"ओह,
सो नाइस ऑफ यू। क्या करूँ, बार–बार आप ही का नम्बर मिल जाता
है। प्लीज, आप ही जरा इस नम्बर पर सिस्टर नवल से कह दीजिए कि
वे बांद्रा फोन कर लें। बाय द वे आप किस नम्बर से बोल रहे
हैं?"
आवाज में वही खुमारी लौट आई है। मैं अनजाने ही अपने प्राइवेट
फोन का नम्बर बोल गया। थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा।
फिर पूछा गया, "करेंगे न यह कष्ट?"
"ओह, श्योर।" मैंने आश्वस्त किया।
फोन डिस्कनेक्ट होते ही मैंने आपरेटर से, दिए गए नम्बर पर
मैसेज दे देने के लिए कह दिया। थोड़ी ही देर में आपरेटर ने
कन्फर्म कर दिया – मैसेज दे दिया है।
हालाँकि वह सुरीली आवाज काफी देर तक कानों में गूँजती रही,
लेकिन काम, व्यस्तता और केबिन में आने–जाने वालों की गहमा–गहमी
में फोन की बात जल्दी ही दिमाग से उतर गई।
तभी सेक्रेटरी ने इन्टरकॉम पर बताया, "ग्यारह बजे के
अपाइन्टमेंट वाली पार्टी आई हुई है।"
उन्हें अन्दर भेजने के लिए कहा ही है कि वही मिश्रीवाला फोन
बजा। मुस्कुराया मैं, अब शायद रांग नम्बर न कहना पड़े। वही है।
मेरी आवाज सुनते ही बोली, "आपका बहुत–बहुत शुक्रिया। मैं कब से
परेशान हो रही थी। आपने बात करा दी।" शायद वह कुछ और कहना
चाहती है। शायद मैं भी कुछ और सुनना चाहता हूँ। लेकिन विजिटर
आकर बैठ चुके हैं। मैं उस कर्णप्रिया से कहता हूँ, "इस समय
थोड़ा व्यस्त हूँ, क्या आप मुझे बाद में फोन कर लेंगी, यही कोई
तीन–चार बजे।"
"नेवर माइंड" के साथ ही लाइन कट गई है।
अच्छा नहीं लगा, लेकिन स्थिति ही कुछ ऐसी है।
सवा तीन बजे। वही फोन। मैं सिगार के कश लेता हुआ केबिन की हवा
को बोझिल बना रहा हूँ।
"हाँ, कहिए, उस समय क्या कहना चाह रही थीं आप?"
"कुछ नहीं, सिर्फ एक अच्छे आदमी को धन्यवाद देना चाह रही थी।"
वह सचमुच बहुत मीठा बोलती है। इसका नाम तो मृदुभा होना चाहिए,
सोचता हूँ मैं।
"अच्छा आदमी। हम अच्छे आदमी कब से हो गए!" मैं अनजान बन जाता
हूँ। उसकी सूरत की कल्पना करता हूँ।
"आपने मेंरे लिए इतना कष्ट किया। मैंने इतनी बार आपको बिना वजह
डिस्टर्ब किया, लेकिन आप जरा भी नाराज नहीं हुए। कई लोग तो
दूसरी बार भी वही नम्बर मिलने पर चिल्लाने लगते हैं, जैसे फोन
पर ही हाथा–पाई शुरू कर देंगे।"
इतनी उजली आवाज को देर तक सुनना अच्छा लगता रहा, वह भी अपनी
तारीफ में। बात जारी रखने में कोई हर्ज नहीं लगा।
"इसमें शुक्रिया की क्या बात! अगर आप मेरी जगह होतीं तो आप भी
तो यही करतीं न!" आवाज से तो लगता है, तीस–बत्तीस की होगी।
"हाँ, करती तो मैं भी यही। इसीलिए तो आपको फोन किया।"
"अच्छा लगा। एक बात कहूँ, आप बुरा तो नहीं मानेंगी?" मुझसे कहे
बिना रहा नहीं गया।
"बुरा मानने लायक सम्बन्ध भी जोड़ लिया आपने, भई वाह!"
वह खिलखिलाई। लगा, सच्चे मोतियों की माला का धागा टूट गया हो
और सारे मोती साफ–सुथरे फर्श पर प्यारी–सी आवाज करते बिखर गए
हों।
"आपकी आवाज में गजब की मिठास है।" फाइलें निपटाते–निपटाते
मैंने कहा। सोचा, कहीं जानती तो नहीं मुझे, यूँ ही गलत नम्बर
का बहाना बनाकर मुझे ही फोन कर रही हो और अब?
"तो यूँ कहिए न, मेरी आवाज फिर सुनने की इच्छा रखते हैं," उसने
तरेरा।
"अरे नहीं, मेरा मतलब यह कतई नहीं था," मैं सकपकाया, "सचमुच
तारीफ करने लायक है आपकी आवाज।" मैंने मन की बात कह ही दी।
चाहने तो मैं भी लगा हूँ, यह आवाज सुनता रहूँ।
"अच्छी बात है। मान लेते हैं। थैंक्स वन्स अगेन।" संगीत की
लहरियाँ बज उठीं। देर तक चोगा हाथ में पकड़े सोचता रह गया। अरसे
बाद कुछ गुनगुनाने का मन हुआ। लेकिन फोन अभी डिस्कनेक्ट नहीं
किया गया था।
मैंने ही सिलसिला आगे बढ़ाया, "जान सकता हूँ, किससे बात कर रहा
हूँ?"
"नहीं," ओस की एक बूंद झप से झरी शांत जल में।
"कोई काम करने के पीछे तो वजह हो सकती है, न करने के पीछे कैसी
वजह?"
