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"कैसा बेटा है?" उनकी बेआवाज़ रुलाई पर मैं बुदबुदाया।
"देखोगे कैसा बेटा है?" उन्होंने कहा और पीठ की तरफ़ से अपना कुर्ता ऊपर उठा दिया।

माँस छोड़ चुकी पीठ की झूली हुई खाल पर बकसुए के ताज़े नीले और लाल निशान छपे हुए थे जिन्हें देखकर मैं सिहर उठा। वह यह भी भूल गई कि वह बैंक में थीं और किसी अनजान आदमी के सामने अपनी पीठ उघारी करके खड़ी थीं।
मैंने उनके हाथ से कुर्ता छुड़ा कर नीचे खींचा और उनके हाथ को अपने हाथ में लेकर कुछ देर चुपचाप खड़ा हो गया। उन्होंने नाक सुड़की और हाथ छुड़ा कर दुपट्टा आँखों पर रख लिया।
"क्या कहूँ बहिन जी।" मैंने अपने आपको असहाय पाया।
"ज़रा मेरे को पता कर दो कि कितना पैसा है खाते में?" उन्होंने मेरे असहाय होने को एक किनारे करते हुए कहा।
"दो लाख आठ हज़ार रुपए हैं।" तब तक पास बुक तैयार हो चुकी थी जिसे देखकर मैंने उन्हें बताया।
"भैया, अब जल्दी से मेरी चेकबुक भी दिलवा दो, मैं चलूँ।" उन्होंने बेचैन होकर मुझे फिर याद दिलाया।
"अच्छा ज़रा यह तो बताइए, चेकबुक का आप करेंगी क्या?" मैंने उत्सुकता का नाट्य-सा करते हुए पूछा। शायद उनका ध्यान पीठ की चोटों की तरफ़ से हटाने के लिए।
"एक ज़मीन मिल रही है दो लाख में उसे ख़रीदना चाहती हूँ।" उन्होंने बताया।
"तो?" ज़मीन ख़रीदने और चेकबुक का संबंध न समझ पाने के कारण मैंने पूछा।
"तो क्या?" उनकी सारी चोटें पटा गई थीं और वह मुझसे बतियाने लगी थीं।
"तो यह कि ज़मीन ख़रीदने से चेकबुक का क्या मतलब है?" मैंने उनसे पूछा।
"अरे बुद्धूराम, ज़मीन के रुपए का भुगतान करूँगी तो चेक से ही तो करूँगी।" उनका इस तरह बेतकल्लुफ़ होना बहुत अच्छा लगा।"
"लेकिन घर में तो किसी को पता नहीं कि आपके पास इतना रुपया है, ज़मीन ख़रीदेंगी तो पता नहीं लग जाएगा?" मैंने उनसे पूछा।
"नहीं, पता नहीं चलेगा।" उन्होंने निश्चिंत भाव से कहा।
"क्या होगा ज़मीन ख़रीद कर?" मैंने पूछा।
"मैंने कहीं-कहीं से जोड़ कर जो ये रकम इकठ्ठा की है तो कोई अपने लिए थोड़े ही की है। आज एक बात तुझे कहती हूँ कि जिस घर में शराब और जुआ पहुँच जाएँ वहाँ किसी भी दिन ऐसी नौबत आ सकती है कि जान के लाले पड़ जाएँ। मैंने ये रकम रब न करे, किसी ऐसे ही मनहूस दिन के लिए जोड़ कर रखी है। सोचती हूँ कि ज़मीन लेकर कुछ दिनों बाद उसे बढ़े हुए दामों पर बेच दूँगी तो खाते में ज़्यादा रकम हो जाएगी।" मैं अवाक उनको सुन रहा था और चेहरे पर आते-जाते भावों को देख रहा था।"
"आपको कोई ठग लेगा। आपके पैसे भी ले लेगा और ज़मीन भी नहीं देगा। आपके साथ तो कोई है भी नहीं, आप ऐसे बेईमान आदमी का क्या करेंगी?" मैंने उन्हें समझाया।
"नहीं, मैं चेक नंबर नोट कर लूँगी।" उनकी आँखों और चेहरे पर समझदारी की चमक उभरी।
"आप ज़मीन ख़रीदने के झंझट में पड़ती ही क्यों हैं? दो लाख रुपए तीन साल के लिए फिक्स करा दीजिए, हर महीने आपको नौ सौ पचान्नबे रुपए ब्याज में मिलते रहेंगे। वो रुपए भी अगर आप नहीं लेंगी तो मूलधन में जुड़ते जाएँगे।"
"हाँ सच्ची तो वीर जी। ये तो भोत अच्छी गल बताई।" उन्होंने दाहिने हाथ की झुर्रीदार मुठ्ठी में से तर्जनी को बाहर निकाल कर अपने निचले होंठ पर रखते हुए कहा।
"आप ऐसा ही कीजिए," उनकी उस सुंदर मुद्रा को मैं देखता ही रह गया।
"और हाँ, फार्म में ये भी तो लिखना होगा न कि मेरे बाद यह पैसा किसको मिले। तो वीर जी, मैं उसमें अपने बेटे का नाम डाल दूँगी।" उनकी आँखें अचानक मेरे आर-पार चली गई।

मुझे लगा काके सिर्फ़ पैसा जानता है, माँ को नहीं जानता। उसके मरने के बाद जब उसे यह पैसा मिलेगा तो शायद वह जान सके कि माँ क्या होती है?"

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९ अक्तूबर २००५

 
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