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					 कम्बल से काम नहीं चलेगा, रेशमी 
					लिहाफ़ हो तो वह आराम से सो सकती है। अम्मा को अपने पुराने 
					रेशमी लिहाफ की याद आ गई और इसी कारण उसकी सख्त ज़रूरत महसूस 
					होने लगी। 
 लिहाफ का कपड़ा उसने सालों पहले दो सौ रूपये में एक मोटे अफगानी 
					से खरीदा था। बेहद चख चख करी थी और सिर मारा था, उसके बाद ही 
					सौदा हो सका था। कपड़ा था भी कितना प्यारा मगर महँगा, ऊपर से वह 
					मोटा थुलथुल अफगानी बेहयाई से हँसते हुए कह गया था “अमाँ, टुम 
					मर कर खुदा के पास चला जाएँगा पर यह मरदूद लिआफ कब्बी नईं 
					फटेंगा…। ” खालिस रेशम का चमचमाता हुआ कपड़ा और उस के सुर्ख लाल 
					रँग पर सफेद चाँदनी के लहराते फूलों की कतार। अम्मा ने हफ्तों 
					बैठकर अपने हाथों से उसको तागा था। इसी लिहाफ को ओढ़ कर वह सारी 
					सर्दियाँ काटती आई थी। पर जब से वैदेही आई थी तब से उसकी काक 
					दृष्टि लिहाफ पर जमी हुई थी। उस की सुन्दरता पर तो वह पहले ही 
					मर मिटी थी, अब मौका मिला था सो दाब कर बैठ गई होगी। ऐसा जान 
					उसने गूदड़ से दिखने वाले कम्बल को एक कोने में पटका और पिन्टू 
					को आवाज़ दी, ” पिन्टू भैया… रेशम वाला लिहाफ पकड़ा जा…बहुत ठण्ड 
					लगती है…, पर कोई न सुनता था।
 नीरवता का वातावरण बेहद डरावना था। सँध्या भी, कालिमा ओढ़े सघन 
					रात्री सी दिख रही थी। तभी आँगन में सरसराहट हुई जैसे कोई उठ 
					कर चल रहा. हो। दरअसल सन्नाटे को चीरती हुई अम्मा की आवाज़ से 
					कोठरी में सो रही, काली लँगड़ी बिल्ली जाग उठी थी। वह भी कोठरी 
					में रहती है अम्मा के साथ। अपनी टूटी टाँग के कारण अधिक चल फिर 
					नहीं सकती। अम्मा की थाली में जो भी बच खुच जाता है उसीसे अपना 
					पेट भर लेती है। अम्मा प्रेम से उसे ‘कल्लो’ कह कर पुचकारती 
					है। कभी कभार अधिक दुःखी होती है तो हृदय की बात उस मूक प्राणी 
					से कह देती है। कल्लो ने क्रोध से अपनी लाल आँखों द्वारा अम्मा 
					को घूरा और धीरे–धीरे रेंगती हुई कोठरी के बाहर पड़ी टूटी तिपाई 
					के नीचे घुस कर पुनः ऊँघने लगी। अम्मा ने सोचा पिन्टू भी सोता 
					ही होगा वह निर्लज्ज है बिल्कुल माँ जैसा ही। सुन रहा होगा तो 
					भी कानों में अँगुली ठूँसे पड़ा होगा। उसकी माँ वैदेही, अम्मा 
					को एक उजड्ड देहाती घाटन से अधिक कुछ नहीं समझती। दो 
					असमान्तर पीढियों के बीच की 
					टकराहट की चिरकाल से चली आ रही वही पुरानी कहानी। 
 पढ़ी लिखी है, किसी कम्पनी के दफ्तर में बढ़िया नौकरी करती है। 
					अत्यन्त सुन्दर रूप और उज्जवल वर्ण है उसका। उसे अपने जीवन 
					में किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं। बस अम्मा की गँवारू हरकतों 
					के कारण वह बहुधा लज्जित रहती है, उस पर वयस के अन्तर का महत्त्व 
					वह जानती नहीं, जब भी मौका देखती है अम्मा पर पिल पड़ती है। ” 
					अम्मा, तुमको ज़रा भी शर्म नहीं… बाथरूम में चुपके से कर आती 
					हो…सड़ास पर बैठने से डर लगता है…कहती हो उल्टे मुँह गिर पड़ोगी 
					…’ऐटिकेट्स’ नहीं सीखोगी … कल मिसेज़ सिंह को ‘जनानी’ कहती 
					थीं…जानती हो उन्हें देख पसीने में भीग गई थी तुम…कहती थीं न 
					डर लगता है…कितना हँसी होंगी वे…डरपोक हो तुम…निरी डरपोक… फोन 
					की घण्टी … …भीड़ …सँड़ास …सब 
					से डरती हो तुम… तुम्हारा हमारा निभाव कैसे हो… इज्जत का कचड़ा 
					बना दिया है तुमने …। ”
 
