रविवार का दिन। सुबह-सुबह का समय, देवेश अपने घर
के लॉन में बैठा अख़बार पढ़ रहा था। पूरा का पूरा अख़बार सुनामी लहरों से हुई
विनाशकारी तबाही के समाचारों और तस्वीरों से अटा पड़ा था। तस्वीरों में दिखाई गई
हृदयविदारक स्थितियों को सोचकर ही रोंगटे खड़े हुए जा रहे थे। बच्चों की लाशें,
औरतों की लाशें, बूढों की लाशें, लाशों के ढेर।
विश्वभर में इस हादसे की काली छाया
पसर चुकी थी और हर तरफ़ एक भयानक सदमा फैला हुआ था। एक ओर तबाही की ख़बरें थीं तो
दूसरी ओर इसके लिए विश्वव्यापी सहयोग की। देवेश महज़ पन्ने पलट कर सरसरी तौर से
समाचारों के शीर्षक भर देख रहा था। पूरा पढ़ने लायक था भी क्या? वही पिछले पंद्रह
बीस दिनों से छपते आ रहे तबाही के मंज़र। घृणा और विषाद के भाव उसके चेहरे पर साफ़
पढ़े जा सकते थे।
उसने मुख्य समाचार पत्र समेट कर एक ओर पटक दिया और
चिकने काग़ज़ वाला रंगीन रविवारीय सिनेमा परिशिष्ट उठा लिया। फ़िल्म तारिकाओं की
चमचमाती तस्वीरें, चटपटे गॉसिप और सेलेब्रेटीज़ के मज़ेदार किस्सों से भरे थे वो
चिकने चार काग़ज़। मॉडलिंग की दुनिया और साबुन शैंपू के विज्ञापनों से सजे।
धीरे-धीरे सुनामी का संसार देवेश के मन से लुप्त होने लगा।
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