"वीर जी," कानों में पहले कभी न पड़ा संबोधन गया
तो मैंने पीछे मुड़ कर देखा।
किसी गिरहर इमारत जैसी वे मेरे ठीक पीछे खड़ी थीं। सब तरफ़ से झूल गया बुढ़ापे का
शरीर। सामने के दाँत टूटने लगे थे जिसके कारण होंठ अपने टिके होने का आधार खो रहे
थे और पूरा चेहरा डोनाल्ड डक जैसा लगने लगा था। खिचड़ी बाल कहीं-कहीं पर काफ़ी कम
हो गए थे और गंजापन झलकने लगा था। मदद की गुहार करती-सी आँखें जिनकी उपेक्षा करके
आगे बढ़ जाना संभव नहीं होता। दाहिने गाल पर एक काला मस्सा था जो उनके गोरे रंग पर
आज भी डिठोने-सा दमकता लग सकता था लेकिन मस्से पर उगे सफ़ेद बालों के गुच्छे ने
उनके चेहरे को विरूपित कर रखा था। उनके माथे पर गहरी सिलवटें थीं जिनमें पसीने की
महीन लकीरें चमक रही थीं। उन्होंने कृपाण धारण कर रखी थी जिसकी म्यान का पट्टा उनके
कंधे पर दुपट्टे के नीचे से झाँक रहा था।
उनके लिए आदतन वीरजी, कह बैठना अधिक सुविधाजनक रहा होगा।
"जी," मैंने उनसे पूछा।
"यह बैंक वाले मुझे चेकबुक नहीं दे रहे। कहते हैं पहले ही दी जा चुकी है। लेकिन
मैंने तो चेकबुक कभी ली ही नहीं।"
उन्होंने इतनी-सी बात को बहुत बेचैनी से छटपटाते
हुए कहा।
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