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कहानियाँ  

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से विनीता अग्रवाल की कहानी रेशमी लिहाफ


भीषण वर्षा, वह भी अगहन के महीने में जब शीत धीरे धीरे कर पाँव पसार रही है, उसी समय इस बेवक्त की बरसात ने आकर सारा जीवन अस्त व्यस्त कर दिया है। प्रकृति इस बार कुपित है, तभी तो पिछले तीन दिनों से वर्षा ने थमने की सुध ही नहीं ली है। सड़क पर तेजी से लहलहाता पानी, उस पर तैरते कीड़े मकोड़ों के निस्पन्द शरीर, गली में बन गया छोटा सा चौबच्चा, जिसमें कल तक मुहल्ले के खिलन्दड़ लड़के डुबकी लगाते दिखते थे, विरान दिख रहा है। लगता है सभी बालक अपने–अपने घरों के भीतर दुबक कर बैठ गये हैं शीत के कारण।

कोठरी के भीतर बैठी बूढ़ी अम्मा की देह में भी झुरझुरी सी दौड़ गई। पूरी गली में किसी मनुष्य की आहट तक नहीं…पिन्टू भी नज़र नहीं आ रहा जाने कहाँ मर गया …वर्षा भी कोई मामूली नहीं पूरे झपाके के साथ बरसती ही जाती है …अम्मा ने बड़बड़ाते हुए खिड़की से सिर निकाला और तनिक ऊपर कर आसमान की ओर ताका तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो मोटे काले बादल उस पर भरभरा कर गिर पड़ेंगे। वह डरी और झटपट गर्दन को वापिस खींच खिड़की से कुछ दूर सरक कर बैठ गई। प्रकृति का विकराल रूप देख वह घबरा गई और अपनी जर्जर देह को झटपट सिर से लेकर पाँव तक कम्बल के भीतर दुबका लिया। उसे महसूस हुआ कि वर्षा के कारण ठण्ड अधिक बढ़ गई है सो अपनी टाँगों को सिकोड़ कर उसने पेट से चिपकाया और गुरमुटी बन बैठी रही। कुछ ही देर आराम से बैठ सकी थी कि अगले क्षण एक सर्द हवा का झोंका आया और सूखी देह को चीरता चला गया।

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