लोग अकबका कर उसकी ओर देखने लगे। सन्नाटे के बीच
चलती खदबदाहटें एक-ब-एक रुक-सी गई।
यह तो कोई इतना क़रीबी भी न था। फिर भी, खुद ही अपने आपको चुन लिया इसने!
शोक-संवेदना में शामिल सभी लोग एकबारगी पिछली कतार में आ गए थे। उधेड़ बुन का एक
महीन जाल-सा फैला था और नामालूम से कयास, सन्नाटे के बीच घुसपैठ-सी कर रहे थे।
अंतिम यात्रा की तैयारी पूरी हो चुकी थी। उसने आगे
बढ़कर अपने मज़बूत कंधे अर्थी में लगाए और 'हरिबोल' में शामिल हो गया। ज़ैसे कोई
नेतृत्व सँभाला हो।
'हरिबोल' में सबसे ऊँची आवाज़ उसी की थी।
आनेवालों का ताँता लगा रहा। कुछ अकेले, कुछ परिवारों के साथ। निकटस्थ और दूर-दराज
के रिश्तेदार पहुँचते रहे। गृहस्वामिनी से संवेदना प्रगट करने के बाद लोगों का आपस
में पहला सांकेतिक प्रश्न यही होता कि 'दाग' किसने दिया? औ़र सुनने वाला उसी
सांकेतिक भाव में 'उसकी' ओर इशारा कर देता। लोग चौंक कर देखते और चुप हो लेते।
ज़्यादातर लोग तो आने के साथ ही बड़े हाल के एक कोने में, सबसे अलग हट कर बिछी दरी
पर उसे घुटे सिर, कोरी मारकीन की लुंगी में बैठा देख कर ही समझ जाते।
कमर में दो गजी मारकीन की लुंगी बाँधे, कोरे
मारकीन का ही दूसरा टुकड़ा दरवेशों की तरह अपने सिर पर लपेटे, अपनी लंबी-तड़ंगी
काया के साथ वह, शेष लोगों के लिए निषिद्ध, अपने क्षेत्र में चलता-फिरता या दूर से
अपनी ज़रूरत की चीज़ें माँग लिया करता।
बैठा हुआ भी, वह सबकी निगाहों में रहता। पंडित आते
तो उसकी पुकार मचती। कि वह चले और घंट बाँधे। वह चले और पिंडदान करे। स्नान कर,
गीले वस्त्रों में, उँगलियों में कुश बाँधे, मृतात्मा को तिलांजलि दे। उसका खाना
सबसे पहले निकाल दिया जाता। खाने से पहले वह दिए गए निर्देश के अनुसार पहला ग्रास
मृतात्मा के लिए निकालता। चार-पाँच सुलगे कोयलों पर गुग्गुल, धूप जलाता। मृतात्मा
के साथ अब उसका सबसे नज़दीकी रिश्ता बन चुका था।
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कर्मकांडों के जानकार स्त्री-पुरुषों ने ही यह
सारी ज़िम्मेदारी सँभाली हुई थी वरना पति की मृत्यु के बाद, अकेली बची गृहस्वामिनी
को शेष संसार और सूतक से जुड़े सारे क्रिया-कलापों में कोई भी रुचि नहीं रह गई थी।
सब तरफ़ से उदासीन थीं वे, सिर्फ़ लोगों का मन रखने के लिए, सूनी आँखें हर किसी की
शोक-संवेदनाएँ स्वीकार लेतीं, सबके पास थोड़ा बहुत बैठ लेतीं, फिर, जाने कब धीरे से
उठ कर अपने दिवंगत पति के कमरे में चली जातीं।
लोग अकेले से पड़ जाते। चूँकि वे कुछ न बोलतीं,
ज़्यादातर चुप ही बनी रहतीं इसलिए संवेदना प्रकट करने आए मेहमानों की समझ में नहीं
आता कि वे क्या और किससे कहें। अत: ज़्यादातर लोग भी चुप ही बने रहते या फिर बहुत
धीमी आवाज़ों में एक दूसरे से अपना मंतव्य प्रकट कर देते।
पूरी, स्पष्ट आवाज़ में सिर्फ़ वही बोलता। अपनी
दरी पर बैठे-बैठे ही, किसी लड़के को बुला लेता और गृहस्वामिनी से, परिवार की अलबम
माँग लाने के लिए भेज देता। चूँकि लड़का भी यहाँ-वहाँ बैठे-बैठे उकता चुका होता
इसलिए लपक कर जाता और एलबम ला कर उसे थमा देता।