 अम्मा सुनती है शरीर को सिकोड़ कर, बूढ़े हाथों को बाँध कर, सिर 
					को झुकाए, उसे धीमे धीमे हिलाती हुई मानो बहुत बड़ा अपराध हो 
					गया हो उससे। अम्मा के ऐसा करने पर भी वह प्रसन्न नहीं होती। 
					वह कहती है कि उसे अम्मा की अगढ़, नाटी और काले रँग की देह से 
					उबाँत सी होती है। अम्मा का हर वक्त ठंड के कारण दाँत 
					किटकिटाते रहना, उस पर हाथ के बुने मोटे मोटे गन्दे मोजों को 
					पहन, घिसिर घिसिर कर घर के इस कोने से उस कोने तक दौड़ लगाना 
					सभी कुछ बेहद खिजा देने वाला होता है। बदरँग मोजे, सूख चुकी 
					एड़ियों से फिसल कर अक्सर बाहर लटक जाते हैं, छोटे छोटे 
					घिनौने सपोंलों की तरह, पर अम्मा 
					अपनी ही धुन में दौड़ती भागती है। किसी के भी सामने उस असभ्य 
					वेस में बेखबर खड़ी हो जाती है।
 
 बेहद अशिष्ट है अम्मा, इतना कहने पर भी कुछ सीखना नहीं चाहती। 
					इन्हीं कारणों से कुछ दिन पहले ही तो घर के सबसे आखिर में बनी 
					इस कोठरी में स्थापित कर दिया गया था उसे। फस् फस् की आवाज से 
					अक्सर वैदेही की नींद उड़ जाती। हरदम मुँह फुलाए पड़ी रहती और 
					शिकायत करती कि अम्मा के घिस–घिस कर चलने से उसके कानों में 
					खुजली होती है। घर की कमाई में उसकी भी प्रबल हिस्सेदारी है सो 
					उसको कष्ट देना कोई न्याय न था। जैसा कि साधारणतः, इस प्रकार 
					के गृह क्लेशों में पुरुषों की भूमिका खेदपूर्ण और निराशाजनक 
					होती है वैसी ही स्थिति पुत्र दयानन्द के साथ भी है। छः फिट की 
					लम्बी चौड़ी काया, उस पर टिका हुआ काले आबनूसी रंग का चेहरा, 
					तरकश सी बेडौल नाक और नाक की बदसूरती को उभारती हुई जूट सी 
					कत्थई रँग की छितड़ी और कड़ियल मूँछे। निजी दफ्तर की मखमली 
					कुर्सी पर बैठा अपने मातहतों पर दिन भर रौब झाड़ता है, कभी कभार 
					हाथ लगे तो जनता जर्नादन के कान उमेठ कर अपनी जेबें गर्म कर 
					लेता है। आस पड़ोस के सभी लोग उसकी हेठी देख भय खाते हैं। तनी 
					हुई गर्दन व गजोन्मत चाल के कारण वह बेहद खौफनाक दिखता है। पर 
					कोई नहीं जानता कि घर में घुसते ही वह भयँकर मनुष्य, निरीह 
					खरगोश बन पत्नी की गोद में कैसे दुबक जाता है। उसने औरत का 
					दुःख देखा तो पश्चाताप व ग्लानि से भर उठा। स्त्री के कष्ट का 
					निवारण कैसे हो यही भूमिका बनाता रहा। अन्त में विचार किया कि 
					अम्मा को गन्दी कोठरी के भीतर खिसका देना बेहतर होगा जो 
					गृहस्थी की कूड़ा हो चुकी व टूटी फूटी वस्तुओं को जुटाने के 
					लिये उत्तम स्थली थी। शरीर में शेष, कुछ 
					सड़ी गली हडियों का पिंजर भी धरती 
					पर अब किस काम का। सो अम्मा भी मान गई।
 