आवाज में शरारत है। लगा, फुर्सत में है और मुझे भी फुर्सत में
मानकर चल रही है। कई काम मेरा इन्तजार कर रहे हैं। दूसरे फोन
घनघना रहे हैं। मैं इसी फोन को थामें बैठा हूँ।
"क्या सोच रहे हैं आप, यह तो पीछे ही पड़ गई है। लीजिए बन्द कर
रही हूँ।" और उसने फोन रख दिया।
बहुत अर्से बाद, बरसों बाद किसी ने, वह भी अपरिचित ने सहज और
कहीं से जोड़ती–सी बात की है। सारा दिन यस सर, यस सर सुनने के
आदी कान यह सब कुछ को भूल चुके हैं। सम्बोधन से परे भी बात की
जा सकती है, यह आज ही महसूस हो रहा है। आवाज का रिश्ता! अच्छा
लगा। फिर से कल्पना करने लगा, कौन होगी, कैसी होगी! किस उम्र
की होगी, क्या करती होगी। अपनी इस फालतू की उत्सुकता पर हँसी
भी आई और मज़ा भी। जमें रहो श्रीमान सोमेंन्द्रनाथ! प्रतीक्षा
करो!! फिर आवाज देगी वह!!!
अगले तीन दिन उस आवाज ने दस्तक नहीं दी। हो सकता है, दी भी हो
और मैं मीटिंग वगैरह में बाहर गया होऊँ। बहरहाल इस ओर ज्यादा
सोचने की फुर्सत भी नहीं मिली। खुद से ही पूछता हूँ – क्यों
इन्तज़ार कर रहा हूँ उसके फोन का। मुझे उसकी आवाज़ ने बाँध लिया
है, जरूरी थोड़े ही है उसे भी मेरी आवाज, बातचीत अच्छी लगी हो।
जैसे उसे और कोई काम ही न हो, एक अनजान आदमी से बात करने के
सिवा। हमारा परिचय ही कहाँ है? एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते,
देखा तक नहीं है, सिर्फ आवाज का पुल! कई तरह के तर्क देकर उसके
ख्याल को भुलाने की कोशिश करता हूँ, फिर भी हल्की–सी उम्मीद
जगाए रहता हूँ। वह फिर फोन करेगी।
चौथे दिन सुबह ही वह फोन बजा। मेरी साँस एकदम तेज हो गई। फोन
तो वह पिछले चार दिन से बीच–बीच में बजता ही रहा है। उठाया भी
हर बार मैंने ही है। बीच में दो–एक बार उसकी आवाज़ की उम्मीद भी
की है। लेकिन हर बार बिजनेस कॉल ही आए हैं। अब लग रहा है, वह
होगी। थोड़ी देर बजने दिया, फिर आवाज को बेहद सन्तुलित करते हुए
'हैलो' कहा।
"कैसे पता चला, मैं बोल रहा हूँ?" पूछ बैठा।
"अगर आप सिर्फ 'हूँ' ही कहते, तब भी मुझे पता चल जाता।" उसकी
आवाज में निश्चिंतता है।
"आवाजों की बहुत पहचान है आपको?" मैंने परखा।
"आवाजों की नहीं, आपकी आवाज़ की हो गयी है।" वह आश्वस्त है।
"कैसे?" मैंने कुरेदा।
"वायस ऑफ एक नाइस मैन हूँ?" पूछना तो यह चाहता हूँ, चार दिन
कहाँ रही, लेकिन बात को आगे बढ़ते देख सब्र किए हूँ।
"कोई जरूरी है, हर बात के लिए सर्टिफिकेट दिया जाए?" उसने
निरूत्तर कर दिया। उसका फोन नंबर पूछने की इच्छा हो रही है,
फिर कोई भारी बात कह दी तो?
"मैंने परसों भी फोन किया था। किसी ने उठाया नहीं।"
'ओह तो यह बात है', मैंने अपनी खुशी दबायी।
"हाँ, शायद मैं कहीं बाहर गया होऊँगा, सेल्स के सिलसिले में।"
मैंने एक जवान–सा झूठ बोला।
"क्या बेचते हैं आप? कछुआ छाप मच्छर अगरबत्ती?" हँसी का तेज
फव्वारा भीतर तक भिगो गया।
"अरे नहीं, दरअसल" मैं हकलाया, "मैं सेल्स इंजीनियर
हूँ। एक
कम्प्यूटर कम्पनी में।" मैंने पहले वाले झूठ को कपड़े पहनाए।
शुक्र है, ऐसी लाइन बतायी, जिसकी मुझे अच्छी जानकारी है, वरना
. . .कहीं फिर घेर ले, क्या पता।
"अच्छा! बिका कोई कम्प्यूटर उस दिन?" उसने मेंरे झूठ के गिरेबान
में झाँका।
"हाँ, कहा तो है, देखें कब तक लेते हैं।" मैंने झूठ को सहलाया।
"जब बिक जाए तो एक कॉफी हमें भी पिला देना मिस्टर सेल्स
इंजीनियर।" आवाज में कहीं बनावट नहीं है।
मैं हडबड़ाया, "श्योर, श्योर, कहाँ? कब? किसे?"
"वह हम खुद बता देंगे, ओ.के.?
ओ.के. में विदा लेने की इजाज़त कम और सूचना अधिक है।
कमरे में मेरा मैं लौट आया। सोमेंन्द्र नाथ, उद्योगपति। एक
लंबी साँस ली मैंने और हौले से चोगा रख दिया। दिलके किसी कोने
ने उपहास उड़ाया – क्या सूझ रहा है आपको श्रीमान सोमेंन्द्र
नाथ, इस उम्र में ये हरकतें!
