हाँ
कभी नहाने जाने पर तौलिया या साबुन नहीं मिलता तो पारा अवश्य सातवें आसमान पर पहुँच
जाता और बेचारी मालती कभी सब्ज़ी की कड़ाही गैस से उतार कर, कभी आटा सने हाथों
दौड़ती-हाँफती आती और उनको कपड़े पकड़ाती। उनसे तो यह भी नहीं होता था कि स्वयं ले
लें।
सच, आज वह सोचते हैं कि उन्होंने
मालती को कितना सताया था। तब तो उन्हें यही लगता था कि घर में काम ही क्या होता है
दो समय खाना बना दो, कपड़े धो दो और चादर तान कर सो। उन्हें बस अपने काम ही
महत्वपूर्ण लगते थे, कभी थोक का सामान जाना है तो कभी आयकर वालों से निबटना है।
कभी-कभी कोई झगड़ालू ग्राहक आ जाता तो घंटों सिर खपाना पड़ता है। घर आ कर भी रुपए
का हिसाब-किताब ही मस्तिष्क में घूमता रहता है। अब आज जब उन्हें घर गृहस्थी से
दोचार होना पड़ा तो ज्ञात हुआ कि इसे सँभालना भी कम दुर्वह कार्य नहीं है।
पर अब तो पश्चाताप का अवसर भी
मुट्ठी से रेत बन कर फिसल चुका है। मालती ने तो सारे झंझटों से मुक्त हो कर परलोक
की राह पकड़ी। वैसे वह भाग्यशाली थी कि उसने वह सब नहीं देखा जो आज उन्हें देखना
पड़ रहा है। वह तो प्राय: ईश्वर को धन्यवाद देती थी और कहती, "सच शकुन के पापा
ऊपर वाले का धन्यवाद है कि उसने भले ही हमे लड़का नहीं दिया पर हमारी तीनों बेटियाँ
और दामाद इतने भले हैं कि हमे कोई कमी नहीं, उस पर अपना दिनेश और उसकी बहू जितना
मानते हैं वह तो शायद पेट जाया भी न करे।" इस पर रामेश्वर चुटकी लेते और कहते,
"पहले जब मैं कहता था कि लड़का और लड़की बराबर हैं तो तुम कहाँ सुनती थीं, न जाने
कहाँ-कहाँ पूजा पाठ और मन्नत नहीं मानी तुमने।"
मालती तुनक कर कहती, "अरे यह हमारे पूजा पाठ और मन्नत का प्रताप है कि भगवान भी
पसीज गए, चलो बेटा नहीं दिया तो क्या बेटे का सुख तो दे ही दिया।" रामेश्वर
हँसते, "चलो-चलो तुम्हारे पूजा पाठ से ही सही हमारा बुढ़ापा तो चैन से कट रहा है।"
वह ग़लत भी नहीं कह रहे थे मालती
थी तो यही घर कितना भरापूरा रहता था। आए दिन कोई न कोई लड़की दामाद आते ही रहते थे,
सभी दामाद बेटों के समान घर में आते थे कोई नखरा नहीं था, यदि आवश्यकता हो तो
सब्ज़ी आदि भी लाने में नहीं हिचकते। जब छोटी बेटी प्रीती के विवाह की बात उठी थी
तो मालती ने हठ पकड़ लिया, "दो बेटियाँ तो दूर चली गईं पर उसे तो इसी शहर में ही
ब्याहेंगे समय बेसमय का सहारा रहेगा।" उनका निर्णय ग़लत भी नहीं था। प्रीती तो
नित्य प्रति हालचाल पूछ ही लेती दामाद राजीव भी किसी भी कार्य के लिए एक पाँव पर
खड़े रहते, यही नहीं छोटे भाई बशेशर जो पास में ही रहते थे, उनका बेटा दिनेश भी
दूसरे तीसरे दिन चक्कर लगा ही लेता था।
दिन चैन से कट रहे थे, पर भाग्य
का लिखा व्यक्ति देख पाता तो ईश्वर को कौन पूछता? उस दिन जब रामेश्वर दुकान से लौटे
तो मालती के सीने में दर्द हो रहा था। छोटी-मोटी परेशानी तो वह सह लेती थी और
उन्हें पता भी नहीं चलता था, पर उस दिन अवश्य असह्य कष्ट था जो वह साँझ ढले बिस्तर
पर लेटी थी। उन्होंने उसका माथा छूते हुए पूछा था, "क्या हुआ मालती?" तो बड़े
प्रयास से वह कराह कर बोली, "ज़रा कोई चूरन-वूरन दे दो लगता है गैस चढ़ गई है, सीने
में दर्द हो रहा है।" जब तक रामेश्वर जी ढूंढ कर चूरन और पानी लाए, मालती के हाथ
पांव ठंडे होने लगे, वह बेसुध सी हो गई। मालती की स्थिति देख कर रामेश्वर जी के हाथ
पाँव यों ही ठंडे हो गए, उन्होंने दिनेश और राजीव को काँपते हाथों से फ़ोन मिलाया।
राजीव तुरंत पहुँच गए और दोनों
मिल कर मालती को पास के रामा नर्सिंग होम में ले गए। तब तक दिनेश भी आ पहुँचा था।
अस्पताल में डॉ. मेहरा ने निरीक्षण करके बताया, "इन्हें दिल का दौरा पड़ा है।"
रामेश्वर घबरा गए और बोले, "डॉ. साहब अब क्या होगा?"