लोगों की निगाहें उसकी ओर उठ जातीं। वह अलबम से दिवंगत बुजुर्ग का एक चित्र निकाल
कर पास बैठे किसी दूसरे लड़के से 'उनकी' स्वीकृति के लिए भेज देता। फिर शहर के
अच्छे स्टूडिओ का पता किसी स्थानीय व्यक्ति से पूछकर, उसे चित्र को 'एनलार्ज' करा
लाने की ज़िम्मेदारी भी सौंप देता।
अगली सुबह उस व्यक्ति का संकोच आड़े आता तो वह खुद
रसीद सहित गृहस्वामिनी के पास पहुँच जाता। वे आशय भाँपते ही ड्राअर से पैसे निकाल
कर चुपचाप थमा देतीं। साथ ही एक अवसादमयी, अनकही, कृतज्ञता भी प्रगट करना भी न
भूलतीं।
चित्र को स्टील के सुंदर फ्रेम में जड़वाने तथा नीचे जन्म और मृत्यु की तारीखें
लिखवाने के निर्देश भी उसने, लाने वाले व्यक्ति को दे दिए थे।
दूसरे दिन ही चित्र मिल गया। लाने वाला व्यक्ति
एकाध लोगों से पूछकर सगर्व, सामने दीवाल पर टाँगने की कोशिश करने लगा जब उसका ध्यान
गया तो अपनी दरी पर बैठे-बैठे ही उसने सुझाव दिया कि चित्र दीवाल पर टाँगने के
बजाय, नीचे चौकी पर रखा जाए तो ज़्यादा ठीक लगेगा। हाल में बैठे - अधलेटे प्राय:
सभी लोगों को उसका सुझाव ठीक लगा और चित्र उसके निर्देशानुसार चौकी पर रख दिया गया।
सुबह घाट से स्नान कर लौटते हुए उसने गेंदे के फूलों की एक माला ख़रीदी और चुपचाप
ला कर चित्र को पहना दी। गृहस्वामिनी ने जाने कब देखा, समझा और अगली सुबह खुद उसे
चुपचाप माला के लिए पैसे थमा दिए। अब हर दिन सुबह एक माला आने लगी। माला डाल दी
जाती तो वह स्वयं उठकर चित्र के बीचोंबीच चार-पाँच अगरबत्तियाँ जला देता।
देखादेखी एकाध अन्य लोग भी चित्र के सामने, चौकी
पर फूल रख देते। बाकी सारे समय वैसे ही चुप बने रहते। अथवा उसे चलते-फिरते, खाने से
पहले, पहला ग्रास निकालते, या अगियारी करते देखा करते। घर में चलने वाली व्यवस्ताएँ
भी अजीब मनहूसियत से भरी होतीं। ऐसी ही घनघोर चुप्पी के दौरान एक शाम, उसने पास
बैठे लोगों के बीच प्रस्ताव रखा- "अच्छा होता, हम लोग चुपचाप बैठे रहने के बदले
थोड़ा भजन-कीर्तन करते।"
सुनते ही जैसे यहाँ-वहाँ पसरे लोगों में
प्राण-शक्ति का संचार-सा हुआ। सभी लोग चौकी के पास सिमट आए। गृह-स्वामिनी तक भी
ख़बर भेज दी गई। वे आई। एक नज़र उस पर डाली और कोने में बैठ गई।
भजन करने वालों में कइयों की आवाज़ सचमुच बड़ी
अच्छी थी। लोगों के बीच उनकी आवाज़ पहचानी, सराही गई, यह उन लोगों ने साफ़-साफ़
महसूस किया। नीरवता के बीच आत्मतुष्टि की एक पतली धारा-सी बही। अलग-अलग लोगों के
अलग-अलग तृप्ति बिंदु। कुछ की प्रतिभा प्रकाश में आई तो कुछ का समय कटा, बोरियत दूर
हुई। गृहस्वामिनी के शोक को एक सम्मान मिला।
अगली शाम भी हर किसी के अंदर वही इच्छा जागी। अंदर कुलबुलाहट मची लेकिन कहे कौन।
बोल कोई नहीं रहा था सिर्फ़ लोग एक-दूसरे को अंदाज़ रहे थे। तब तक उसने हाँक लगा
दी।
लोग तो इंतज़ार ही कर रहे थे। एकाध ने तो चुपचाप
गुनगुना कर अभ्यास भी कर लिया था। मिनटों में इकठ्ठे हो गए। क़ाफ़ी देर तक
भजन-कीर्तन चलता रहा। किसी ने कहने पर अकेले भी भक्ति-गीत गाए।
उदासी, तन्मयता में बदल गई।
सन्नाटा, शांति में।
वह जैसे एक सहारा-सा बन गया, ज़रूरत भी।
