस अस्त-व्यस्त दशा में भी वे ग़ज़ब की जम रहीं थीं।
 मुझे देखकर वे गहरे से मुस्कराईं और हाथ जोड़कर बोलीं, "अरे 
					गुप्ताजी आप आए हैं! बड़ी उमर हैं आपकी! मैं कल ही इनसे कह रही 
					थी, कि एक दिन आपसे मिलना है। आप न आते तो मैं आज ही आपके पास 
					आ रही थी।"
 हमें बतियाता देख, यकायक 
					वर्मा जी चुपचाप खिसक गए।और अब जाने क्यों मैं खुद को सहज नहीं पा रहा था।
 मुझे सोच में पड़ा देख वे तपाक से बोलीं, "अरे अमर, किस टैंशन 
					में फँसे हुए हो यार!"
 "कहाँ? मैं किसी टैंशन में नहीं हूँ।" कहता हुआ मैं मुस्कराने 
					की व्यर्थ-सी कोशिश करने लगा, "आपके बच्चे नहीं दिख रहे आज!"
 "वे दोनों स्कूल गए हैं।" कहते हुए वे मुझसे पूछने लगीं, "आपने 
					बीमा एजेंसीं लेते वक्त, ग्राहक को डील करने का कोई ख़ास कोर्स 
					किया था क्या?"
 "नहीं तो, बस पंद्रह दिन का ओरियेंटेशन प्रोग्राम हुआ था, मंडल 
					कार्यालय में! क्यों कोई ख़ास बात?"
 मुझे लगा, आज कोई ख़ास बात है, इसी वजह से वे इतना अपनत्व दिखा 
					रही हैं। वे इस तरह धाराप्रवाह ढंग से मुझसे बतियाने में जुट 
					गईं कि मैं उन्हे ठीक ढंग से देख ही नहीं पा रहा था। शायद मुझे 
					इसी उलझन में डालने के लिए वे लगातार बोलती जा रही थीं।
 वर्मा जी चाय बहुत अच्छी बनाने लगे थे।
 बिस्कुट कुतरते समय वे गहरे 
					आत्मविश्वास में डूबी थीं, मैं उनके व्यवहार पर क्षण-क्षण चकित 
					था। बीमा की किश्त लेने मैं हर छह माह में इनके यहाँ आता रहा 
					हूँ। बीच में नई लाँच की गई पॉलिसी लेने के लिए उनको पटाने भी 
					मैं अक्सर आ जाता था, पर वे इतनी खुलकर कभी नहीं मिली। प्राय: 
					वर्मा जी से भेंट होती थी, वे बीच में कभी-कभार बैठक में आती 
					थीं तो नमस्कार करके तुरंत भीतर चली जाती थीं। मेरी निगाह उनके मोहक चेहरे 
					और ढीले-ढाले गाऊन में से उभरते उनके आकर्षक बदन को ताकने का 
					लोभ सँवरण नहीं कर पा रही थी और अब अपने को ताके जाने का ज्ञान 
					होने के बाद, वे मुझसे नज़रें नहीं मिला रही थीं, छत को बेवजह 
					घूर रहीं थी, और खुद को ठीक से ताकने का मौका दे रही थीं।शाम को कार्यालय से लौटकर, मैं बाथरूम से बाहर ही आया था कि 
					पत्नी ने आँखें चमकाते हुए कहा, "जाओ, बैठक में एक स्मार्ट और 
					सुंदर-सी महिला आपसे मिलना चाहती है।"
 मैं समझ गया कि वे ही होंगी। पाँच मिनट में ही बाहर जाने वाले 
					कपड़े पहन, सेंट का छिड़काव कर मैं बैठक में था।
 "नमस्ते! सॉरी, मुझे ज़रा देर हो गई।" आवाज़ में ढेर-सी 
					मुलामियत भर के मैं अदब से झुकते हुए बोला।
 "नमस्ते, नमस्ते!" वे चहकीं।
 "अरे शुभा! भाभी जी को चाय पिलाओ, और देखना, ज़रा बिस्कुट 
					वगैरह लेती आना।" मैंने भीतर की ओर मुँह करके पत्नि से इल्तिजा 
					की।
 "अरे रहने दीजिए, गुप्ता जी। मेरे रिसोर्स परसन आने वाले हैं, 
					उन्हें चाय पिला देना आप।"
 "रिसोर्स परसन माने?"