 साढ़े तीन पाँव का मुगलई तख्त, एक पिचकी सुराही, छोटी सी बाल्टी 
					में नहाने का लोटा, साबुन व गिनती भर कपड़ों को गोद में धर कर 
					वह चुपचाप कोठरी के भीतर बैठ गयी थी। वह पुत्र मोह से भ्रमित 
					है इसी कारण बेटे को दोष नहीं दिया। किन्तु दयानन्द, अम्मा की 
					दीर्घ आयु को देख कर पहले से ही चिन्तित रहता था अब तो बेहद 
					दुःखी हुआ और कहने लगा,” पीछा छोड़ो हमारा, सँसार का मोह 
					त्यागो और चला चली का कार्यक्रम बनाओ। मैं कहता हूँ ऐसा विचार 
					क्यों नहीं आता तुम्हें… अब तो तुम्हारा जाना ही ठीक है…सिर 
					पीट पीट कर जीती हो कैसे सब सह लेती हो तुम …तुम जाओ तो 
					इस कोठरी को ऊँचे कराये पर चढ़ा 
					दूँ…बढ़िया ग्राहक इसी प्रतीक्षा में छूट रहे हैं…।”
 
 यह जीवन भी भला किसी के वश में हुआ है अम्मा समझी लड़का मजाक 
					करता है और हो हो करने लगी। हँसते हँसते रूलाई फूट पड़ी। सब के 
					सब एक ही मिटी में ढले हैं। पिन्टू की माँ की वजह से उसकी अधिक 
					दुर्गत हुई। अब तो महारानी, अवश्य चैन से सोती होगी, रँग 
					बिरँगे सपनों में विचरती होगी, यह ख्याल भी न करती होगी कि 
					बुढ़िया जीती है या मर गई… देह में ज़रा भी ताकत शेष होती तो यूँ 
					बर्बादी न होने देती अपनी …नाक की सीध में बाहर खदेड़ कर रख 
					देती…। अम्मा की ठठरी जैसी काया, क्रोध में जोरों से थरथरा 
					गयी। सर्द हवा से बचने के लिये उसने खिड़की के अधसड़े पल्ले को 
					अपनी ओर खींच कर बन्द करना चाहा पर कमजोर होने की वजह से वह 
					टूट गया और लटक कर झूले सा 
					झूलने लगा।
 
 कल्लो, खट पट की आवाज़ सुन कर पुनः जाग उठी थी, चुँधियाती आँखों 
					से उसने तिपाई पर पड़े–पड़े ही अम्मा को ताका। इस बार वह नाराज़ न 
					थी बल्कि अपनी टूटी हुई टाँग को धीमे धीमे हिलाकर अम्मा की 
					दुःस्थिति का आनन्द ले रही थी। अम्मा को अपनी विवशता पर रोना आ 
					गया। हिड़कियाँ भर कर वह जोर–जोर से रोई फिर चुपचाप आँसू पोंछते 
					हुए सोचने लगी अगर पैरों से लाचार न होती तो स्वयं ही चलकर 
					लिहाफ उठा लाती। एक महीने से वह अपनी बेकार हो चुकी टाँगों के 
					कारण अपाहिज का जीवन जी रही है। पिन्टू की माँ रोटी पानी देती 
					है पर त्यौरियाँ चढ़ाकर मानो पूछती हो यह सब बवाल पालने की 
					आवश्यकता ही क्यों थी। उसके विचारों से यह सब अम्मा की बुद्धि 
					से उपजा एक षडयन्त्र मात्र है, अपनी सेवा करवाने के उद्देश्य 
					से खेला गया एक अनूठा और ओछा नाटक। कल ही की बात है, वैदेही 
					कहती थी कि इसी अमावस्या को नाई बुलाया है अम्मा के बाल छोटे 
					करने हैं। वे झड़ते हैं, फिर भोजन पानी में गिरते हैं। यह एक 
					बहुत बड़ी समस्या है। इस उम्र में बेवजह के खटराग पाल रखे हैं 
					अम्मा ने। चूहे की पूँछ जैसी अपनी चुटिया को तेल 
					साबुन लगा 
					कर सँवारती है। इतना ही चाव है तो वृद्ध आश्रम में भर्ती हो 
					जाएँ।
 