लोग अगले दिन के शांति-पाठ को लेकर राय-मशविरा करने लगे। वह जिससे भी सलाह लेता, वह
व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता। दूसरों की नज़र में भी। माला-फूल, हवन सामग्री,
प्रसाद आदि की ज़िम्मेदारी अलग-अलग लोगों को सौंप दी गई। यह भी तय हुआ कि हवन के
बाद भी इच्छुक लोग बैठ कर भजन-कीर्तन कर, सुन सकते हैं।
शांति-पाठ वाले दिन सुबह ही पहले सनातनी क्रियाएँ
संपन्न हुई। उसने नहा-धोकर कोरी लुंगी और मारकीनी शिरस्त्राण उतार कर क्या कुर्ता,
पायजामा पहना और मृतात्मा की शांति से जुड़े सारे कर्मकांड, पंडितों के
निर्देशानुसार पूरे किए।
हवन के समय भी, बाकी लोग बारी-बारी से उठते-बैठते रहे लेकिन वह माथे पर लंबा तिलक
लगाए, हाथों में कलावा बाँधे, धुएँ से हलकोरती आँखों के बीच लगातार बुझी लकड़ियाँ
खिसकाता, आचमनी से घी और समिधा डालता रहा।
शोक को भी, भव्यता तो चाहिए ही। आखिर में कीर्तन
और रामधुन हुई। भजन उसने बड़े आदर से, लोगों से अनुरोध कर-कर के सुनवाए। बल्कि पीछे
बैठने वाले बड़ी आतुरता से उसके द्वारा अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा-सी करते
रहे। एक तरह से सर्वाधिक सार्थक उपस्थिति उसी की थी। वह इस दायित्व का बखूबी
निर्वाह भी कर रहा था।
लोगों में उसके प्रति भय, आदर, प्रशंसा और डाह के अंडर-करेंट एक साथ तरंगित थे।
समूचे माहौल का नेतृत्व आप-से-आप उसके हाथों में आ गया था। शोक-समारोह का नायक था
वह।
रिश्ते में उतने ही निकटस्थ लोगों की आँख की
किरकिरी भी। चौथे दिन शांतिपाठ के बाद ज़्यादातर लोगों को आगे-पीछे जाना था। नए,
पुराने परिचित एक-दूसरे से संबंधित जानकारियाँ ले रहे थे। अते-पते भी बदल रहे थे।
एक-दूसरे के जाने का समय और गाड़ियाँ भी कइयों ने उससे भी पूछा और उन्हें यह जान कर
महान-आश्चर्य हुआ कि वह तो तेरहवीं तक रुक रहा है।
उसने फिर सबको पछाड़ दिया था पर इस बार दूसरों का
भी पलड़ा बारी था, या कह लें उनके पलड़े में भी काफ़ी वज़न था। वे लोग आपस में
संवादों के आदान-प्रदान कर रहे थे कि कौन कितना ज़रूरी काम, व्यस्तताएँ छोड़ कर आया
है। इसमें सरकारी इन्स्पेक्शन्स, मीटिंगें, ऑडिट, स्ट्राइक, बच्चों के इम्तहान और
पत्नियों के होने वाले ऑपरेशन तक शामिल थे। ऊपर से कैजुअल, मेडिकल, प्रिवलेज-लीवों
की जानलेवा परेशानियाँ! 'लेकिन यह-यह कैसे रुक रहा है!'
ऊपरी तौर पर हर कोई ज़ाहिर यही कर रहा था कि उसके रुकने या जाने को लेकर न किसी की
रुचि है न वास्ता ही, बस महज़ पूछने की ख़ातिर एक-दूसरे से यों ही पूछ ले रहे हैं
कि आख़िर यह तेरह दिनों तक कैसे रुक पा रहा है।
जिज्ञासा और उत्सुकता की सुबह पर अटकलें लगाने
वालों में से किसी ने मद्धम स्वरों में दूसरे कानों में फुसफुसा दिया कि सुनने में
तो यही आता है कि शायद यह सस्पेंड और आधे वाक्य के बीच ही होंठ काट लिए। लेकिन
श्रोता ने कहने वाले की फुसफुसाहट को अपराधबोध से मुक्त करते हुए कहा, "अच्छा! पर
मुझसे तो कोई कह रहा था कि चार्जशीटेड क्या पूरी तरह एक्स्पेल्ड ही समझिए।"
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