आजकल मैं खुद में बहुत परिवर्तन देख रहा हूँ। हर काम स्मार्टली
करने लगा हूँ। गाहे–बगाहे होंठ खुद–ब–खुद सीटी बजाने की मुद्रा
में गोल हो जाते हैं। कई बार इस वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ी
है। मेरी पर्सनैलिटी और कपड़ों की पसंद की लोग तारीफ करते ही
रहते हैं, फिर भी आजकल इस तरफ कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगा
हूँ, मेंरे बाल सफेद और काले के बहुत बढ़िया अनुपात में है।
सुरमई झलक लिए। चाहने लगा हूँ, काश, ये काले ही होते, जैसे
तीस–बत्तीस साल की उम्र में थे।
उस कहे गए झूठ को मैं खुद भी पूरी तरह से ओढ़ने लगा हूँ। युवा,
स्मार्ट और सेल्स इंजीनियर जो बन गया हूँ। खुद को झूठी तसल्ली
भी देने लगा हूँ, मैं कुछ गलत थोड़े हीकर रहा हूँ। फोन तो वही
करती है। मैं तो सिर्फ . . .दिल का वही कोना ताना मारता है . .
.फिर यह युवा बनने का नाटक क्यों? साफ–साफ क्यों नहीं कह देते
– बहुत व्यस्त आदमी हूँ, मेंरे पास इन चोंचलों के लिए फुर्सत
नहीं है, लेकिन इसके लिए भी जवाब खोज लेता हूँ – वह
पूछने–बताने का मौका ही कहाँ देती है!
"आप कॉफी की हकदार हो गयी हैं मिस–" मैंने जानबूझकर वाक्य
अधूरा छोड़ दिया। उसने अगले दिन जब फोन किया।
"पी लेंगे। क्या जल्दी है मिस्टर सेल्स इंजनियर।" उसने नहले पर
दहला मारा। लगा मेरा मजाक उड़ा रही है।
"देखिए," मैंने नाराज होने का नाटक किया, "मेरा नाम सेल्स
इंजीनियर नहीं है, मेरा नाम . . ."
"ओह! अच्छा तो आपका कोई नाम भी है!" वह पूरी तरह शरारत पर उतर
आयी है। "हम समझे . . ."
"इतनी भोली मत बनिए, मेरा नाम . . ."
"जान लेंगे नाम भी . . .काहे की जल्दी है," उसने जल्दी से मुझे
टोका। मैं हैरान हुआ, अजीब लड़की है, जो न अपना नाम बताती है, न
मेरा नाम जानने की इच्छा है, फिर भी फोन करती रहती है।
"और सुनाइए, क्या हाल हैं?" उसने मुझे अधीर करते हुए पूछा।
"अपने बारे में कुछ बताइए ना।" मैं सीधा बेशरमी पर उतर गया।
"क्या जानना चाहते हैं आप?" लगा हथियार डाल देगी आज।
"कुछ भी, जो बताना चाहें।" मैं उदार हो गया।
"नाम–नाम में क्या रखा हैं। उम्र–महिलाओं से उम्र नहीं पूछी
जाती। वजन–बहत्तर किलो, कद–पाँच फुट नौ इंच। फोन नंबर–उसकी
आपको क्या जरूरत। चाहो तो सारा दिन फोन लगाए रखूँ आपका। और कुछ
पूछना है?" उसने शातिर खिलाड़ी की तरह पत्ते दिखाए।
"नहीं, इतना ही काफी है। शुक्रिया।" मैंने हार मान ली।
फोन रखने के लिए इस बार मैंने पूछा। मुझे नहीं रखनी ऐसी
फोनो–फ्रेंड, जो हर बार खुलने के नाम पर रहस्य का एक और आवरण
ओढ़ ले। तय कर लिया अब बात ही नहीं करूँगा।
लेकिन मेरी नाराजगी ज्यादा देर नहीं चली। मना ही लिया उस
मिठबोलन ने। अब फोन भी ज्यादा आने लगे हैं और देर तक चलने लगे
हैं। मेरी भी अधीरता अब बढ़ने लगी है। अब छेड़ती नहीं। तंग नहीं
करती अपनी उलटबासियों से। उसने अपना तो सिर्फ नाम बताया है –
अणिमा, लेकिन मेरा इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र
सब कुछ उगलवा लिया है। अब मेरा झूठा काफी सयाना हो गया है और
खुद बढ़–चढ़कर अपनी बातें बताने लगा है। बत्तीस वर्षीय सोम लिसे
चार हजार रूपये वेतन मिलता है। एक सरदारनी के यहाँ पेइंगगेस्ट रहता
है। सरदारनी काफी ख्याल रखती है। माँ–बाप दूर एक कस्बे में
रहते हैं और हर महीने मनीआर्डर का इंतज़ार करते हैं। दिन का तो
चल जाता है, शामें बहुत बोर गुजरती हैं। होटल का खाना भी नहीं
जमता रोज़–रोज़। बंबई में तीन साल में एक भी गर्लफ्रेंड नहीं बन
पायी अभी तक। ये और इसी तरह के बीसियों, खूबसूरत झूठ बोले
मैंने।
ये सारी बातें मैंने उसे क्यों बतायीं और कब–कब बतायीं, मुझे
नहीं पता। मुझे तो इतना याद रहता है कि उसकी आवाज सुनते ही मैं
दूसरा इन्सान बन जाता हूँ। वह पूछती रहती है, कुरेदती रहती है
और मैं चाबी भरे बबुए की तरह झूठ की किताब बन जाता हूँ। मैंने
एक बार भी समझने की कोशिश नहीं की है कि मैं यह सब क्यों कर
रहा हूँ। क्यों झूठ का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा कर रहा हूँ, जिसके
आगे मेंरे सारे सच बौने होते चले जा रहे हैं।
अब मेरा बहुत–सा वक्त इसी आवाज की सोहबत में गुजरने लगा है।
मेंरे ऑफिस का स्टाफ भी मेंरे बदले हुए व्यवहार से हैरान–परेशान
है। उनका यह खब्ती "सर" अब बहुत उदार हो गया है। पूरी बात सुने
बिना हाँ कर देता है या जहाँ कहो, 'साइन' कर देता है। मैं तो
सिर्फ इतना जानता हूँ कि बरसों बाद मैं सिर्फ अपने लिए जी रहा
हूँ। उसके लिए मुझे कुछ भी ही देना पड़ रहा है। जिन्दगी भर
कारोबार करते–करते थक गया था। अब सिर्फ पा रहा हूँ। मुझे तो यह
भी नहीं पता कि जो मुझे यह सब कुछ दे रही है, कौन है, किस
