तब से तो और भी बेचैन रहने लगी थीं वे, जब दिल्ली में पढ़ रही उनकी भतीजी गरिमा आई
थी उनसे मिलने। आते ही उसने सबसे पहले यही 'नोट' किया था, "ओ गॉड, बुआ! यह क्या कर
रही हैं आप? चाइल्ड लेबर? इस बच्ची के पढ़ने के दिन हैं और आपने यहाँ इसे काम पर
लगा रखा है?"
उन्होंने अपनी दलीलें दी थीं, "यह अपनी काकी के साथ दिल्ली में कई-कई घरों में काम
करने जाती थीं, वहाँ कौन-सा पढ़ने जा रही थी? यहाँ तो एक ही घर का काम करना पड़ता
है। फिर, हम इसे इतनी अच्छी तरह रख भी तो रहे हैं।"
"सवाल यह नहीं है, बुआ। सवाल है बच्चों के अधिकारों का। बच्चों के शिक्षा पाने के
अधिकार का। आप इसकी काकी को काम पर रख लेतीं और इसे पढ़ने भेज देतीं। आजकल तो 'वेल
टु डू' लोग अपने नौकरों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई स्पांसर करते हैं।"
गरिमा की इन बातों का वे क्या जवाब देतीं?
किस आदर्शवाद, किस यूटोपिया की बातें कर रही है यह लड़की! घर-गृहस्थी से पाला
पड़ेगा, तब पूछेंगी वे उससे सिद्धांत और व्यवहार का फ़र्क! वे कोई अनपढ़-गँवार नहीं
हैं कि उन्हें यह सब पता नहीं, जो गरिमा कह रही है और इतने बडे ओहदे पर कार्यरत
उनकी बहू भी क्या गरिमा से कम पढ़ी-लिखी है! लेकिन मीनू का ही सोचने लगतीं वे
दोनों, तो उनका अपना क्या होता! कौन निबटाता घर भर का इतना काम, इतने सहज तरीके से!
और फिर उन्होंने क्या ठेका ले रखा है दुनिया भर को साक्षर बनाने का! पढ़ाने का!
अपने ही घर के प्राणियों की सही देखभाल हो जाए, यही बहुत है। आज के युग में अपने ही
एक-दो बच्चों को पालने-पढ़ाने में लोगों की चूलें हिल जाती हैं।
जभी तो बरसी थी बहू उस दिन पिंकी, मीनू पर और साथ ही उन पर भी, जब साल के आखिर में
बची हुई 'कैजुअल लीव' लेकर कुछ दिन घर बैठी थी। दोपहर को पिंकी के कमरे में अचानक
ही गई, तो देखती क्या है कि पिंकी अपना बस्ता बिखेरे एक-एक कॉपी-किताब मीनू को दिखा
रही थी, "देखो, यह इंग्लिश की वर्कबुक है, यह कर्सिव राइटिंग की कॉपी है, यह मैथ्स
की बुक है और देखो, मेरी ड्राइंग बुक, यह मेरी स्क्रैप बुक, बड़ा मज़ा आता है स्कूल
में औ़र टिफिन टाइम में झूलों पर तो बड़ा ही मज़ा।"
"अच्छा! बड़ा मज़ा आता है स्कूल में? और घर पर पढ़ाई में ज़रा भी मज़ा नहीं आता?
