जैसे घंटियाँ-सी बज उठी
हों। उसके इस छोटे-से प्रश्न में कशिश थी, संगीत था, आदाब
था। वह अंदर आने के लिए पूछ रहा था। आज्ञा ले रहा था। लेकिन
उसने आज्ञा की प्रतीक्षा नहीं की। शर्माता-लजाता, छोटे-छोटे
कदम रखता कमरे में चला आया था। उसकी आँखों में कुतूहल था।
अजनबीयत का अहसास और थोड़ा-सा भय। वह आहिस्ता से चलता हुआ
आया। मुझे देखता-सा। दीवारों को देखता-सा। शेल्फ़, घड़ी,
दरवाज़े, किताबें सबको देखता-सा। शायद इनमें किसी को भी न
देखता-सा। सिर्फ़ अपनी दुनिया - अपने बचपन की सतरंगी दुनिया
के साथ चलता-सा।
वह मेरे सामने वाले सोफ़े
पर थोड़ा टिक-सा गया। उसे बैठना नहीं कहेंगे। शायद पराए घरों
में अजनबी बच्चे इसी तरह बैठते हों।
वह मुझे देखने लगा- शर्माते हुए। मुस्कराते हुए। मैंने कहा,
"बेटे आराम से बैठ जाओ।"
"बैठा हुआ तो हूँ।" उसने मेरी ग़लती में सुधार किया। उसके
वाक्य में बालसुलभ कॉन्फिडेंस था। लेकिन अपनी बात कहकर वह
तुरंत उठ खड़ा हुआ। बोला, "देखो, अंकल, अब खड़ा हूँ। और अब.
. ." पुन: बैठते हुए बोला, "अब बैठ गया। बैठ गया न?" उसने
मेरा समर्थन चाहा।
मैंने 'हाँ' में सिर
हिलाया। कुछ क्षण यों ही गुज़र गए। इस बीच वह कई बार
मुस्कराया। शायद उसका मुस्कराना कोई संवाद हो। या फिर
मुस्करा इसलिए रहा हो कि चुप रहने से मुस्कराने की स्थिति
बेहतर हो। या फिर इसलिए कि मुस्कराते हुए वह दोस्ती का माहौल
पैदा करना चाहता हो।
मेरी चुप से उसकी मुस्कान टकराती रही। मेरी चुप हारती रही।
एक बच्चे की मुस्कान की ताक़त का अहसास मुझे हो रहा था।
मैंने मुस्कराने की कोशिश की।
मैं बहुत कम हँसता हूँ। मुस्कराता भी कम ही हूँ। हमेशा
संजीदा। सोच में मुब्तिला। परीशाँ-परीशाँ। ग़मगीन। मेरे
दोस्त कहते हैं कि मैं अपनी ज़िंदगी की मुस्कान गिरवी रख
चुका हूँ। पता नहीं यह जुमला है या मेरी ज़िंदगी का सच। पर
मेरी ज़िंदगी का सच कुछ और है। मुझे लगता है, चुटकुलों की
सारी किताबें पुरानी पड़ चुकी हैं। यह वह नामाकूल दौर है,
जिसमें लतीफ़ेबाज़ जब मिलते हैं, तो बा-चश्मेनम मिलते हैं।
मुझे लगा, बच्चे से कुछ
बोलना चाहिए। क्या बोलूँ? वही पुराना ढर्रा। बच्चे से बातचीत
करनी हो, तो सबसे पहले उससे उसका नाम पूछो। फिर पापा का नाम।
फिर पोयम, स्कूल, फ्रेंडस।
मैंने पूछा, "बेटे, आपका नाम क्या है?"
"गुद बॉय!" उसने कहा।
"गुड बॉय?"
"हाँ, गुद बॉय!"
"गुड बॉय कोई नाम होता है?" मैंने सवाल किया।
"तो क्या बैद बॉय नाम होता है?" उसने कहा। उसका तर्क़ वाजिब
था। मैं हँस पड़ा। मुझे हँसते देख वह भी हँसने लगा। वह चाहता
था कि मैं हँसू। न हँसता हुआ मैं शायद उसे डरावना लगता था।
हँसता हुआ मैं शायद उसे उस तरह का लग रहा था, जिस तरह का वह
चाहता था।
उसके छोटे-मोटे सफ़ेद दाँत
चमक रहे थे। गालों में गड्ढ़े उभर आए थे। आँखें थोड़ी मुँद
गई थीं। हँसते हुए वह बहुत भोला, बहुत सुंदर लग रहा था -
किसी झरने जैसा।
वह, पता नहीं, तीन-साढ़े तीन या चार साल का होगा।
गोरा-चिट्टा, करीने से सेट किए बाल, अच्छी ड्रेस, शूज और
निक्कर के साथ लटकती हैंकी।
वह शायद पड़ोस के किसी घर
से चला आया होगा। यहाँ मेरे पास। कमरे में। अजनबीयत को
तोड़ते हुए। बच्चों में यही तो खूबी होती है - वे पूरे संसार
को अपना समझते हैं।
लेकिन बड़े लोग दायरे और परिधियाँ ईजाद कर लेते हैं।
"तुम्हारा यह नाम गुड बॉय किसने रखा?"