उम्र, तबके या स्तर की है, कभी रूबरू मिलेगी भी या नहीं, या जब
मेंरे झूठ का यह ढांचा भरभरा कर गिरेगा तो क्या होगा। उस अंजाम
के बारे में मैं सोचना भी नहीं चाहता। जानता हूँ, उसे धोखा
देने का दोषी हूँ, पर वह भी तो दो महीने से मुझे उलझाए हुए
हैं। हाँ, एक अच्छी बात है, वह अपने कारणों से अपने बारे में
नहीं बताती या मिलने को उत्सुक नहीं और मैं अपने कारणों से,
झूठ की वजह से मिलने को लालायित नहीं। वैसे भी झूठ का कवच अब
मेरा ही दम घुटेगा। हमें तो यह भी नहीं पता कि हम एक दूसरे की
जिंदगी में कहाँ फिट होते हैं, या होते भी हैं या नहीं। बस
इतना ही सच है कि वह हर रोज पहले से ज्यादा आत्मीय और जरूरी
होती चली जा रही है। दिन के हर पल के लिए जरूरी। अब ऑफिस में
देर तक बैठना या जल्दी पहुँचकर उसके फोन का इंतजार करना ही
काफी नहीं लगता। अपना नंबर न उसने दिया है, न मैंने माँगा ही
है।
उससे बातें करते–करते पता ही न चला कब आठ बज गए। ड्राइवर
चपरासी, लिफ्टमैन, सेक्रेटरी सब लोग मेंरे जाने का इंतजार कर
रहे हैं। सबको इनाम देकर रवाना किया। बिल्डिंग से नीचे उतरा तो
पूरा बैलार्ड पीयर हल्की–हल्की बूंदा–बांदी में नहाया बहुत
हसीन लग रहा है। उफ! कितना अच्छा दृश्य, कितना अच्छा मौसम। कई
बार इस वक्त या इससे भी देर से ऑफिस से निकलता हूँ, लेकिन आज
तक इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया है। ड्राइवर को भी विदा कर दिया
है। हल्की–हल्की बूंदा–बांदी में भीगते चलना अच्छा लग रहा है।
मूड उससे बातें करके वैसे ही अच्छा है, मन गुनगुनाने का हो रहा
है। शहर का यह हिस्सा इस वक्त सुनसान हो जाता है, लेकिन सड़कों
पर जितने भी लोग हैं, सब मुझे अपनी तरह खुश लग रहे हैं।
आज बहुत चला हूँ। बरसों बाद। यूँ ही, निरुद्देश्य। पुराने
दिनों को, पुराने साथियों को याद करते हुए। चलते चलते ग्रांट
रोड तक आ पहुँचा हूँ। सामने एक ढाबा नुमा होटल देख भूख चमक आयी
है। आज ढाबे में ही खाया जाए। कहीं पढ़ा था, अच्छी जगह खाना हो
तो फाइव स्टार होटल, अच्छे लोगों में खाना हो तो थ्री स्टार या
कोई भी एयरकंडीशंड होटल और अच्छा खाना खाना हो तो ढाबे से
बढ़िया कोई जगह नहीं होती। आज अच्छा खाना सही। खाना खाकर मजा आ
गया। मन–ही–मन कहीं संकोच भी या कोई पहचान वाला या कर्मचारी ही
न देख ले। आशंका निर्मूल रही।
ऑफिस में बात कर लेना अब काफी नहीं लगता, काम का हर्जा तो फिर
भी सह लूँ, खुद को इस तरह सारे दिन फोन पर व्यस्त रखकर खुद को
स्टाफ की निगाहों में और नहीं लाया जा सकता। इसीलिए मैंने उसे
बताया है कि मेरी मकान मालकिन छह महीने के लिए अपने बेटे के पास
लंदन जा रही है, इसलिए वह अपना फोन मेंरे पास देकर जा रही है।
इस बहाने मैंने अणिमा से घर पर बात करने का सिलसिला ढूंढ़ लिया
है। उसे बेडरूम का पर्सनल नंबर दे दिया है, जिसे मेंरे अलावा
कोई नहीं उठाता। पाँच साल पहले पत्नी की मृत्यु के बाद से पूरी
को कोठी में वैसे भी मेंरे और नौकर के अलावा कोई नहीं रहता।
बेटे जब मेंरे पास रहने आते हैं, तो अपने–अपने कमरों में ही
रहते हैं। वैसे भी विदेशों से रोज–रोज कहाँ आ पाते हैं। उनके
अपने धंधे हैं वहाँ पर।
घर पर फोन आने शुरू होने से मेरी जिंदगी ही बदल गयी है। अब
मेरी शामें यूँ ही बिजनेस पार्टियों में सर्फ नहीं होती, जहाँ
कहा गया एक–एक शब्द किसी लेन–देन की भूमिका होता है। अब मैं
पूरे एकांत में, तसल्ली से उससे बतियाता रहता हूँ। हम दोनों की
सुबह एक साथ होती है। नौकर के बैड–टी लाने से पहले उसकी गुड
मार्निंग पहुँच जाती है।
अब बेड–रूम में अधलेटे कुछ पढ़ते हुए उसके फोन का इंतजार करना
और फिर उससे बात करना बहुत भला लगता है। मैंने उसे ऑफिस में
फोन करने से अब मना कर दिया है। इससे एक बात तो तय हो गयी है,
वह टेलीफोन ऑपरेटर नहीं है। उसके खुद के कमरे में टेलीफोन है
और उसे कोई ज्यादा डिस्टर्ब नहीं करता। कई बार लाइन बीच में
छोड़कर गायब हो जाती है काफी देर के लिए। कई बार उसके घर–बार की
कल्पना करता हूँ। हो सकता है किसी खाते–पीते घर की लड़की हो, जो
शादी का इंतजार कर रही हो, लेकिन उस उम्र की लड़कियों के तो
अजीब–अजीब शौक होते हैं, मसलन घूमना, फिरना, बॉय फ्रेंड्स
वगैरह। वह तो ऐसी नहीं लगती। यह भी हो सकता है, टूर पर
रहनेवाले या बिजी रहनेवाले किसी बड़े अफसर या मेरी तरह के
उद्योगपति की बीवी हो, जिसने वक्त गुजारने का जरिया ढूंढ लिया
हो। इसीलिए शायद फोन नंबर नहीं बताती। लेकिन वह जिंदगी से ऊबी
हुई तो नहीं लगती। बातचीत से तो यही लगता है, जिंदगी जीनेवाली,
मैच्योर और सॉफिस्टिकेटेड लेडी है।
एक दिन पूछा था उससे, "क्यों फोन करती हो रोज मुझे?"