 "माने मुझे काम सिखाने वाले! मेरे अपलाइनर!"
 "आप कोई काम करने लगी हैं क्या इन दिनों!"
 "आपको पता नहीं, मैंने पिछले महीने से एक बिज़नेस शुरू किया 
					है। आपको जानकारी होगी कि कुछ ऐसी मल्टी नेशनल कंपनियाँ हैं, 
					जो विज्ञापन में फ़िजूलखर्ची नहीं करती बल्कि अपना नेटवर्क 
					डेवलप करके और अपने एजेंट नियुक्त करके सीधे अपनी वस्तुएँ 
					ग्राहकों तक पहुँचाती हैं।"
 "हूँ!" मैंने गंभीर होते हुए उनकी बात में रुचि प्रदर्शित की।
 वे बोलीं, "मैंने अभी तक ज़्यादा काम नहीं किया, इसलिए मैं 
					ज़्यादा नहीं बता सकती, बस मेरे रिसोर्स परसन आ रहे हैं! वे 
					आपको विस्तार से सारी बातें समझाएँगे।"
 शुभा चाय लेकर आई तो उन्होंने 
					उठ कर उससे नमस्ते की, और बोलीं, "आप भी बैठिए भाभी जी, दरअसल 
					मैं जिस काम से आई हूँ, वो आप दोनों पति-पत्नी मिलके ज़्यादा 
					अच्छी तरह से कर सकेंगे।"अब मेरी भौहों में बल पड़ गए थे।
 झिझकती-सी शुभा बैठ तो गई, पर उसकी निगाहें ज़मीन से चिपक गई 
					थीं। यकायक मुझे लगा कि शुभा तो मेरी इज़्ज़्त ख़राब करे दे 
					रही हैं। इसे इतना संकोची नहीं होना चाहिए कि एक औरत के सामने 
					भी नई दुल्हन-सी शरमाए।
 हमारी चाय ख़त्म ही हुई थी कि उनके वे रिसोर्स परसन आ गए। 
					मैंने उनका स्वागत किया और अपना परिचय दिया, "मैं अमर गुप्ता, 
					बीमा ऐजेंट।"
 "मैं जंबो कंपनी का एक छोटा-सा वर्कर- सिल्वर एजेंट मनीराम!"
 हम लोग हाथ मिला कर बैठने लगे तो शुभा बर्तन समेट कर बाहर जाने 
					लगी, वर्मा भाभी ने उसे फिर रोका, "भाभी, आप रुकिए प्लीज़!"
 "मैं अभी आती हूँ।" कहती हुई शुभा पीछा छु़ड़ा कर भागी, और 
					भीतर पहुँच के बर्तन बजाकर मुझे अंदर आने का इशारा करने लगी।
 मैं भीतर पहुँचा, तो वह झल्ला रही थी, "कौन है ये सयानी मलंदे 
					बाई!"
