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दिन, हफ्ते, महीने, साल लगभग पैंतीस सालों से वे
खड़ी थीं - खिड़की के आयताकार फ्रेम के दो हिस्सों में बँटे समुद्र के निस्सीम
विस्तार के सामने - ऐसे, जैसे समुद्र का हिस्सा हों वे। हहराते-गहराते समुद्र की
उफनती-पछाड़ खाती फेनिल लहरों की गतिशीलता के बीच एकमात्र शांत, स्थिर और निश्चल
वस्तु की तरह वे मानो कैलेंडर से जड़े एक खूबसूरत लैंडस्केप का अभिन्न हिस्सा बन गई
थीं।
"आँटी, थोड़ी शक्कर चाहिए।" दरवाज़े की घंटी के
बजने के साथ छह-सात साल के दो बच्चों में से एक ने हाथ का खाली कटोरा आगे कर दिया।
बच्चों की आँखों के चुंबकीय आकर्षण से उन्होंने आगे बढ़कर खाली कटोरा लिया, रसोई
में जाकर उसे चीनी से भरा और लाकर बड़े बच्चे को थमा दिया। "सँभालना।" उन्होंने
हल्की-सी मुस्कान के साथ एक का गाल थपथपाया और जिज्ञासु निगाहों से देखा। पूछा कुछ
नहीं।
"वहाँ।" बच्चे ने आँटी की मोहक मुस्कान में सवाल पढ़ पड़ोस के फ्लैट की ओर इशारा
किया जो किसी बड़ी कंपनी का गेस्ट हाउस था, "वहाँ अब्भी आए हम लोग! 'दुबाई' से"
विदेशी अंदाज़ में 'आ' को खींचते हुए बड़ी लड़की ने कहा।
पीछे से नाम की पुकार सुनकर एक ने दूसरे को टहोका। लौटते बच्चों की खिलखिलाहट को वे
एकटक निहारती रहीं। एक खिलखिलाहट पलटी, "थैंक्यू आँटी।" उन्होंने स्वीकृति में हाथ
उठाया और बेमन से मुड़ गईं खिड़की की ओर। उनके पीछे-पीछे हवा में 'थैंक्यू आँटी' के
टुकड़े तिर रहे थे।
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