"ठीक है, नहीं करेंगे।" वह गंभीर हो गयी।
"अरे नहीं, यह गजब मत करना, वरना . . ." मैं घिर गया था।
"वरना क्या . . ." वह वैसी ही सीरियस थी।
"अणिमा, शायद मैं कह नहीं पाऊँगा, लेकिन जिंदगी में मुझे इतना
अपनापन किसी ने नहीं दिया है।" यह मैंने सोमेंन्द्रनाथ का सच
बोला।
"तुम्हारा वहम है, आवाज के रिश्ते से भला कैसे अपनापन दे दिया
मैंने। तुम मुझे जानते नहीं, मैं तुम्हें जानती नहीं।"
मैंने उसे बात पूरी नहीं करने दी, तुरंत कहा, "अणिमा, मुझे
इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए। जितना दे रही हो, वही देती रहो बस।"
मैं हाँफ गया था।
"ठीक है, सोचेंगे।" खुद पर गुस्सा भी आया, क्यों बनता जा रहा
हूँ इतना कमजोर मैं। 'धिक्कार है तुम पर' मन के किसी कोने ने
ठहोका मारा, "एक आवाज के पीछे क्या जान दोगे?"
मैं सिर थाम लेता हूँ।
उस दिन इतवार था। कहीं जाना था मुझे। तैयार हो रहा था कि बहुत
पुराने दिनों की बातें याद आने लगीं। माता–पिता, भाई, इकलौती
बहन, बड़ा हवेलीनुमा घर। नौकर–चाकरों की फौज, मोटर गाड़ियों में
घूमना। लंबे–चौड़े कारोबार के बीच पिता से हमारी मुलाकातें हो
ही नहीं पाती थीं, लेकिन जब भी वे हमारे लिए वक्त निकालते,
हमारे लिए सबसे खुशी का दिन होता – उस दिन पढ़ाई से छुट्टी
रहती।
पढ़ाई से उसकी याद आई। अपने पहले प्यार की। पहली बार प्यार
मैंने अपनी ट्यूटर से किया था, अब सोचकर भी हँसी आती है। पता
नहीं वो प्यार था भी या नहीं। मैं नवी में था और वह बी.एस सी.
कर रही थी। शायद छवि नाम था उसका। बहुत अच्छी लगती थी मुझे।
गहरा संवलाया रंग। वह पढ़ाती रहती और मैं एकटक उसका चेहरा
निहारता रहता। एक बार उसे जबरदस्ती चूम लिया था मैंने। उसका
चेहरा एकदम फक पड़ गया था, बिना कुछ कहे तेजी से चली गयी। अगले
तीन–चार दिन तक पढ़ाने नहीं आयी। मुझे बहुत ग्लानि हुई थी,
लेकिन कह नहीं पाया था। वह फिर से आने लगी थी। निश्चय ही पैसों
की जरूरत उसे वापिस ले आयी थी। मैं फिर शरीफ तो हो गया था,
लेकिन उससे आँखें मिलाकर माफी नहीं माँग पाया था। किसी तरह चुप
चुप पढ़ पढ़ा कर सेशन पूरा किया था हमने। फिर कई आयीं जिंदगी
में। कोई हिसाब नहीं। कुछ अच्छी भी लगी होंगी तब, लेकिन अब
पचास पार कर जाने पर वह सब कुछ बचकाना लगता है।
तैयार होकर निकलने ही वाला था कि फोन की घंटी बजी। कोयल कूकी।
मैं बतियाने बैठ गया। बताने लगी – रातभर सो नहीं पायी है। कारण
बताया, "रात स्वदेश दीपक का उपन्यास मायापोत शुरू किया। पहले
तो उस उपन्यास को बीच में अधूरा छोड़ नहीं पायी, और जब पूरा कर
लिया तो रातभर की नींद गयी। एक तो उसके सभी पात्र इतने उदात्त
है कि सहज ही स्वीकार्य नहीं होते, दूसरे उसमें संबंधों,
मृत्यु और घटनाओं आदि के साथ कुछ ऐसे प्रयोग किए गए हैं कि गले
में फांस सी अटकती महसूस होती है।"
उपन्यास देखा है मैंने भी, लेकिन पढ़ने का वक्त नहीं निकाल सका
था। बातें घूमते–घूमते साहित्य पर आ गयीं। ट्रैक बदलते रहे,
लेकिन बातों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। मैंने बाहर जाना
स्थगित कर दिया और कपड़े बदल डाले। शर्ट्स और टीशर्ट पहन लिए
कार्डलैस हाथ में लिए–लिए मैं किचन में आया। खुद के लिए कॉफी
बनाने लगा। शायद बीस–बाईस बरस बाद अपने लिए कॉफी बना रहा था।
खटपट सुनकर बोली, "क्या कर रहे हो?" जब बताया कि कॉफी बना रहा