 अम्मा रो पड़ी थी, कहने लगी, बाल ही क्यों, बेकार हो चुकी देह 
					ही भरपूर खटराग है उससे भला कैसे मुक्ति हो इसका उपाय क्या 
					किसी के पास नहीं। बेदर्द औरत है…हृदय में दुःख या ग्लानि नहीं 
					होती इसके, हूबहू पिशाचनी का नक्शा खींचकर जन्मी है …मनुष्य 
					के रूप में डाकिनी है…। अम्मा पुत्रवधू को कोसने लगी। ऐसा करते 
					वक्त उसके मस्तक पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। क्रोध व 
					द्वेष की तपिश से शीत का एहसास कुछ समय के लिये क्षीण तो अवश्य 
					हो गया था पर लुप्त नहीं।
 
 विचारों के मकड़जाल से छूटीं तो ठंड से पुनः छटपटा गई। विचार 
					किया कि लिहाफ खुद ही उठा कर लाएँगी। सिर के ठीक ऊपर लटकते 
					लट्टूनुमा बल्ब की गँदली सी रोशनी में उसने दृष्टि दौड़ाई। कबाड़ 
					के ढेर के अलावा वहाँ कुछ भी न था। कल्लो भी तिपाई से नादारद 
					थी। एक भूरे रँग के बिलौटे ने उसे जैम लगी ब्रैड कुतरते हुए 
					देख लिया था। वह शायद बाजू वाली कोठी कि दिवार से छलाँग मार कर 
					आया था। बासी हो चुके जैम की तीखी गन्ध पा उसने बेहद ललचाई 
					नजरों से कल्लो को ताका। मौका देख कर वह ब्रैड झपट लेना चाहता 
					था। कल्लो दुश्मन की गन्ध पा कर सर्तक हो गई और ब्रैड के मोटे 
					हिस्से को टूटे पन्जे से दबा कर मजे से धीरे धीरे खाने लगी। 
					धूर्त बिलौटे ने पैंतरा जमाया, अपने भारी भरकम पन्जों को ऊपर 
					उचका कर एक हवाई छलाँग मारी और कल्लो को धकियाते हुए एक तरफ 
					पटक दिया। वह फर्श पर जा गिरी। बड़ी बेचारगी से उसने अपनी लँगड़ी 
					टाँग को ओर देखा और जीभ निकाल कर चाटने लगी।
 
 अम्मा को बेहद अफसोस हुआ उसे लगा कल्लो और उसमें कितनी समानता 
					है। दोनों ही कमजोर और लाचार। वह लिहाफ नहीं ला सकेगी शायद। 
					उसकी हिम्मत जवाब दे गयी। परन्तु कल्लो भी कम फुर्तीली न थी। 
					भूरा बिलौटा जो ब्रैड पर टूट पड़ा था और अब जीभ लपलपा कर मजे से 
					उसे साफ करने में लगा था, पीछे होने वाले हमले से बिल्कुल 
					बेखबर था। कल्लो ने बुद्धिमानी का परिचय देते हुए अपने पन्जों 
					के पैने नाखून बिलौटे के पिछले टखनों में गड़ा दिये। बिलौटा 
					दर्द से बिलबिला उठा। उसने घूम कर कल्लो पर जवाबी वार करना 
					चाहा लेकिन तब तक वह ब्रेड को मुँह में दाब कर तेजी से उछलते 
					हुए कोठरी में घुस चुकी थी। हमलावर ने शर्म से सिर झुकाया और 
					दीवार फलाँग कर गुम हो गया। यह सब देख अम्मा की हँसी छूट गई।” 
					वाह वाह कमाल कर दिया …मेरी मरगिल्ली कल्लो …..........बड़ी 
					बहादुर है, दुश्मन को 
					कैसा मज़ा चखाया …अहा मेरे पास तो आ … ” ताली पीट पीट कर वह 
					कल्लो को बुला रही थी।
 