डॉ. ने कहा, "तुरंत आपरेशन करना होगा।" पर वह निष्फल रहा, मालती सबको हतप्रभ
छोड़ कर चली गई।
इस आघात से रामेश्वर जी तो मानो
पत्थर हो गए, उन्होंने कभी सोचा भी न था कि जीवन की राह में सदा साथ देने वाली
मालती, अंतिम पड़ाव में जब वह स्वयं निर्बल होने लगे थे उन्हें इस प्रकार धोखा दे
जाएगी। वह तो निष्प्राण से वहीं बैठ गए, उन्हें कुछ सुध नहीं कि कब क्या हुआ। सारा
कार्य राजीव और दिनेश ने ही सँभाला। किसने लड़कियों को सूचना दी, नाते रिश्तेदार कब
आए और कब मालती अपने अंतिम पड़ाव पर निकल गई, उन्हें कुछ भी पता नहीं। उनसे जो कहा
जाता रहा वह करते रहे, वे चौंके तो तब जब उनसे चिता को अग्नि देने को कहा गया। जिस
अट्ठारह वर्ष की कोमलांगनी मालती को वह चालीस वर्ष पूर्व ब्याह कर घर लाए थे वह
शरीर पल भर में अग्नि में झुलस जाएगा इस कल्पना मात्र ने उनके पत्थर हो आए मन का
बाँध तोड़ दिया और उस दरार से उनका शोक जो प्रवाहित हुआ तो सारी सीमाएँ पीछे छोड़
दीं, उनके रुदन ने पाषाण दयों के नेत्र भी नम कर दिए, पर उनकी एक पुकार पर दौड़ आने
वाली मालती ने आज उनकी पुकार नहीं सुनी, वह तो लकड़ी की शय्या पर चिर निद्रा में
सोती ही रही।
थके-हारे जब वह सब कुछ स्वाहा
करके लौटे तो घर शोक व्यक्त करने वालों की भीड़ से भरा हुआ था, पर वह इस भीड़ में
भी स्वयं को नितांत एकाकी पा रहे थे। बेटियों, दामादों और भाई ने मिल कर तीसरे दिन
हवन करने का निश्चय किया, तेरह दिन रुकने का समय तो किसी के पास था नहीं, किसी के
बच्चों की परीक्षा थी तो किसी का घर अकेला था। तीसरे दिन शांति पाठ और हवन के साथ
मालती के अस्तित्व को पूर्ण रूप से विदा दे दी गईं। शांतिपाठ वाले दिन रामेश्वर जी
निढाल से बैठे थे कि उनके भाई बशेशर आ कर बैठ गए और बोले, "भइया एक बात कहनी
थी," "हाँ हाँ बोलो।"
"भइया भाभी तो हमें छोड़ कर चली गईं, बेटियाँ अपने घर की हो गईं अब हमें तो बस
आपकी चिंता खाए जा रही है।" रामेश्वर ने कहा, "अरे, अब ऊपर वाले ने जैसा किया वह
तो सहना ही पड़ेगा, फिर तुम लोग तो हो ही, दिनेश और उसकी बहू तो दूसरे तीसरे दिन
आते ही रहते हैं।" बशेशर ने अपनी बात थोड़ी और स्पष्ट करते हुए कहा, "यही तो,
भइया आजकल के लड़कों की तो भली चलाई, वो तो अपनी मन मर्ज़ी के मालिक हैं, मन आया तो
पूछेंगे वर्ना कोई दबाव तो है नहीं, फिर थोड़ा रुक कर झिझकते हुए बोले, "हमारा
तो यह कहना था कि आप उसे अपना बेटा बना लें।" इस पर रामेश्वर जी ने चौंक कर कहा,
"अरे बेटा जैसा तो वह है ही, क्या हमने उसे कभी पराया माना है?" बशेशर ने खीजते हुए
कहा, "भइया बेटा और बेटा जैसा में बहुत अंतर है। अब तो उसे दुकान सौंप कर तुम
आराम करो, जब ज़िम्मेदारी उसके सिर आएगी तो उसे भी लगेगा कि दुकान उसकी है और वह मन
लगा कर काम करेगा और बहू भी तुम्हारी सेवा करेगी, नहीं तो उसे अपना धंधा जमाने से
फुरसत ही कहाँ मिलेगी।" |