तीस साल पहले समुद्र ऐसा मटमैला नहीं था। चढ़ती
दुपहरी में वह आसमान के हल्के नीले रंग से कुछ ज़्यादा नीलापन लिए दिखता- आसमानी
नीले रंग से तीन शेड़ गहरा। लगता, जैसे चित्रकार ने समुद्र को आँकने के बाद उसी
नीले रंग में सफ़ेद मिलाकर ऊपर के आसमान पर रंगों की कूची फेर दी हो। आसमान और
समुद्र को अलग करती बस एक गहरी नीली लकीर। डूबता सूरज जब उस नीली लकीर को छूने के
लिए धीरे-धीरे नीचे उतरता तो लाल गुलाबी रंगों का तूफ़ान-सा उमड़ता, वे सारे काम
छोड़कर उठतीं और कूची लेकर उस उड़ते अबीर को कैनवास पर उतारने बैठ जातीं- एक दिन,
दो दिन, तीन दिन। तस्वीर पूरी होने पर खिड़की के बाहर की तस्वीर का अपनी तस्वीर से
मिलान करतीं और अपनी उँगलियों पर खीझ जातीं। उन्हें थाम लेते ऑफ़िस से लौटे साहब के
मज़बूत हाथ और उनकी उँगलियों पर होते साहब के नम होंठ।
कुछ साल बाद एक दिन अचानक, जब गर्मी की छुटि्टयाँ
ख़त्म होने पर, बच्चे वापस पंचगनी के हॉस्टल लौट गए, उन्हें समुद्र कुछ बदरंग-सा
नीला लगा जिसमें जगह-जगह नीले रंग के धुँधलाए चकते थे। खिड़की के बाहर दिखाई देता
समुद्र पहले से भी ज़्यादा विस्तारित था। वैसा ही अछोर विस्तार उन्हें अपने भीतर
पसरता महसूस हुआ। उनका मन हुआ कि उस निचाट निर्जन असीम विस्तार पर घर लौटते हुए
पक्षियों की एक कतार आँक दें जिनके उड़ने का अक्स समुद्र की लहरों पर पड़ता हो।
उन्होंने पुराने सामान के ज़खीरों से कैनवस और कूची निकाली पर कैनवस सख़्त और
खुरदरा हो चुका था और कूची के बाल सूखकर अकड़ गए थे। वे बार-बार खिड़की के बाहर की
तस्वीर को बदलने की कोशिश करतीं पर उस कोशिश को हर बार नाकाम करता हुआ समुद्र फिर
समुद्र था - ज़िद्दी, भयावह और खिलंदड़ा।
खिलंदडे समुद्र के किनारे-किनारे कुछ औरतें
'प्रैम' में बच्चों को घुमा रही थीं। एक युवा लड़की के कमर में बँधे पट्टे के साथ
बच्चे का कैरियर नत्थी था जिसमें बच्चा बंदरिए के बच्चे की तरह माँ की छाती से
चिपका था। न जाने कब उन्होंने उस लड़की की जगह अपनी कमर बँधे पट्टे के साथ बच्चे को
अपनी छाती से चिपका महसूस किया।
"मुझे अपना बच्चा चाहिए," साहब की बाँहों के घेरे को हथेलियों से कसते हुए उनके
मुँह से कराह-सा वाक्य फिसल पड़ा।
साहब के हाथ झटके से अलग हुए और बाएँ हाथ की तर्जनी को उठाकर उन्होंने बरज दिया,
"फिर कभी मत कहना। ये तीनों तुम्हारे अपने नहीं हैं क्या?" कार्निस पर रखी बच्चों
की तस्वीर उठाकर साहब मुग्ध भाव से निहारने लगे। फ्रेम में जड़ी हुई तीनों बच्चों
की हँसी के साथ साहब की तर्जनी की हीरे की अँगूठी की चमक इतनी तेज़ थी कि वे कह
नहीं पाईं कि इन बच्चों का बचपन कहाँ देखा उन्होंने। वे तो जब ब्याह कर इस घर में
आईं तो आठ, छह और अढ़ाई साल के तीनों बेटों ने अपनी छोटी माँ का स्वागत किया था और
वे दहलीज़ लाँघते ही एकाएक बड़ी हो गई थीं।
वह अपने दसवें माले के फ्लैट की ऊँचाई से सबको तब
तक देखती रहीं, जब तक समुद्र की पछाड़ खाती लहरें उफन-उफन कर ज़मीन से एकाकार नहीं
हो गईं। सब कुछ गड्डमड्ड होकर धुआँ-धुआँ-सा धुँधला हो गया।
न जाने कब वह खिलंदड़ा समुद्र एकाकी और हताश रेगिस्तान में बदल गया। वे खिड़की पर
खड़ी होतीं तो उन्हें लगता- उनकी आँखों के सामने हिलोरें लेता समुद्र नहीं, दूर-दूर
तक फैला खुश्क रेगिस्तान है। यहाँ तक कि वे अपनी पनियाई आँखों में रेत की किरकिरी
महसूस करती वहाँ से हट जातीं।
"तुम्हें डेज़र्ट फोबिया हो गया है।" तुम्हें
समुद्र नहीं लगता, रेगिस्तान लगता है। साहब हँसते हुए कहते, "इसका इलाज होना
चाहिए।" समुद्र की उफनती लहरों में एक लंबे अरसे तक वे रेत का गुबार उठते देखती
रहीं। फिर एक दिन अचानक साहब को दौरा पड़ा और वह उनका अतीत बन गए। पीछे छोड़ गए-
बेशुमार जायदाद और तीन जवान बेटे। उतने ही अचानक उन्होंने अपने को जायदाद और तीनों
बेटों के साथ कोर्ट-कचहरी के मुकदमों और कानूनी दाँवपेंचों से घिरा पाया।
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