 हँसते हुए मैं बोला, "तुम काहे जल रही हो? बेचारी वो तुम्हें 
					क्या सयानापन दिखा रही है? वो अपना कोई प्रॉडक्ट बेचने आई है।"
 "हमें नहीं ख़रीदना उसकी कोई चीज़। उससे कहो अपने खसम के साथ 
					उठे और कहीं दूसरी जगह जाकर नैन मटक्का करे! और जो मर्ज़ी हो 
					बेचें चाहे गिरवी रखें।"
 मैं शरारतन मुस्कराया, "अरे यार, हज़ार-दो हज़ार रुपए देकर 
					इतनी कमसिन और खूबसूरत औरत के साथ बैठने का मौका मिल जाए तो 
					महँगा नहीं है।"
 शुभा की आँखें अंगार हो गईं थीं, वह जलते स्वर में बोली, "कहे 
					दे रही हूँ, मैं अभी बैठक में जाकर उसे घर से बाहर निकाल 
					दूँगी।"
 मुझे लगा कि खेल बिगड़ रहा 
					है, सो समझौते के स्वर में उससे कहा, "यार तुम भी बिना 
					पढ़ी-लिखी औरतों की तरह बेकार की बातें करने लगती हो। वो क्या 
					हमारी जेब में हाथ डाल के रुपया निकाल लेगी। अब कोई अपना माल 
					दिखाए, तो मत लो, देखना तो चाहिए। अपने घर में हर सामान भरा 
					पड़ा है, हमको क्या ख़रीदना है? वो जो बताएगी, देख लेते हैं 
					बेचारी को निराश काहे करती हो?"मैं बैठक में जा कर बैठ गया और उनके रिसोर्स परसन से बात करने 
					के बहाने मुस्कराते हुए पूछने लगा, "आप कहाँ रहते हैं मनीराम 
					जी!"
 "मैं घाटीपुरा में रहता हूँ, उधर हाई स्कूल की पुरानी इमारत है 
					न, उसके पीछे हमारा पुराना मकान है।"
 "अच्छा उधर, जहाँ दरोगा संग्रामसिंह रहते हैं।"
 "आप उन्हें जानते हैं! वे मेरे चाचा हैं।"
 अब हमें बात करने को एक विषय 
					मिल गया था, सो हम पूरी दिलचस्पी के साथ दरोगा संग्रामसिंह और 
					अपने हाई स्कूल के ज़माने की बातें करने लगे थे। हालाँकि यह 
					विषय अन्नपूर्णा भाभी के लिए बोर कर सकता था, पर ऐसा नहीं दिख 
					रहा था, बल्कि वे बड़े प्रसन्न भाव से मनीराम जी को देखते हुए 
					हमारी बातें अपनी आँखें फैला कर इस तरह सुनने लगीं, मानों वे 
					इस विषय से बहुत गहराई से जुड़ी हों।इसके बाद वे घर के अंदर चली गईं और कुछ देर बाद वे लौटीं, तो 
					उनके साथ आँखों में उलझन का भाव लिए शुभा भी थी।
 मनीराम जी ने उठकर मेरी श्रीमती जी को अभिवादन किया और बोला, 
					"भाभी जी मैं जंबो कंपनी का एजेंट मनीराम हूँ। माफ़ी चाहूँगा 
					कि मैं आपके मूल्यवान समय में से दस मिनट ले रहा हूँ। आपको 
					अच्छा लगे तो आप मेरे बिजनेस-प्रपोजल पर विचार करें, और न जमें 
					तो कोई बात नहीं।"
 अब उसकी आवाज़ में एक मखमली अंदाज़ आ गया था, "सर कभी आपने 
					सोचा कि आप दूसरों से कुछ हटकर यानी कि अलग हैं। दरअसल आपको 
					अपनी योग्यता के अनुरूप जॉब नहीं मिला है। इसलिये आप अपने 
					वर्तमान व्यवसाय से पूरी तरह संतुष्ट नहीं होंगे मन में कहीं न 
					कहीं यह चाह रहती होगी यानी कि एक सपना होगा आपका भी, कि आपके 
					पास खूब सारा पैसा हो! ब़ड़ा-सा बंगला हो! श़ानदार कार हो! 
					भाभी के पास ढेर सारे जेवर हों! आपके बच्चे ऊँचे स्कूल में 
					पढ़ने जाएँ! आप लोग भी फ़ॉरेन टूर पर जाएँ! यानी कि आपके पास 
					वे सारी सुख-सुविधाएँ हों जो एक आदमी के जीवन को चैन से 
					गुज़ारने के लिए ज़रूरी हैं। लेकिन आप लोग मन मसोस के रह जाते 
					हैं, क्योंकि आपके सामने वैकल्पिक रूप में अपनी इतनी बड़ी 
					इच्छाएँ पूरी करने के लिए कोई साधन नहीं हैं। छोटी-मोटी एजेंसी 
					या नौकरी से यह काम कभी पूरे नहीं होंगे- हैं न! एम आय राईट?"