हूँ तो घुड़क दिया, "तुम अकेले क्यों पीओ कॉफी? तुम तब तक पंडित
भीमसेन जोशी का नया एलपी सुनो, मैं भी खुद के लिए कॉफी बनाती
हूँ।" और उसने अपना चोगा रिकार्ड प्लेयर चलाकर उस पर रख दिया।
उस दिन मैंने सारे नौकरों को भारी इनाम देकर शाम तक की छुट्टी
दे दी और पूरी फुर्सत से फोन पर बात करने में जुट गया। हमने
शाम के सात बजे तक यानी लगातार दस घंटे तक बातें की। अपनी,
उसकी, दुनिया जहान की। इस दौरान उसने मुझे दसियों खूबसूरत
नज्में सुनायीं। आयन रैड ने अपनी किताब एटलस श्रग्ड में 'मनी'
की परिभाषा कैसे की है, वे पूरे चौबीस पृष्ठ पढ़कर सुनाए।
दसियों कप कॉफी पीते हुए, सैंडविच कुतरते हुए, बीयर के लंबे
घूंट भरते हुए, अपनी–अपनी जिंदगी के भूले–बिसरे पन्ने पलटते
हुए, डायरियों में बरसों पहले लिखी गयी बातें सुनते सुनाते उन
दस घंटों में मैंने, हमने एक पूरा युग जी लिया।
मैंने खुद की
जिंदगी की किताब सेल्स इंजीनियर सोम की जिंदगी की किताब बनाकर
फोन पर खोल दी। मैं एक सच को झूठ और दूसरे झूठ को सच बनाकर
एक–एक पल भरपूर जीवन जीता रहा उस दौरान। हाथ में कॉर्डलैस लिए
पूरे बंगले में घूमता रहा। बंगले की एक–एक चीज को, जो मेरी तो
थी, लेकिन जिसे मैं पहचानता नहीं था, छू–छूकर उससे अपना रिश्ता
कायम करता रहा। अलग–अलग वक्त पर, दुनिया भर के शहरों से खरीदी
अपनी चीजों, किताबों को सहलाकर, झाड़–पोंछकर फिर से सजाता रहा।
फोन करते–करते मैंने बाथिंग टब में अलफ नंगे होकर काफी वक्त
गुजारा। अरसे बाद खुद को देखा।
उस दौरान मैंने एक पूरी जिंदगी का अहसास पाया। उसकी आवाज मेंरे
लिए सिर्फ आवाज नहीं थी, एक जीवन मंत्र की तरह कानों में उतर
रही थी। मैंने उसके जरिए खुद को पहचाना – उस दिन एक दूसरे के
बहुत सारे सच जाने हमने। झूठ पकड़े। बेवकूफियाँ बांटी और जख्म
सहलाए। हमने एक–दूसरे के जीवन की बहुत–सी खट्टी मीठी बातें,
यादें, अनुभव, एक दूसरे की डायरियों में दर्ज कीं तब। लेकिन
फिर भी उसने अपनी पहचान नहीं बतायी थी, मुझे भी कोई उत्सुकता
नहीं थी, लेकिन उसकी बातों के जरिए, आवाज के पुल के जरिए मैं
अपने से अलग, अपरिचित किसी अपने के जीवन में उतर गया था। वह
मेंरे जीवन में बरसों से पसरे अकेलेपन को बुहार गयी थी। नये
सिरे से जीवन जीने के लिए मेरा घर–बार अपनी आभा से आलोकित कर
गयी थी। बिना मेंरे सामने आए, मेंरे पोर–पोर में अपनी मौजूदगी का
अहसास छोड़ते हुए। उसी दिन मुझे पता चला था कि पिछले कई वर्ष
मैंने खुद के लिए नहीं जीये थे, एक व्यवसायी ने दूसरों के लिए
जीये थे।
अब वह मेरा, सोम का सारा शेड्यूल जानती है। क्या खाता, पहनता
हूँ, से लेकर क्या पढ़ा से कितना बचाया तक। घर पैसे भेजे या
नहीं और पैसे पहुँचने की खबर आयी या नहीं तक की डायरी उसके पास
है आजकल। मैंने अब तक उस पर अपना राज जाहिर नहीं किया है। एक
नन्हा सा झूठ फैलते–फैलते अब इतना विराट हो गया है कि मेरा
वजूद किसी भी वक्त उसके नीचे कुचला जा सकता है। डर लगता है उस
भयावह स्थिति की कल्पना करे। सब कुछ उसे बता कर उसे खोना नहीं
चाहता। वह जो भी हो, जिस भी उम्र की हो, उसने कम–से–कम मेरी
तरह झूठ तो नहीं बोले हैं। सिर्फ मौन ही तो रही है अपने बारे
में। अब मेंरे लिए निहायत जरूरी हो गया है कि इस सिलसिले को
जारी रखूँ। मुझे अभी उसका फोन नम्बर नहीं पता, हालाँकि जानना
चाहता भी नहीं, लेकिन यह सिलसिला अगर उसी ने बन्द कर दिया तो!