 कल्लो भी मिऊँ मिऊँ की आवाज़ करते हुए तख्त पर लोटने लगी। अम्मा 
					ने उसके सिर पर हाथ फेरा “मुझे बहुत ठंड लग रही है …तुझे नहीं 
					लगती …कितनी कमजोर हो गई है तू…और मुझे भी देख …मैं नहीं 
					हुई…?” कल्लो ने सब कुछ समझते हुए अम्मा के चेहरे पर अपनी 
					कन्जी आँखें टिका दीं जैसे कह रही हो,” हाँ समझती हूँ तुम भी 
					बेहद कमज़ोर हो गई हो …। ” अम्मा ने दुबारा प्रश्न किया “रेशम 
					वाला लिहाफ़ चाहिये …तू कहे तो ले आऊँ…?” कल्लो ने हामी में सिर 
					हिलाया और अम्मा ने अपनी बेदमी टाँगों को सीधा कर लिया। तख्त 
					पर दोनों हथेलियों को टिकाया और शरीर का बोझा उन पर लादकर अपने 
					दोनों पैर धरती से चिपका दिये। धीरे–धीरे कर देह को सरकाती हुई 
					वह उठ गई। इतना करने में ही साँस ऊपर से नीचे तक फूल गई। 
					”सत्यानाश हो जाए …। ” उसकी अन्तर्आत्मा से पुत्रवधू के लिये 
					बुरी–बुरी बातें निकल पड़ी। वह धीरे धीरे कर कोठरी से बाहर 
					निकली। दिल में धुकधुकी सी बँध गई अगर वैदेही ने कह दिया कि 
					लिहाफ नहीं दूँगी या धक्का दे कर कमरे से बाहर कर दिया तो क्या 
					कर सकेगी वह? कुछ भी तो नहीं …हाथों को बाँध लेगी, सिर को झुका 
					लेगी और वापिस चली आएगी। नहीं इस बार ऐसा न होने देगी वह 
					…लड़ेगी अपने हक के लिये …ज्यादा नहीं तो लिहाफ़ उठा कर ले 
					जाएगी उसके सामने से…।
 वह हिम्मत 
					बाँधकर हाल में घुस गई जिसमें वैदेही अपने पुत्र को छाती से 
					चिपकाए सो रही थी। हल्की पीली रोशनी में उसका मुख देखा तो भूरा 
					बिलौटा याद आ गया। कड़ुआहट से मुँह बिचकाकर वह दरवाज़े 
					पर ठिठक कर खड़ी हो गई। वैदेही ने रेशमी लिहाफ ओढ़ रखा था। उसके 
					ओंठ किसी सुन्दर स्वप्न को देख स्वतः ही सिकुड़ फैल रहे थे। ऐसी 
					मीठी नींद अब कभी नसीब न हो सकेगी। धीरे से आगे बढ़ लिहाफ का 
					कोना अम्मा ने अपनी ओर खींचा, लिहाफ अब भी सुन्दर और मुलायम 
					था। वह उत्साह से भर उठी और दोगुने वेग से कोने को खींचने लगी। 
					इस प्रक्रिया में वैदेही की नींद उखड़ गई। वह झपट कर उठी। अम्मा 
					को सामने खड़ी देख उसका क्रोध भड़क गया। आदतन चिल्ला उठी,” मुझे 
					सर्दी लगती है … इतनी आवश्यकता थी तो आवाज़ दी होती,… लिहाफ 
					वापिस करिये अब…। ” उसने बड़ी निर्लज्जता से अम्मा की कलाई पकड़ 
					ली। पर अम्मा इस बार डरी नहीं बल्कि लिहाफ के कोने को मुठ्ठी 
					में भींच लिया और दृढ़ स्वर में उत्तर 
					दिया,” जा नहीं देती…। ”
 वैदेही ने बड़ी–बड़ी आँखों तरेरीं,” शिकायत कर दूँगी …।”
 “कर देना …अम्मा किसी से नहीं डरती …। ”
 “मेरी चीज़ पर किसी का हक नहीं…किसी का भी नहीं…।”
 अम्मा ने काँपती टाँगों को सम्भाला और लिहाफ को सीने से लगा कर 
					लँगड़ाती हुई कोठरी की ओर मुड़ गई।
 कल्लो ने अम्मा की ओर प्रशँसात्मक दृष्टि से देखा “कमाल कर 
					दिया, बड़ी बहादुर हो तुम…।”
 अम्मा हौले से मुस्करायी और उसकी आँखों में आँखें डाल कर 
					बोली,” हाँ सब कुछ तुझ से ही तो सीखा है…। ”
 दोनों इस अप्रत्याशित जीत से बेहद प्रसन्न हुईं। कोठरी का 
					गन्दला बल्ब अब बुझ चुका था, वर्षा भी धीरे धीरे कर थम रही थी। 
					अन्दर से खर्राटों की ध्वनि साफ सुनाई पडने लगी थी।
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