सारा दिन खेलती रहती है इस मीनू की बच्ची के साथ?" बहू ने पिंकी के कान उमेठते हुए
उसे अचानक ही चौंका दिया था।
मीनू काँपकर जहाँ की तहाँ खड़ी रह गई थी। पिंकी रुँआसी-सी हो अपनी
कॉपियाँ-किताबें स्कूल बैग में भरने लगी थी।
"तू क्या कर रही है खड़ी-खड़ी?" बहू ने फटकार लगाई, "जा, अपना काम कर जाकर! बिगाड़
रही है लड़की को। ख़बरदार जो फिर पिंकी के कमरे में आकर डिस्टर्ब किया इसको!" मीनू
कमरे से निकल सरपट भागी थी।
वे जानती थीं, मीनू देर तक अपने कमरे में पड़ी सिसकती रही थी।
कई दिनों तक यों ही उदास-उदास-सा चेहरा लिए काम करती रही थी वह। लेकिन बहू के
दफ़्तर जाते ही पिंकी और मीनू दोनों ही भूल गई थीं बहू की घुड़क। पिंकी के कमरे से
आती दोनों की हँसने-खिलखिलाने की आवाज़ें सुन सकती थीं वे। न जाने क्या-क्या बातें
करती होंगी दोनों! आख़िर बच्चियाँ ही तो थीं! पिंकी शायद उसे बर्थडे में मिले गिफ्ट
दिखा रही होगी और बता रही होगी कि किसने क्या-क्या दिया या फिर जन्म से लेकर अब तक
के अपने फ़ोटोग्राफ्स के अलबम दिखा रही होगी उसको। बहू चाहे जो कहे, वे नहीं रोक
पाती थीं बच्चों को खेलने-बतियाने से। आख़िर एक ही घर की छत के नीचे कैसे दूर रखा
जा सकता था दो बच्चों को! बहरहाल
उस दिन को भूल नहीं सकती थीं क्या वे! महीना पूरा होते ही मीनू की काकी उसकी पगार
लेने आ पहुँची थी। वह तो पैसे लेने ही आई थी, लेकिन मीनू ने उसे देखकर जो रोना शुरू
किया कि वे हैरान ही हो गईं। काकी ने तो यही समझा होगा कि पता नहीं कितनी बुरी
तरह रखा जा रहा है उसे यहाँ। तब उन्होंने ही उसकी काकी से कहा था कि एकाध दिन के
लिए ले जाए उसे अपने साथ। घर हो आएगी, चचेरे भाई-बहनों से मिल आएगी, तो मन हल्का हो
जाएगा इसका।
मीनू की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी। दौड़ते-भागते हुए अपने जाने की तैयारी में जुट
गई वह। साथ ले जाने के लिए प्लास्टिक के बैग में अपने कपड़े भी भर लिए। अब उसे
इंतज़ार था तो सिर्फ़ पिंकी के स्कूल से लौटने का। उसकी काकी को वापस लौटने की
जल्दी थी, पर मीनू पिंकी से मिलकर ही जाना चाहती थी।
पिंकी आई, तो उसके साथ मीनू सीधे उसके कमरे में ही दौड़ी। दोनों में पता नहीं क्या
बातें हुईं। पता नहीं क्या कहा था मीनू ने उसे अपने जाने को लेकर कि उसके जाने के
बाद पिंकी ने चुप्पी ही साध ली। कितना पूछा था उन्होंने कि आख़िर क्या कहकर गई थी
मीनू उससे, जो घर भर से कुट्टी ही कर ली थी। पर पिंकी को नहीं बताना था, सो नहीं
बताया।
मीनू को गए दो दिन बीते, फिर तीसरा दिन और फिर पूरा हफ्ता ही। आख़िर कितने दिनों तक
बैठी रहेगी यों अपनी काकी के घर! उन्हें तो फिक्र लगने लगी थी। कहीं उसकी काकी ने
ज़्यादा पैसों पर उसे किसी और के घर तो नहीं रखवा दिया? इन लोगों का कोई भरोसा
नहीं। फिर यह ख़याल भी आया मन में कि कहीं बीमार-वीमार तो नहीं पड़ गई! पता तो करना
चाहिए।
बहू से कहकर उसकी रिश्तेदार के यहाँ फ़ोन करवाया कि पुछवाएँ मीनू की काकी से कि अभी
तक वह उसे वापस छोड़ने क्यों नहीं आई। बहू ने फ़ोन उन्हें ही पकड़ा दिया। और जो
सुना उन्होंने उस तरफ़ से, वे स्तब्ध ही रह गईं। बहू की रिश्तेदार बता रही थी,
"मीनू की काकी तो आप लोगों से बहुत नाराज़ है। कह रही थी कि एकदम बिगाड़कर रख दिया
था आप लोगों ने लड़की को। छोटे मुँह बड़ी बातें करने लगी थीं कि काकी, हाथ धोकर
खाना बनाओ, सब्ज़ियों को धोकर काटो, गंदे कपड़े दो दिन तक नहीं पहनेगी वह,
वगैरह-वगैरह। और सबसे बड़ी ज़िद तो यह करने लगी थी कि वह स्कूल में पढ़ने जाएगी और
आपके यहाँ काम पर वापस नहीं लौटेगी। आपकी पोती की तरह वह भी स्कूल में पढ़ेगी। अब
काकी बेचारी क्या करती उसका! उसने उसे यहाँ काम कराने के लिए रखा था, न कि पढ़ाने
के लिए। सो भेज दिया वापस वहीं गाँव में, उसके माँ-बाप के पास। वही पढ़ाते रहें उसे
वहाँ।"
"हे भगवान!" उन्होंने अपना माथा पीटा, "अब फिर से नए नौकर की खोज!"