मैंने कुछ देर चुप रहने के बाद संवाद जारी रखने की कोशिश की।
"मम्मी ने।" उसने कहा।
"और पापा?"
"वो तो हैं नई।"
"कहाँ गए?" मैंने पूछा। लेकिन पूछकर अफ़सोस हुआ। बच्चे से यह
सवाल नहीं पूछना चाहिए था।
"पता नईं।" फिर रुककर उसने समझाने वाले लहजे में कहा, "मम्मी
कहती हैं कि वो भगवान जी के पास चले गए।"
बच्चा समझदार था। जो नहीं
था, वह उसकी बात नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने बात बदलते
हुए निक्कर के साथ बँधा हैंकी दिखाते हुए कहा, "अंकल, मेरी
हैंकी! मम्मी लाई थीं।"
मैंने उसके हैंकी को देखा। उसने रहस्य से परदा हटाते हुए
कहा, "मम्मी जेब में रूमाल रखती हैं, तो मैं गुम कर देता
हूँ। इसलिए मम्मी यहाँ पे बाँध देती हैं। नाक साफ़ करने के
लिए है मेरी हैंकी।"
"वेरी गुड!"
"वेरी गुद क्यों, अंकल? नोजी आ जाए, तो कोई वेरी गुद होता
है?" उसने तर्क पेश किया। मैं निरुत्तर हो गया। फिर उसने
अपनी छोटी-सी नाक को खोलते-सिकोड़ते हुए, अपनी उँगली से नाक
की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, "अंकल, नाक में नोज़ी नई है न?"
"नहीं, बिलकुल साफ़ है।" मैंने कहा।
"वेरी गुद!" वह बोला। थोड़ा हँसा। उसके 'वेरी गुद' कहने पर
मुझे भी हँसी आ गई। वह शायद मुझे समझाना चाहता था कि 'वेरी
गुड' कहाँ बोलना चाहिए।
नाक को सिकोड़ना, ठुड्डी को
ऊपर उठाना, शूं-शूं, फूं-फूं की आवाज़ें निकालना - मुझे लगा,
वह कोई खेल खेल रहा है। मैंने उसकी इन हरकतों को देखते हुए
कहा, "नॉटी बॉय!"
वह मेरी तरफ़ देखने लगा। उसने शूं-शूं, फूं-फूं बंद कर दी।
थोड़ा तनकर खड़ा हो गया। बनावटी गुस्सा उसके चेहरे पर उतर
आया। मैं थोड़ा डर-सा गया। अचानक क्या हो गया है इस बच्चे
को?
"अंकल, मैंने आपका गिलास
नईं तोड़ा न?" उसने पूछा। उसकी आवाज़ में बालसुलभ गुस्सा था।
यह गिलास तोड़ने की बात कहाँ से आ गई? मैं सोचने लगा। इसके
बावजूद मैंने उसकी बात का जवाब दिया, "नहीं।"
"कप?" उसने पूछा।
"नहीं, वो भी नहीं तोड़ा।" मैंने कहा।
"प्लेट?"
"वो भी नहीं।"
"काग़ज़ फाड़े?"
"नहीं।"
"दीवार पर कुच्च लिक्का?"
