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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
राजनारायण बोहरे की कहानी- 'बाज़ार बाज़ार'


मैं तो पहचान ही नहीं पाया उन्हें। कहाँ वो अन्नपूर्णा भाभी का चिर-परिचित नितांत घरेलू व्यक्तित्व, और कहाँ आज उनका ये अति आधुनिक रूप! चोटी से पाँव तक वे बदली-बदली-सी लग रही थीं।

वे कस्बे के नए खुले इस फास्टफूड कॉर्नर से जिस व्यक्ति के साथ निकल रही थीं, वह सोसाइटी का कोई भला आदमी नहीं कहा जा सकता था। मुझे तो ऐसा अनुभव हुआ कि सिर्फ़ संग-साथ वाली बात नहीं, यहाँ कुछ दूसरा ही मामला है। मुझे लगा कि वे बात-बेबात उस भले आदमी से सट-सट जा रहीं थीं, जैसे उसे पूरी तरह रिझाना चाहती हों!

आज उन्होंने बनने सँवरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी थी। हल्की शिफ़ॉन की मेंहदी कलर की साड़ी से मैच करता ब्लाउज़, इसी रंग की बिंदी और कलाई भर चूड़ियाँ, पाँव में मेंहदी कलर की ही चौड़े पट्टे की डिज़ाइनदार चप्पलें और ताज्जुब तो ये कि हाथ के पर्स का भी वही रंग। मैंने उन्हें ग़ौर से देखा तो ठगा-सा ख़डा रह गया।

मैं ऐसी जगह खड़ा था, जहाँ से उन्हें निकलना था। मुझे यहाँ पाकर वे कोई संकोच अनुभव न करें, इसलिए मैं वहाँ से हटा और पीसीओ बूथ की ओट में आ गया।

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