वे भूली कहाँ थीं कुछ भी!
रह-रहकर वही दृश्य तो उनके मन को कुरेदते रहते हैं और वे अपने-आप से ही आँखें
चुराने की कोशिश में लग जाती हैं।
पहला ही दिन था उसका उनके यहाँ।
उन्होंने बच्ची को चायपत्ती के डिब्बे के साथ मुफ़्त मिली साबुन की टिकिया थमाते हुए
कहा था, "बहुत महँगा साबुन है। अच्छी तरह मल-मलकर नहाना, समझी! और सुन, जो नया
फ्रॉक तुझे पिंकी की मम्मी ने दिया है, वही पहनना। पुराना वाला अपनी काकी को दे
देना, जब वह तुझसे मिलने आए। वह अपनी लड़की को पहना लेगी। तेरे लिए तो पिंकी की
मम्मी ने और भी बहुत-से कपड़े ले रखे हैं।"
नसीहतें देतीं वे मुड़ी ही थीं कि मन कहीं कौंधा- 'लड़की ने ये क्या घिसे हुए
सस्ते-से प्लास्टिक के गुलाबी क्लिप बालों में लगा रखे हैं!
कितने भद्दे लग रहे हैं, घटिया से!'
"सुन!"
बच्ची ठिठकी। एक बाँह पर नए कपड़ों का भार लादे और दूसरे हाथ में साबुन की नई
टिकिया थामे उसने सहमकर उनकी ओर दृष्टि उठाई।
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