 मैंने सहमति में सिर हिलाया, 
					"आप बिलकुल सही कह रहे हैं।""अपने सपने पूरे करने के लिए आपको कम-से-कम पचास हज़ार रुपए 
					महीना आमदनी चाहिए और पचास हज़ार रुपए के मुनाफ़े के लिए आप 
					अगर कोई बिज़नेस करेंगे तो उसमें पच्चीस लाख रुपए की पूँजी 
					लगाना पड़ेगी ठीक है न! अब पच्चीस लाख रुपए की रिस्क, फिर 
					नौकर-चाकर, दुकान-गोदाम, कित्ते सारे झंझट हैं! लेकिन मैं आपको 
					ऐसा बिज़नेस बताने आया हूँ, जो आप बिना पूँजी और बिना रिस्क के 
					शुरू कर सकते हैं, और जितनी मेहनत करेंगे, उतना ज़्यादा 
					कमाएँगे।"
 "हमें बेचना क्या है?" मुझे उलझन हो रही थी।
 "आप तो सिर्फ़ नेटवर्किंग करेंगे जनाब, सीधे कुछ नहीं 
					बेचेंगे।" मनीराम ने उसी मुस्तैदी के साथ कहा, "अब वो ज़माना 
					नहीं रहा जब दुकान खोलके बैठना पड़ता था। आप जिन लोगों को 
					डिस्ट्रीब्यूटर बनाएँगे, वे जंबो कंपनी के प्रॉडक्ट बेचेंगे, 
					और घर बैठे मुनाफ़ा आपको मिलेगा।"
 "लेकिन इसमें मेरी क्या भूमिका होगी?" शुभा अब तक मनीराम का 
					जाल नहीं समझ पा रही थी।
 "आपकी वजह से ही तो गुप्ता जी के डाउनलाइनर्स की फेमिली को इस 
					बिज़नेस और इन प्रॉडक्टस में विश्वास होगा। हमारी सोसायटी में 
					ये माना जाता है कि आदमी तो ब्लफ दे सकता है, औरत नहीं! सो आप 
					इस मान्यता को फोर्स के साथ अमल में लाएँगी। इसका आपको 
					व्यक्तिगत लाभ भी होगा, क्योंकि इस काम के लिए आप दोनों के एक 
					साथ जाने-आने से एक बहुत बड़े सर्कल में आपकी सोशल-रिलेशनशिप 
					बनेगी। जंबो कंपनी की फेमिली बड़ी रिच है इसके लिए ऊंचे-ऊंचे 
					आइ ए़ ए़स अफ़सर और बड़े-बड़े बिजनिस मैन तक काम करते हैं। उन 
					लोगों के एक्सपीरियंस, बिज़नेस के टिप्स, आर्ट-ऑफ-लिविंग और 
					थिंकिग, आपकी लाइफ़-स्टाइल बदल देगी।"
 
 मनीराम द्वारा दिखाए गए सपने का जादू हम लोगों पर असर करने लगा 
					था, हम दोनों उसके चेहरे को मंत्रमुग्ध-से होकर ताकने लगे थे, 
					यह अनुभव करके वर्मा भाभी अब मनीराम की तरफ़ बड़े गर्व से 
					देखने लगी।
 हठात शुभा ने मनीराम से पूछा, "आपके इन प्रॉडक्ट की कीमत क्या 
					है?"
 "यह टुथ-पेस्ट एक सौ दो रुपए का है, और ये नाईटक्रीम एक सौ बीस 
					रुपए की है।"
 मैंने हस्तक्षेप किया, "बाय द वे, आपको नहीं लगता ये चीज़ें 
					कुछ ज़्यादा महँगी हैं? हमारी सोसायटी में कितने लोग ऐसे 
					होंगे, जो ये चीज़ें अफोर्ड कर सकेंगे!"
