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देवेश और अणिमा ने मुँह फेर लिया। औरत मन ही मन कुछ बुदबुदाती हुई बच्चे को चुप कराती उठ कर एक ओर चल दी। बच्चा रोए जा रहा था। देवेश फिर अख़बार पढ़ने लगा, पास बैठी अणिमा गली में झाँकने लगी।
अचानक अणिमा को कुछ याद आया। "देखो, इस अप्पू को समझा लो। बहुत तंग करता है आजकल खाने पीने में। दूध तो जैसे मुँह ही नहीं लगाता। खाना लेकर बैठा रहता है घंटों-घंटों। एक कौर भी मुँह में नहीं रखता। मैं तो दुखी हो गई इस लड़के से।"
वो एक ही साँस में बच्चे का पूरा चिठ्ठा पढ़ गई।
"अप्पू. . . " देवेश ने पुकारा। बच्चा जाली के दरवाज़े के अंदर ही खड़ा था। तुरंत प्रकट हो गया। गुमसुम-सा।
"क्या कह रही है मम्मी?" ठेठ पिता वाले लहजे में देवेश ने पूछा।
". . ." बच्चा मौन।
"क्यों तुम दूध नहीं पीते हो? खाना भी नहीं खाते हो, बोलो।"
अख़बार सहेज कर एक ओर रखते हुए देवेश ने बच्चे की क्लास लेनी शुरू की।
"और पता है, मैं बार-बार कहती हूँ तो चुपके से जाकर नाली में दूध बहा देता है।" अणिमा ने आगे बताया।
"क्येंा भई? नाली में क्यों फेंकते हो दूध? बेटा दूध नहीं पीओगे तो बडे कैसे बनोगे? बडे नहीं बनोगे तो पापा की तरह गाड़ी में बैठकर आफ़िस कैसे जाओगे? बताओ।" देवेश ने बच्चे को समझाया।

अणिमा चुपचाप बैठी सुन रही थी। बच्चे ने नज़र उठा कर एक बार अपनी माँ की ओर देखा और फिर पापा की ओर इंगित करके बोला, "मुझे दूध अच्छा नहीं लगता।"
"क्यों लगेगा- मुफ़्त में जो आता है। पीने को मिल जाता है ना बैठे बिठाए।" अणिमा ने तुरंत जोड़ दिया।
"अच्छा, और खाना क्यों नहीं खाते? ये क्या बात है? बताओ।"
"खाता तो हूँ पापा।"
"मतलब? मम्मी झूठ बोल रही है?"
"हां" उसने मासूमियत के साथ कहा।
"हाँ, हाँ। माँ तो झूठ बोलती है। तू ही एक रह गया है हरिश्चंद्र का सगा, है ना? झूठ और बोलने लगा है। बित्ते भर का छोकरा है और ज़बान देखो ज़रा इसकी। मत खा कुछ भी, मेरी बला से। भूखा मर। मैं क्यों कहूँगी? खा तो खा वरना मत खा। मेरी माँ सही कहती है, जितना मैं सबके लिए पचती हूँ उसका आधा भी अगर खुद का ख़याल रखूँ तो मेरी सेहत ठीक हो जाए। तुम लोगों के चक्कर में बेकार मरी जा रही हूँ।" अणिमा भड़क उठी।
"देखा, तुमने मम्मी को नाराज़ कर दिया ना? सॉरी बोलो जल्दी से।" देवेश ने धीरे से बच्चे को तरक़ीब सुझाई।
"सॉरी मम्मी" तुतलाती आवाज़ में वो झट से बोल दिया।
"बस कुछ भी कह दो, कुछ भी कर दो और 'सॉरी मम्मी' कहकर छुट्टी पा लो।"
"गंदी बात है अप्पू। अबसे आपकी शिकायत नहीं आनी चाहिए। बिना दूध पीए और बग़ैर कुछ खाए 'हुकूम मेरे आका' कैसे बनेगा बेटा?" देवेश ने आँख मिंचका कर कहा। सुनकर चार बरस का अपूर्व हँस पडा। पापा भी हँस दिए। वो लपक कर गोद में चढ़ गया।
"बस, बिगाड़ लो इसको" कहती हुई अणिमा उठकर अंदर चली गई, कुकर की सीटी बज रही थी। कुछ देर तक अपूर्व के साथ देवेश खेलता रहा। उससे स्कूल की बातें पूछता रहा। वो अपनी तुतलाती ज़ुबान से अपने किस्से सुनाता रहा और इस तरह दिन गुज़र गया।