तभी न जाने क्या कौंधा उनके मन में, "अरे, मैंने तो जाते वक्त उसका बैग भी नहीं
देखा। उसने वापस न लौटने की सोची थी, तो कहीं घर की कोई कीमती चीज़ न ले-लवा गई हो
अपने साथ!"
ओह, उनका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। घर का सारा कीमती सामान तो खुला ही पड़ा रहता
था उसके सामने। घड़ियाँ, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ - सभी तो दराज़ों में डाले रखती थी
पिंकी की मम्मी। और पिंकी के कमरे में तो घुसी ही रहती थी मीनू।
बहू के कमरे की चीज़ें तो बहू ही जाने। वे पिंकी के कमरे की तरफ़ दौड़ीं। एक-एक
दराज़ खोल उलट-पुलटकर जाँचने लगीं। कपड़े, खिलौने, पेन, पेंसिलें - सभी गिनने की
कोशिश करती रहीं। पिंकी की किताबों के शेल्फ! उस पर सजी नाचने वाली गुड़िया,
क्रिस्टल का कीमती सजावटी सामान, चिड़िया वाली घड़ी - सभी तो सलामत थे अपनी जगह।
"अरे!" वे ठिठकीं, "पिंकी, तेरी फ़ोटो वाला फ्रेम कहाँ है? यहीं तो पड़ा रहता था!"
पिंकी चुप। जैसे सुना ही न हो।
उन्होंने इधर-उधर ढूँढ़ा। शायद झाड़-पोंछ करते मीनू ने कहीं और रख दिया हो। या फिर
टूट ही न गया हो गिरकर उससे। और डर से उन्हें बताया न हो।
उन्होंने पिंकी को हल्के से झकझोरा, "पिंकी, बेटा! बता दे ना! वह फ़ोटो कहाँ है, जो
यहाँ शेल्फ पर पड़ी रहती थी?"
उन्होंने देखा, पिंकी की आँखों में एक संशय-सा। बताए या नहीं! कहीं डाँट ही न पड़े!
इस बार उन्होंने ज़रा प्यार से, लाड़ से पूछा, "क्या हुआ तेरी उस फ़ोटो के फ्रेम
का? क्या मीनू से गिरकर टूट गया था?"
"नहीं, दादी जी।" पिंकी उनसे लिपटते हुए बोली, "वह तो मैंने उस दिन मीनू को
गिफ़्ट
कर दिया था, जिस दिन वह जा रही थी।"
हैरान-सी वे उसे डपटने लगीं, "क्यों भला? किसलिए?"
पिंकी रूआँसी हो आई, "तो क्या हुआ, दादी जी! देखो ना।" उसने झटके से अपनी स्टडी
टेबल का दराज़ खोला, "देखो ना, दादी जी, उसने भी तो बदले में मुझे इतना अच्छा
गिफ़्ट
दिया!"
उनकी विस्मित, विस्फारित आँखों के सामने पिंकी की खुली हथेली पर वही दो 'घटिया-से,
घिसे-पिटे, प्लास्टिक के गुलाबी 'हेयर-क्लिप' चमक रहे थे जिन्हें पहले ही दिन
उन्होंने मीनू के बालों से उतरवाया था।
|