 "हाँ, थोड़ी-सी कॉस्टली! बट एक्चुअली, जनरल प्रॉडक्ट की तुलना 
					में हमारे प्रॉडक्ट तीन गुना ज़्यादा सेवा देते हैं। एक बार 
					उपयोग करने पर ख़रीदार संतुष्ट हो जाता है। फॉर एग्जांपल 
					देखें, आम टूथपेस्ट की एक इंच लंबी टयूब जितना काम करती है, इस 
					पेस्ट का चने बराबर हिस्सा ही उससे ज़्यादा काम कर देता है। 
					मतलब ये कि सही मायने में ये चीज़ें महँगी नहीं हैं।"
 "आप कह रहे हैं कि आपका बनाया हुआ चना बराबर पेस्ट वो काम कर 
					जाता है जो बाज़ार में मिलने वाले जनरल पेस्ट का एक इंच लंबा 
					टुकड़ा काम नहीं कर पाता। इसका मतलब ये भी तो हो सकता है कि इस 
					पेस्ट में ज़्यादा केमिकल मिला दिए जाते हों, जो शरीर के लिए 
					नुकसानदायक हों।" मेरा मन लगातार प्रश्न पैदा कर रहा था और 
					मेरी जुबान उन्हें मनीराम की ओर मिसाइलों की तरह दाग रही थी।
 "गुप्ता जी, हमारे यहाँ कंज्यूमर अवेयरनेस अब भी उतनी ज़्यादा 
					नहीं है, जितनी अमेरिका या दूसरे यूरोपीय देशों में है। यह माल 
					भी यूरोप में बनाया गया है, इसलिये मैं दावा करता हूँ कि उसमें 
					मानव शरीर के लिए नुकसान देने वाला कोई रसायन शामिल नहीं 
					होता।"
 "इसकी शुरुआत कैसे करना पड़ती है।" मुझे लगा कि प्रश्नों के 
					बजाय मनीराम के सामने सीधा समर्पण कर दिया जाए तो शायद इस बहस 
					का अंत हो जाएगा।
 "हमारा एक किट चार हजार छ: सौ स्र्पये का है, इसमें हमारा हर 
					प्रॉडक्ट छोटी मात्रा में शामिल है," मनीराम ने गंभीरता से 
					बताया।
 "तो ठीक है, आप एक पैकेट हमारे यहाँ रख जाइए।" शुभा बिना हिचक 
					बोली तो मैं चौंक गया। उसका इतनी जल्दी इस योजना से सहमत होना 
					मुझे विस्मित कर रहा था।
 "देखिए, पहले मैं आपको गाइड-लाइन समझा रहा हूँ! आपको सबसे पहले 
					घर में बैठ कर एक सूची बना लेना है, जिसमें आप उन लोगों के नाम 
					लिखेंगे जिनसे आपका धंधा हो सकता है। इस सूची में आप फ्रेंड के 
					नाम लिखेंगे।"
 "फ्रैंड यानि की दोस्त लोग!"