रात को टीवी देखते समाचारों में सुनामी लहरों द्वारा हुई व्यापक एवं विनाशकारी जानमाल की हानि पर एक विशेष रिपोर्ट दिखाई जा रही थी। अजीब भयानक दिल दहला देने वाले दृश्य, मौत किस तरह से लहरों पर सवार हो कर आई? कैसे असंख्य लोगों को एक ही झटके में निगल गई? साक्षात्कार और विवरण सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते थे। इस तूफ़ान ने अमीर फ़कीर का भेद मिटा दिया था और सबको असहाय बनाकर छोड़ दिया था। लोग अपने बच्चों को नहीं बचा पाए। अपने घर को नहीं बचा पाए। अपना सब कुछ गँवा दिया। खाने के लाले पड़ गए। परिवार के परिवार उजड़ गए।

सामूहिक दाह संस्कारों के दृश्य, चारों तरफ़ हाहाकार के दृश्य। राहत कार्यों की भी जानकारियाँ दी जा रही थी। राहत सामग्री वितरण के समय लोग इस तरह से टूट कर पड़ रहे थे मानो जन्मों से भूखे हों। बच्चों के छोटे-छोटे हाथ फैले हुए थे और सूनी आँखें डर के मारे पीली पड़ गई थी। रह-रह कर यह अपील भी ब्लिंक कर रही थी कि 'खुले हाथ से सुनामी पीड़ितों की सहायता करें। दी गई सहायता आयकर से मुक्त होगी।' देवेश, अणिमा और अपूर्व तीनों रजाई में बैठे मूंगफली खा रहे थे, टीवी देख रहे थे। तभी एक ग़रीब असहाय-सी औरत गोद में एक बच्चा लिए रोती बिलखती हुई टीवी स्क्रीन पर नज़र आई।

"पापा सुबह वाली आँटी।" अपूर्व चिंहुक कर बोला।
"वो नहीं है, बेटा।"
"ऐसी ही तो थी, वो भी। उसका बच्चा भी।"
"ये, वो नहीं है लेकिन।" इसबार अणिमा बोली।
"ये लोग कौन हैं पापा?" अपूर्व ने भोलेपन के साथ पूछा।
"बेटा ये वो लोग हैं जिनका तूफ़ान में घरबार सब उजड़ गया है। जिनके पास खाने पीने को कुछ भी नहीं बचा है। जिनके पास रहने को घर नहीं है, पहनने को कपड़े नहीं हैं।" देवेश ने बच्चे की जिज्ञासा शांत करने की कोशिश की।
"फिर ये क्या खाते हैं पापा?" बच्चे का अगला प्रश्न।
"बेटा लोग इनको खाना देते हैं, कपड़े देते हैं, कंबल देते हैं।"
"बच्चों को दूध देते हैं पीने को?" बच्चे द्वारा अचानक पूछ लिए गए इस सवाल का देवेश के पास कोई उत्तर नहीं था। उसने अणिमा की ओर देखा।
"देते हैं ना।" अणिमा तपाक से बोली।
"आपने तो सुबह उसको रोटी भी नहीं दी।" एकाएक गंभीर हो गए बच्चे के चेहरे पर बालसुलभ जिज्ञासा थी।
देवेश और अणिमा के चेहरे फक्क हो गए थे।
सुनामी लहरों के थपेड़े की गूँज पूरे कमरे में फैल कर पसर गई थी।

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   २४ फ़रवरी २००५

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