हर सुबह मेरी खिड़की के बाहर खिलनेवाला गुलाब किसी दिन नहीं
खिला तो वह जो मनभावन बदली जो रोज मेंरे घर–आँगन में बरसकर
मेरा
जीवन सींच जाती है, अगर कभी न गुजरी तो! ये सारे सवाल मुझे अब
परेशान करने लगे हैं, लेकिन उसकी निरन्तरता और मुस्तैदी फिर
मुझे निश्चिंत कर देते हैं।
अगर मैं फोन नहीं उठाता तो बात नहीं करती। कुछ पूछती भी नहीं।
रख देती है। चाहे बीसियों बार फोन करना पड़े। बहुत घुमक्कड़ है,
कहीं भी घूमने निकल जाती है। जिस भी शहर में हो, फोन जरूर करती
है। हर बार यही कहती है – कितनी देर से तुम्हारा नंबर डायल कर
रही थी, अब याद आया, यह नंबर इस शहर का नहीं और शहर तुम्हारा
नहीं। मैं हर बार पहले से ज्यादा खुशनसीब आदमी बन जाता हूँ।
मैंने भी अपने दौरे कम कर दिये हैं। कहीं जाता हूँ तो उसे पहले
से बता देता हूँ, लेकिन दूसरे शहरों के नंबर नहीं देता। उसके
फोन के बिना गुजरने वाले दिन वाकई बहुत लम्बे और उबाऊ होते
हैं। तु्रन्त लौट पड़ता हूँ।
जन्म दिन था कल उसका। मुझे पहले से पता नहीं था। पता होता भी
तो उस तक अपनी शुभ–कामनाएँ पहुँचाने का कोई जरिया नहीं है मेंरे
पास। कुछ ऐसा संयोग रहा कि न घर पर मिला मैं, न ऑफिस में। रात
आठ बजे ही बात हो पायी। खुद ही बताया, "आज मेरा जन्मदिन है"
मुझे बहुत गुस्सा आया, पहले नहीं बता सकती थी। उसी ने तब
बताया, "आपके विश के इंतजार में कब से कुछ नहीं खाया है।" सिर
पीटने का मन हुआ। उसे विश किया। कुछ खा लेने के लिए कहा। मैंने
बहुत कोशिश की, मुझे एक मौका तो दे दो कुछ देने का। नहीं मिलना
चाहती न मिले, किसी बड़े स्टोर में मैं उसके लिए गिफ्ट पैक
करवाकर रख देता हूँ, किसी को भेजकर मंगवा ले, लेकिन जिद्दी,
बिल्कुल नहीं मानी। रात देर तक उसके ख्याल परेशान करते रहे।
खुद के लिए भी अच्छा लगा, कोई तो है जो इतना मान देता है। उस
शख्स के लिए भी रश्क हुआ जिसे उसका भरपूर प्यार मिलता होगा या
मिलेगा। दुनिया का सबसे खुशकिस्मत आदमी।
पिछले चार दिन से उसका फोन नहीं आया है। काफी परेशान हूँ। खुद
पर गुस्सा भी आ रहा है, बहुत अपना समझता हूँ उसे, उसका फोन
नंबर तक तो ले नहीं पाया अब तक कि सुख दुख में संपर्क कर सकूं।
अब बैठे रहो कुढ़ते हुए उसका फोन आने तक। हर वक्त दिमाग पर छायी
रहती है। हर वक्त फोन के आस–पास मंडराता रहता हूँ, घर या ऑफिस
में। कल बाजार में पैदल चलते कई बार भान हुआ, उसी की आवाज
सुनायी दी हो जैसे, दो एक–बार तो पीछे मुड़कर देख भी लिया,
लेकिन उस आवाज की सी शख्सियत वाला चेहरा नहीं दिखा।
पाँचवे दिन सुबह फोन किया उसने। थकी हुई आवाज!
"कहाँ से बोल रही हो, तुम ठीक तो हो, इतने दिन . . .।"
उसने बात पूरी नहीं करने दी।
"मुझे कुछ नहीं हुआ है, अचानक गांव चली गयी थी अपने। वहाँ फोन
तो क्या बिजली तक नहीं है। तुम सुनाओ . . ."
क्या सुनाता मैं। चुप ही रह गया।
उस दिन हमने शब्दों के जरिए कम और शब्दों के बीच के मौन के
माध्यम से ज्यादा बातें की। एक–दूसरे को पूरी शिद्दत के साथ
महसूस किया, जैसे हम आमने–सामने बैठे हों। अँधेरे में एक–दूसरे
की सांसों की गरमी को महसूस करते हुए। फोन करने का सिलसिला फिर
चल पड़ा है।
आज मेरा जन्मदिन है। सवेरा उसी के संदेश से हुआ है। टेलीफोन
एक्सचेंज के जरिए जन्मदिन की शुभकामना। हैरान हुआ, खुद क्यों
नहीं फोन कर लिया उसने। थोड़ी ही देर बाद दरवाजे पर ताज होटल से
एक खूबसूरत बुके पहुँचा उसकी तरफ से। देरी के लिए एक
क्षमायाचना के साथ कि कल ऑर्डर देते समय मैडम ने खाली नाम और
फोन नंबर बताया था, नंबर टेलीफोन डायरेक्टरी में न होने के
कारण एक्सचेंज की स्ट्रीट सर्विस से खासी दिक्कत के बाद पता
मिल पाया। ऑफिस पहुँचा तो वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा मैडम ने।
बम्बई की सबसे बड़ी फैशन शॉप "अकबर अलीज" से फोन आया कि आपके
लिए एक गिफ्ट है। किसी को भेजकर मंगवा लूँ या अपना पता दे दूं।
वे भिजवाने की व्यवस्था कर देंगे। अजीब खब्ती है मैडम! अपना
जन्मदिन बताने की जरूरत नहीं समझी और यहाँ पूरे शहर को शामिल
कर रहीं है मेंरे जन्मदिन में। आने दो फोन उसका!
मन मार कर अकबर अलीज से पैकेट मंगवाया। एक खूबसूरत ब्रीफकेस,
उसमें मेंरे मनपसन्द रंग का रेडीमेंड सूट, शर्ट, टाई, रूमाल,
पर्स, डायरी सब कुछ है। विस्फारित आँखों से मैं मेंज पर फैला
सारा सामान देख रहा हूँ। समझ नहीं पा रहा हूँ, क्या पहेली है।
क्या करूँ इस सबका? कहाँ है वह दरियादिल कम्बख्त! आने दो उसका
फोन! क्या समझती है खुद को! देखूँ मैं भी!