 मनीराम मुस्कराया, "फ्रैंड मायने दोस्त भी, पर हमारे इस फ्रैंड 
					में अंग्रेज़ी के फ्रेंड की स्पिलिंग का हर हिज्जा होता है। 
					फ्रेंड के पूरे हिज्जे हैं -
 'एफ' 'आर' 'आई' 'ई' 'एन' 'डी' इसके हर हिज्जे से आपके ईद-गिर्द 
					का हर वो आदमी आ जाता है, जो किसी न किसी कारण से आपसे जु़़डा 
					हुआ है। एफ मायने फ्रेंड एंड फेमिली -दोस्त और परिवार के लोग। 
					आर का अर्थ है रिलेटिव्स मायने रिश्तेदार। आय मायने इनर परसन, 
					आपके वे परिचित जो आपके अति निकट है। इ मायने इंपलायी यानी कि 
					दूसरे विभाग के कर्मचारी गण। एन मायने नेबर यानी आपके पड़ौसी, 
					और डी याने कि आपके डिपार्टमेंटल कुलीग्स। इस तरह आप यदि आपने 
					आसपास के सब लोगों की सूची बना लेंगे, तो आपके हाथ में उन 
					संभावित लोगों के नाम होंगे, जो कि आपके काम में मददगार हो 
					सकते हैं। इसमें से तमाम लोग ऐसे होंगे जो वितरक बन सकते हैं, 
					और तमाम लोग ऐसे हो सकते हैं, जो सिर्फ़ आपसे सामान लेकर यूज़ 
					करेंगे।
 "जाओ शुभा, चाय ले आओ, आगे की 
					चर्चा हम चाय के बाद करेंगे। मनीराम जी ने हमको मंत्र पढ़ कर 
					मोहित-सा कर दिया है, शायद चाय उस जादू को तोड़ेगी।" मैंने 
					शुभा से चिरौरी की, तो वह प्रसन्न मनसे उठी और भीतर चली गई। 
					अन्नपूर्णा भाभी भी झट से उठीं और वे भी उसके पीछे-पीछे भीतर 
					जा पहुँची।मनीराम ने बैग में से निकाल कर एक कैसेट निकाली और कहा, "इसे 
					सुनकर आपको ग्राहक की डील करने की टेकनिक ही नहीं, इस तरह का 
					काम करनेवाले उन तमाम लोगों के विचार सुनने को मिलेंगे, पहले 
					जिनमें से हर कोई या तो छोटा-मोटा दुकानदार था, या फिर 
					छोटी-मोटी नौकरी करके अपना गुज़ारा किया करता था, और वे सब इस 
					कंपनी को ज्वाइन करने के बाद आज हर महीने लाखों में खेल रहे 
					हैं।"
 फिर उसने वह सिस्टम समझाया 
					जिसे अपना के हम भी लाखों में खेल सकते थे। उसने बताया कि हमको 
					पहले ऐसे आठ लोगों को टारगेट बना के काम शुरू करना है, जो 
					एक्टिव हों और उनमें से हरेक आठ-आठ वितरक बना सकें।मनीराम की बातें बड़ी आकर्षक थीं, उनमें मोहक तथ्य थे, और 
					प्रामाणिक आँकड़े भी, पर वह ऐसा प्लान था जिसे हजारों-लाखों 
					में शायद कोई एक चल पाता होगा।
 उस दिन हम लोगों ने विचार करने का समय माँगा और किसी तरह उन 
					दोनों से मुक्ति पाई।
 आठ दिन बाद वर्मा भाभी एकाएक मेरे ऑफ़िस में आ धमकी। मैं उस 
					दिन अपने डेवलपमेंट ऑफ़िसर के पास बैठा था।
 उन्हें बैठा कर मैंने मुस्कराते हुए उनसे पूछा, "कहिए भाभी जी, 
					क्या हुकुम है?"
 "अपन लोग बाहर चल कर चाय पिएँ तो कैसा रहे!"
 मैं तपाक से तैयार हो गया। 
					गाड़ी स्टार्ट हुई तो अन्नपूर्णा भाभी फुर्ती से लपकीं और एक 
					अभ्यस्त की तरह इत्मीनान से मेरे पीछे बैठ गई। अब उनका चेहरा 
					मेरे कान के पास था, इतने पास कि मुझे उनके बालो में लगे 
					सुगंधित तेल और चेहरे पर लगाई गई क्रीम की खुशबू मेरे
					नासा पुटों में प्रवेश कर रही 
					थी। उनके दायें हाथ ने मेरी कमर के गिर्द घेरा कसा तो मुझे लगा 
					कि मेरी बाइक ज़मीन पर नहीं चल रही, आहिस्ता से ज़मीन से ऊपर 
					उठी है और हम आसमान में कुलाँचे भरने लगे हैं।हर्बल चाय पीते हुए भाभी ने बताया कि दिल्ली में जंबो कंपनी की 
					एक दिवसीय सेमिनार है, इसमें जिस वितरक को जाना हो वो सोलह सौ 
					रुपए का टिकट लेकर शामिल हो सकता है। पता लगा कि वे खुद के साथ 
					मेरा भी टिकट ले आई है। मैं ना-नुकर करने वाला था कि वे बोलीं, 
					"दरअसल मनीराम जी के घर में ग़मी हो गई है, सो वे नहीं जा पा 
					रहे, इस कारण आप से इसरार करने आई हूँ कि आप मेरे साथ चलें।"
 अब भला मैं मना भी कैसे कर सकता था!