"नहीं।"
"अंकल, फिर आपने मुझे नॉटी बॉय क्यों कहा? जब मैंने कोई
शरारत नईं की, फिर तो मैं गुद बॉय हुआ।"
उसके तर्क, उसके सवालों ने
मुझे मुग्ध-सा कर दिया। मैं ठहाके लगाकर हँसा। वह भी हँसा।
हम दोनों हँसे। लेकिन उसका हँसना खूबसूरत था - झरने की कलकल
जैसा। जुगनु की चमक जैसा। किसी हरियाली जैसा। वह हँस रहा था।
सोफे से उठकर, तालियाँ बजाकर। उसके साथ मैं भी हँस रहा था।
लेकिन मेरी हँसी उस पुराने पोस्टर जैसी थी, जो ज़िंदगी की
दीवार पर चस्पां होने के बावजूद अपनी चमक और खुशनुमा रंगत खो
चुका हो।
वक्त धीरे-धीरे तमाम अच्छी
चीज़ें छीन लेता है। यहाँ तक कि हँसने का सुरीलापन भी।
बच्चा हँस रहा था। बहुत देर तक हँसते रहने से उसकी आँखों से
पानी आ गया था। पानी आँखों में चमकने लगा था। लेकिन वह
बेपरवाह था। तालियाँ बजा रहा था और हँस रहा था। वह शायद
हँसने की मूल वजह भूल गया था। बस, हँस रहा था। उसके साथ मैं
भी हँस रहा था। उसकी हँसी निरंतर और निश्छल हँसी थी। मेरी
हँसी में वक्त की ख़राशें थीं।
मुझे लगा, मेरे चुपज़दा
कमरे में कोई चला आया है - आवाज़ों का छोटा-सा टापू। या
रोशनी का छोटा-सा सूरज। या मासूमियत का आकाश, जिसमें उड़ान
के हज़ारों परिंदे हैं। या वह समंदर, जो अपनी छाती पर
मल्लाहों के गीतों की कश्तियाँ लिए फिरता है।
फिर वह उठा। उसने कमरे का
चक्कर लगाया। मुझे लगा, वह दूसरे कमरे में जाना चाहता है।
मेरा सोचना ठीक था। वह बिलकुल आहिस्ता-आहिस्ता, हवा की तरह
दबे पाँव, थोड़ा सकुचाते हुए, एक कमरे से दूसरे कमरे में
गया। खड़ा रहा। देखता-सा। पता नहीं, क्या ढूँढ़ रहा था। फिर
वह आँगन में चला गया। फिर गमलों के पास।
फिर वह लौट आया। वैसे ही थोड़ा-सा टिककर बैठ गया। लेकिन इस
बार पहले वाले सोफ़े पर नहीं, दूसरे सोफ़े पर, जो मेरी बगल
में था।
"अंकल, भौत सारे फ्लावर हैं न बाअर?"
"आपको चाहिए?" मैंने कहा।
"नईं अंकल, आपको पता नईं, फूल तोड़ने से पाप चढ़ता है?"
"अरे, ये बात तो मुझे पता नहीं थी।"
"अंकल, आप इतने बड्ड़े हो, आपको ये बात भी पत्ता नईं? मेरी
मम्मी को सब पता है, जी!"
वह जब अपनी मम्मी की बात
करता, उसके चेहरे पर गर्व-सा दिपदिपाने लगता।
"वो कहती हैं. . ." उसने कुछ कहना चाहा। लेकिन उससे पहले एक
ज़रूरी सूचना उसने सुनाई, "मेरी मम्मी भौत अच्छी है। भौत
अच्छी हैं, जी!" फिर अपनी पुरानी बात पर लौटते हुए बोला, "वो
कहती हैं, फूल तोड़ो तो फूलों को उई हो जाती है।"
मैं उसकी तरफ़ देख रहा था।
"फूलों को उई?" उसने जैसे बड़े ज्ञान की बात बताई हो। मैं
उसके 'ज्ञान' से प्रभावित हो रहा था।
फिर अचानक उसे कुछ याद आया। बोला, "कल मेरे दाँत में उई हो
गई थी।" उसने मुँह खोलकर किसी दाँत पर अपनी सुकोमल उँगली
रखते हुए कहा। उसकी उँगली कई सारे दाँतों पर घूमती चली गई।
मैंने कहा, "चॉकलेट खाई होगी?"
"थोड़ी-सी खाई थी।" उसने मुँह बिचकाते हुए दो उँगलियों को
मिलाकर बताने की कोशिश की कि कितनी चॉकलेट खाई।
"कौन-सी खाई थी?" मैंने पूछा।
वह सोचने लगा, जैसे अपनी स्मृति पर ज़ोर दे रहा हो, "मैंने
कौन-सी खाई थी? मैंने कौन-सी चॉकलेट खाई थी? अमूल नो! कैडबरी
नो! फाइव स्टार नो! मैंने खाई थी पर्क नो। किटकैट नो! नेछले
की. . .।"
"अरे, तुम्हें तो बहुत सारी चॉकलेटों के नाम पता हैं?" मैंने
उसकी प्रशंसा की। वह शरमा-सा गया। लेकिन मेरी प्रशंसा उसे
अच्छी लगी।
"मेरे को भौत सारी आइसक्रीमों के नाम पता है, मैंने सब खाई
है।" उसने कहा। वह बताना चाहता था कि उसे सिर्फ़ चॉकलेटों के
ही नहीं, और भी बहुत-सी चीज़ों के बारे में पता है।
"कौन-कौन-सी आइस्क्रीमें खाई हैं तुमने?" |