दिन भर उसका फोन नहीं आया। अमेरिका और आस्ट्रेलिया से बेटों के
फोन आए। दुनिया भर में फैले रिश्तेदारों, दोस्तों, बिजिनेस
पार्टियों के फोन, कार्ड, गिफ्ट आए। पूरे ऑफिस ने विश किया,
गिफ्ट दिए। पर वह! सारा दिन ढँग से कुछ खाया न गया। गुस्सा
होने के बावजूद उसके फोन का इंतजार करता रहा। नहीं आया। कई
निमन्त्रण थे, लंच के, डिनर के, कहीं नहीं गया। सीधे घर आकर
बेडरूम में लेट गया। तकिये में सिर दिए करवटें बदलता रहा।
कौन–सा बदला ले रही है मुझसे! क्यों नहीं फोन करती या सामने
आती!
तीस–पैंतीस सालों के बाद अचानक मेरी रूलाई फूट पड़ी। छीः एक
आवाज से इतना मोह! मैंने खुद को समझाना चाहा, क्यों बना हुआ
हूँ कठपुतली उस आवाज का? क्यों नहीं उठा देता परदा अपने झूठ पर
से और मुक्त हो जाता! उस पर भी गुस्सा आता रहा। आखिर चाहती
क्या है मुझसे! क्या मैं छोटा बच्चा हूँ, जो हर बार मैं ही
मनाया जाऊँ!
सोच–सोच कर सिर फटा जा रहा है। कभी वह मेंरे जीवन को फिर से
जीवंतता से सराबोर कर देने वाली चांदनी लगती है तो कभी एक
छलावा और मायावी लगने लगती है। हर पल छल रही है जो मुझे।
अभी आँख लगी ही थी कि फोन बजा। वक्त देखा, रात के दो बजे हैं।
इस वक्त कौन हो सकता है। फोन उठाया। इधर से कोई आवाज नहीं।
काफी देर तक हैलो, हैलो कहने के बाद भी आवाज नहीं, न ही फोन
डिसकनेक्ट किया गया। फोन रखने ही वाला था कि वह बोली, "नर्सिंग
होम से बोल रही हूँ। कल रात कार एक्सीडेंट हो गया था।"
"ओह!" इससे आगे मैं कुछ कह पाता, पहले वही बोली, "नहीं, घबराने
की कोई बात नहीं। अभी मरूँगी नहीं। अभी थोड़ी देर पहले ही होश
आया है।" मैं कहाँ, कैसे, कब, जैसे बीसियों सवाल एक साथ पूछना
चाहता हूँ, लेकिन शब्द नहीं सूझ रहे हैं। हाथ कांप रहे हैं।
"बाय द वे, हैपी बर्थ डे।" वह शायद दर्द से छटपटा रही है।
भींचे होठों की आवाज़ पकड़ पा रहा हूँ मैं। क्या कहूँ उसे, मौत
से जूझ रही होगी, फिर भी पूछ रही है, "बर्थ–डे केक में
मेरा
हिस्सा रखा है न!" पूछना चाहता हूँ भी बहुत कुछ, परन्तु मौका
नहीं है। तुरन्त उसे अपनी कसम देता हूँ। नर्सिंग होम का पता
देने के लिए। उसने बिना किसी हील–हुज्जत के पता बता दिया है।
हौले से, 'गुड नाइट' कह कर रख दिया है फोन उसने।
रात भर सो नहीं पाया। कई बार लगा, सुबह हो गई है। उसे नर्सिंग
होम देखने जाना है। उससे मिलने का खयाल आते ही मेरी धड़कन तेज
हो जाती है। मिल भी रहे हैं तो किस हालत में। कैसे मिलूँगा,
क्या कहकर अपना असली परिचय दूंगा। जानता भी तो नहीं, वह कौन
है। दुर्घटना कितनी गम्भीर थी, कहीं ज्यादा चोटें न लगी हों।
सारी रात जागे–अध जागे में बीती।
सुबह–सुबह ही नर्सिंग होम के लिए निकलता हूँ। एक तरफ उसकी
कुशलता की चिन्ता है और दूसरी तरफ अपना झूठ पकडे जाने की
धुकधुकी। मन पसोपेश में है। नर्सिंग होम के गेट पर गाड़ी रोककर
खुद से पूछता हूँ – तो इस मुलाकात के बाद? किसका मोहभंग पहले
होगा? उसका, जो मुझे नहीं सोम को जानती है, मेरा गढ़ा हुआ एक
काल्पनिक चरित्र, जो मैं नहीं हूँ। या मेरा जो खाली उसका नाम
जानता है, और कुछ नहीं। 'नहीं', मुझे, उसे इस हालत में तो जरूर
ही मिलना चाहिए। गाड़ी पार्क करके रिसेप्शन तक आता हूँ। फिर
सोचता हूँ। 'उसकी आवाज के बिना नहीं रह सकता।' लौटने लगता हूँ।
मन का कोई कोना ताना मारता है, 'डरपोक, अपने स्वार्थ के लिए
उसे देखने तक नहीं जाआगे? क्या इसलिए नर्सिंग होम का पता माँगा
था?' फिर लौट पड़ता हूँ। सीढ़ियाँ चढ़ना शुरू करता हूँ। 'देख लो,
अगर सब कुछ यहीं खत्म हो गया तो?' उससे आगे नहीं सोच पाता कुछ
भी। न ही, उसकी आवाज के बिना नहीं रह सकता मैं। वह कोई भी हो,
मेंरे लिए निहायत जरूरी है। उसे ये जख्म तो भर जाएँगे, लेकिन
मुलाकात के बाद के दोनों के जख्म!
नहीं, यह जादू नहीं टूटना चाहिए।
मैं सीढ़ियाँ उतर कर गाड़ी की तरफ बढ़ जाता हूँ फिर रुकता हूँ और
सामने फ्लोरिस्ट की दुकान में चला जाता हूँ। |