 उन्हें विदा कर मैं कार्यालय 
					में लौटा, तो मेरे मस्तिष्क में पुराना मुहावरा गूँज रहा था - 
					अँधे के हाथ बटेर।मैंने अपनी जिंद़गी में अब तक बटेर नहीं देखी थी, आँख मूँद के 
					मैं बटेर की कल्पना करने लगा। जब भी मैं अपने स्मृति-फलक पर 
					बटेर की छबि सृजित करने की कोशिश करता, मुझे हर बार वर्मा भाभी 
					की सूरत याद आती तो मैं अनाम और मीठी-सी अनुभूतियों से भर 
					उठता।
 घर पहुँचा, तो शुभा चाय पकड़ाते हुए बड़े प्रसन्न मन से सुना 
					रही थी, "पता है, आज अपनी चिंकी की टीचर कुलकर्णी मैडम आई थीं। 
					पैरेंट-टीचर मीटिंग में तो वे प्राय: मिलती रहती हैं? पर इस 
					बार उनके आने की वजह वहीं जंबो कंपनी थी।"
 "जंबो कंपनी?" अब चौंकने की बारी मेरी थी।
 "हाँ!" मंद-मंद मुस्काती शुभा रहस्य खोलने के अंदाज़ में बोली, 
					"आजकल वे भी जंबो कंपनी का काम कर रही हैं। बोल रहीं थीं कि इस 
					काम से उन्हें हर महीने पाँच हज़ार से ज़्यादा अर्निंग हो जाती 
					है।"
 "हूँ!!" एक गंभीर हुँकारा छोड़ कर मैंने उसे प्रोत्साहित किया।
 "सुनो!! अपन लोग इस काम को काहे को लटका रहे हैं? चलो अपन भी 
					ये काम शुरू कर देंं।" उसके स्वर में बड़ा आत्मीय आग्रह झांक 
					रहा था।
 
 मैंने जंबो कंपनी के काम से ही वर्मा भाभी के साथ दिल्ली जाने 
					की सूचना दी तो यकायक शुभा ज़िद करने लगी, कि वह भी दिल्ली 
					जाना चाहती है। मेरी सारी उमंग समाप्त हो गई। लेकिन दिल्ली तो 
					जाना ही पड़ा। अलबत्ता, दिल्ली यात्रा में मुझे वो आनंद नहीं 
					आया, जैसी कि मैं कल्पना कर रहा था। हाँ, ग्राहक को डील करने 
					की कला, नए प्रॉडक्टस का परिचय और नई स्कीमों के बारे में बहुत 
					कुछ सीखने को मिला। कुछ बातें तो ऐसी भी सीखने को मिली जो बीमा 
					एजेंट होने के नाते मेरे जॉब के लिए लाभदायक हो सकती थी।
 एक दिन रात आठ बजे मैं अपने एक पॉलिसी होल्डर से प्रीमियम लेने 
					वर्मा जी के मोहल्ले की तरफ़ जा निकला था, और वहाँ से लौट ही 
					रहा था कि अन्नपूर्णा भाभी से मिलने का मन हो आया। वर्मा जी 
					दरवाज़े खोल कर बैठे थे और मेरी गाड़ी को उन्होंने मनीराम की 
					गाड़ी समझा।
 पहले तो मायूस हुए फिर मुझे 
					देख कर वे मुस्कराए। मैंने भाभी के बारे में पूछा तो उन्होंने 
					बताया कि वे सुबह से ही मनीराम के साथ गई है, और अब तक लौटी 
					नहीं है।मैंने दुखी से स्वर में उनसे कहा, "इस तरह बिज़नेस के लिए भाभी 
					के प्राय: घर से बाहर रहने पर आपको दिक्कत तो होती होगी।"
 "अब भई तरक्की करना है, तो हमको कुछ न कुछ तो त्याग करना ही 
					पड़ेगा न!"
 "फिर भी घर के काम?"
 "घर के काम तो कैसे ही हो जाते हैं अमर भैया! इत्ती-सी बात के 
					लिए उन्हें घर में बंद रखना उचित नहीं। मैं बेसिकली महिलाओं की 
					स्वतंत्रता का समर्थक हूँ। मेरे मतानुसार औरतों को रसोईघर से 
					बाहर निकल कर काम-धाम सीखना चाहिए। इससे उनका इंडीविजुअल 
					डेवलपमैंट होता है, अभिव्यक्ति का मौका मिलता है, और घर के 
					साथ-साथ स्वयं वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाती हैं।"
 मन ही मन मैंने कहा, "पिछले साल, जब भाभी को बीमा-एजेंट बनाने 
					का प्रस्ताव रखा था तो आप कहते थे कि औरतों की सही जगह घर में 
					है, उन्हें घर में ही रहना चाहिए! और अगर जॉब भी करना है तो 
					किसी कॉन्वेंट में टीचरशिप वगैरह मिल जाए तो वह कर लेना ठीक 
					रहता है।"
 पर प्रत्यक्षत: मैं यही बोला, "हाँ, अभिव्यक्ति का मौका और 
					आर्थिक स्वतंत्रता तो मिलती है!"
 "कहिए आप कैसे पधारे!" वर्मा जी ने सहसा मुझे सकते की स्थिति 
					में डाल दिया था।
 "मैं दरअसल," कहते हुए कुछ अटकने लगा तो यकायक याद आया और 
					मैंने बेधड़क उनसे कह डाला, "उस दिन भाभी ने कहा था कि जंबो 
					कंपनी का रीजनल-स्टोर आपके घर में हैं, सो मैं टुथ-पेस्ट और 
					नाईटक्रीम लेने आया था!"
 मेरा इतना कहना था कि अब तक 
					उदास और अलसाये-से बैठे वर्मा जी में यकायक फुर्ती आ गई, वे 
					उठे और बैठक में अस्त-व्यस्त रखे कार्टूनों में मेरी माँगी गई 
					चीज़ें तलाश करने लगे।मैंने उड़ती नज़र से देखा कि वर्मा जी के घर में बैठक ही नहीं, 
					स्टोर, किचेन और यहाँ तक कि बेडरूम में भी यानी कि हर जगह, 
					अन्नपूर्णा भाभी की कंपनी की चीज़ें बिखरी पड़ी थीं। लग रहा था 
					कि इस नई तरक्की यानी भूमंडलीकरण के इस नए दौर में बहुत कुछ 
					बदला है। जिस चीज़ के लिए जो जगह निश्चित की गई है, अब वो केवल 
					वहीं नहीं मिलती, सब जगह मिल जाती है! चीज़ें तेज़ी से अपनी 
					जगह बदल रही हैं! बाज़ार केवल बाज़ार तक सीमित नहीं रह गया! अब 
					वर्मा जी जैसे कई घरों में बाज़ार स्वयं घुस आया है- अपने पूरे 
					संस्कार, आचरण, आदतों और बुराइयों के साथ!
 घर लौटते वक्त मैं मन ही मन तरक्की के लाभ-हानि का बही खाता 
					तैयार कर रहा था, जिसमें मैं और मेरी पत्नी शुभा भी शायद अपनी 
					प्रविष्टि कराने को आतुर थे।
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